इस्लामी जगत-23
हमने तालेबान और दाइश जैसे दो अतिवादी संगठनों के बारे में विस्तार से चर्चा की थी।
आपको हम यह भी बता चुके हैं कि पिछले कई वर्षों से इस्लामी जगत में मतभेद फैलाने में इन चरमपंथी विचारधाराओं की प्रभावी भूमिका रही है। हमने इस बात का भी उल्लेख किया था कि इन अतिवादी विचारधाराओं के फलने-फूलने में जहां पर मुसलमानों के बीच पाई जाने वाली निर्धन्ता और अज्ञानता की भूमिका रही वहीं पर इस्लाम के दुश्मनों के षडयंत्र भी इन अतिवादी विचारधाराओं की मज़बूती का कारण बने हैं।
इस बात का उल्लेख पिछले कार्यक्रमों में किया जा चुका है कि पूरे संसार के मुसलमानों के बीच एकता स्थापित करने का कोई संयुक्त मानदंड होना चाहिए। एकेश्वरवाद, पैग़म्बरे इस्लाम, पवित्र क़ुरआन और क़िब्ले पर आस्था एसा संयुक्त कारक है जो दुनिया भर के मुसलमानों को एकजुट कर सकता है। निःसन्देह, इस महत्वपूर्ण मूल सिद्धांत को अपनाए बिना इस्लामी जगत में एकता स्थापित करना मात्र एक स्वप्न के समान है। इस मूल सिद्धांत के अतिरिक्त कोई और एसी चीज़ नहीं है जिसे आधार बनाकर संसार के सारे मुसलमानों को एक प्लेटफार्म पर लाया जाए।

कुछ लोगों का यह मानना है कि धन-दौलत या राजनीति को माध्यम बनाकर भी मुसलमानों को एकजुट किया जा सकता है। हालांकि राजनीति और अर्थव्यस्था एसे विषय हैं जिनमें दोस्त और दुश्मन बदलते रहते हैं। परिस्थितियों के बदलने के साथ ही साथ राजनीति और अर्थतंत्र में दोस्त और दुश्मन भी बदल जाते हैं। इस हिसाब से इनकों एकता स्थापित करने का मानदंड नहीं बनाया जा सकता। इन बातों से यह निष्कर्य निकलता है कि विश्व के सारे मुसलमानों को एकजुट करने के लिए केवल एक ही मूल सिद्धांत है जिसका उल्लेख किया जा चुका है। यहां पर एक सवाल यह उठता है कि मूल सिद्धांत तो बहुत पहले से मुसलमानों के बीच मौजूद है लेकिन इसके बावजूद उनमें विश्व स्तर पर एकता दिखाई कर्यों नहीं देती।
इसका जवाब यह है कि वास्तव में एकेश्वरवाद, पैग़म्बरे इस्लाम, पवित्र क़ुरआन और क़िब्ले पर आस्था जैसा सिद्धांत तो मौजूद है लेकिन समस्या यह है कि इस्लामी जगत में मतभेद का कारण धर्म नहीं बल्कि इस्लामी देशों के शासकों के निजी हित, जातिवाद, आर्थिक मामले और इन शासकों के क्रियाकलाप हैं। अब अगर हम यह चाहते हैं कि इस्लामी जगत को एकजुट किया जाए तो पहले हमें इन अस्थाई कारकों को समाप्त करना होगा। इनको समाप्त किये बिना किसी भी स्थिति में इस्लामी जगत में एकता की स्थापना, किसी स्वप्न के सिवा कुछ और नहीं है।
इस्लामी जगत के परिवर्तनों की समीक्षा यह दर्शाती है कि कुछ एसे कारक पाए जाते हैं जिनके बिना हमारे सारे प्रयास व्यर्थ जाएंगे। उनमें सबसे ऊपर है इस्लाम का खुला शत्रु अर्थात इस्राईल। इस्लामी देशों के साथ इस्राईल की शत्रुता जगज़ाहिर है। यह एसी वास्विकता है जिसे किसी भी स्थिति में अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसी के साथ विश्ववासी फ़िलिस्तीनियों के साथ इस्राईल की खुली शत्रुता और विश्ववासियों विशेषकर मुसलमानों द्वारा फ़िलिस्तीनियों को उनके वैध अधिकार दिलाने की मांग से भी अवगत हैं। इस हिसाब से यह कहा जा सकता है कि इस्लाम से इस्राईल की शत्रुता और फ़िलिस्तीन का मुद्दा एसा विषय है जिनके माध्यम से मुसलमानों के बीच एकता उत्पन्न की जा सकती है। इतिहास में एसी बहुत सी मिसालें मौजूद हैं कि फ़िलिस्तीन के विषय पर इस्लामी देशों की संयुक्त नीति, इस्लामी जगत में एकजुटता पैदा करने में बहुत प्रभावी रही है। इसके विपरीत एसे भी उदाहरण पाए जाते हैं जिनसे पता चलता है कि फ़िलिस्तीनियों की आकांक्षाओं को अनदेखा करते हुए इस्राईल के साथ दोस्ती कैसे गंभीर मतभेदों का कारण बनी जिसके परिणाम स्वरूप मुसलमान कमज़ोर हुए हैं।
हम यह बात कह चुके हैं कि इस्लामी जगत में एकता स्थापित करने में फ़िलिस्तीन के विषय को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस विषय के महत्व को इस प्रकार से समझा जा सकता है कि इस्लामी देशों के संगठन ओआईसी के गठन में फ़िलिस्तीन के विषय की महत्वपूर्ण भूमिका है। मस्जिदुल अक़सा में लगाई जाने वाली आग की घटना ही ओआईसी के गठन का कारण बनी थी। सन 1969 में एक अतिवादी यहूदी ने मुसलमानों के पहले क़िब्ले में आग लगा दी थी। इस घटना से पूरे इस्लामी जगत में रोष फैल गया था। इसके बाद मुसलमानों ने अपने शासकों को बाध्य किया कि वे उनके कड़े विरोध को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अवश्य दर्शाएं।

मुसलमानों के कड़े विरोध के बाद सितंबर 1969 में ओआईसी का गठन हुआ जिसकी पहली बैठक रबात में हुई। बैठक में 20 इस्लामी देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया। रबात बैठक में तीन विषयों पर विचार-विमर्श किया गया। मस्जिदुल अक़सा का अग्निकांड, इस्राईल द्वारा फ़िलिस्तीनियों की भूमियों का अतिग्रहण और बैतुल मुक़द्दस की स्थिति।
ओआईसी की बैठक में मस्जिदुल अक़सा में लगाई गई आग की घटना की कड़े शब्दों में निंदा की गई। इस बैठक में भाग लेने वाले इस्लामी देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने मांग की थी कि बैतुल मुक़द्दस को जून 1969 की स्थिति से पूर्व वाली स्थिति में वापस लाया जाए। उन्होंने इसी प्रकार यह भी मांग की थी कि बैतुल मुक़द्दस के प्रति मुसलमानों की विशेष श्रद्धा के दृष्टिगत उसे हर प्रकार की क्षति से सुरक्षित रखा जाए। उनकी एक मांग यह भी थी कि जन सन 1969 में इस्राईल द्वारा अतिग्रहित फ़िलिस्तीनियों की भूमि से इस्राईली सैनिकों को तत्काल हटाया जाए। इसी प्रकार इस्लामी देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने फ़िलिस्तीनियों द्वारा अपनी भूमियों को स्वतंत्र कराने के लिए संघर्ष का भी खुला समर्थन किया था।
ओआईसी अपने गठन के समय से ही फ़िलिस्तीनियों के संघर्ष का समर्थन करता आया है। हालांकि इस दौरान उसने कुछ अवसरों पर फ़िलिस्तीन के विषय को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जितनी गंभीरता से उसे लेना चाहिए था। इस संगठन ने क़ुद्स समिति का गठन, इस्राईल पर प्रतिबंध लगाने के संघ का गठन और इसी प्रकार की गतिविधियां उसने फ़िलिस्तीनियों के लिए की हैं।
जिस समय इस्लामी गणतंत्र ईरान के हाथ में ओआईसी की बागडोर थी अर्थात वह इसका प्रमुख था उस काल में तेहरान ने इस्लामी जगत में एकता को अधिक से अधिक मज़बूत करने के लिए उल्लेखनीय प्रयास किये। इस दौरान फ़िलिस्तीनियों पर ज़ायोनियों के अत्याचारों की बारंबार कड़ी भर्त्सना की गई। ईरान ने इस कालखण्ड में विश्ववासियों के सामने इस्राईल के अत्याचारों को अधिक से अधिक पेश करने का प्रयास किया ताकि इस अवैध शासन पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर दबाव बन सके।