May २९, २०१७ १६:१६ Asia/Kolkata

यह बात तो हम पहले ही बता चुके हैं कि इस्लामी देशों के बीच एकता या एकुजटता स्थापित करने में कुछ सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों की भूमिका रही है।

इन दो रको के अतिरिक्त एक अन्य कारण भी है जो मुसलमानों को एकजुट करने में प्रभावी भूमिका निभा सकता है।  वह है आर्थिक कारक।  एक संयुक्त आर्थिक बाज़ार का गठन करके जहां एक ओर मुसलमानों की निर्धन्ता का मुक़ाबला किया जा सकता है वहीं इस माध्यम से उनके बीच एकता भी स्थापित की जा सकती है।

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पहले हमने बताया था कि कमज़ोर ईमान के कारण बहुत से मुसलमान, इस्लामी शिक्षाओं से दूर रहे हैं।  शुद्ध इस्लामी शिक्षाओं से दूरी के ही कारण मुसलमानों के बीच गंभीर मतभेद पैदा हुए हैं।  कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि मुसलमानों की प्रगति एवं विकास में बाधा का एक प्रमुख कारण बुरी आर्थिक स्थिति है।  महापुरूषों का कहना है कि बुरी आर्थिक स्थिति, मनुष्य के ईमान को भी प्रभावित करती है।  इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मुसलमानों की ख़राब आर्थिक स्थिति, उनके ईमान के कमज़ोर होने का एक महत्वपूर्ण कारण हो सकती है।

मुसलमानों की आर्थिक स्थिति के ख़राब होने में बहुत बड़ी भूमिका उनके शासकों और नेताओं की है।  यदि इन देशों के शासक बड़ी शक्तियों पर भरोसा न करके अपने देश की जनता पर भरोसा करते हुए कोई क़दम उठाते तो इसके अच्छे परिणाम सामने आते लेकिन ऐसा नहीं हुआ।  अतः यह बात खुलकर कही जा सकती है कि इस्लामी देशों के शासकों द्वारा बड़ी शक्तियों का वर्चस्व स्वीकार करने से इन देशों की अर्थव्यवस्था अधिक ख़राब हुई है।  यह देखा गया है कि बहुत से निर्धन या कमज़ोर देश अपनी स्थिति को ठीक करने के लिए शक्तिशाली देशों से मदद लेते हैं और फिर उनके वर्चस्व का शिकार होकर उनपर निर्भर हो जाते हैं।

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विश्व का कोई भी देश जब किसी देश पर आर्थिक दृष्टि से निर्भर हो जाता है तो फिर वह स्वभाविक रूप से उस देश के सांस्कृतिक और राजनैतिक वर्चस्व में फंस जाता है।  यही विषय इस देश के भीतर गंभीर मतभेदों का कारण बनता है।  विश्व के कई देश एसे हैं जो प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के स्वामी होने के बावजूद पूरी तरह से वर्चस्ववादी देशों पर निर्भर हो चुके हैं।  इन देशों की सूचि में इस्लामी देश सर्वोपरि हैं।  अधिकांश इस्लामी देशों में तेल और प्राकृतिक गैस के भण्डार मौजूद हैं किंतु वे फिर भी वर्चस्ववादी देशों पर ही आश्रित हैं।  इसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह है कि मुसलमान देश जिन वर्चस्ववादी देशों पर निर्भर हैं वे इन दशों के प्राकृतिक संसाधनों का दिल खोलकर दोहन कर रहे हैं।  अपने देश के संसाधनों के लूटे जाने के बावजूद कुछ इस्लामी देश, बड़ी शक्तिया के भरोसे ही रहते हैं।  यह देश बड़ी शक्तियों से डरते भी बहुत हैं।  बड़ी शक्तियां या वर्चस्ववादी देश, कमज़ोर इस्लामी देशों के साथ अपनी इच्छानुसार व्यव्हार करते हैं और जो चाहता है वह उनके साथ करते रहते हैं।

पूरी दुनिया में जितना भी तेल पाया जाता है उसका एक तिहाई तेल, इस्लामी देशों के नियंत्रण में मौजूद हैं।  इसी प्रकार दुनिया भर में पाई जाने वाली प्राकृतिक गैस का सत्तर प्रतिशत भाग इस्लामी देशों के पास है।  इन दो महत्वपूर्ण स्रोतों के बावजूद बहुत से एसे खनिज पदार्थ हैं जो इस्लामी देशों के पास मौजूद हैं।  प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के अतिरिक्त इस्लामी देशों के पास बड़ी संख्या में श्रमबल है जो पश्चिमी देशों की तुलना में बहुत सस्ता है।  इतने अधिक सकारात्मक कारकों के बावजूद हम देखते हैं कि अधिकांश इस्लामी देशों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।  वहां के मुसलमान बहुत ही बुरी आर्थिक स्थिति में जीवन गुज़ार रहे हैं।

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जहां बहुत से मुसलमान देशों की जनता बहुत ही कठिन एवं विषम परिस्थितियों में ज़िंदगी गुज़ार रही है वहीं बड़ी शक्तियां इन्हीं देशों के प्राकृतिक संसाधनों का खुलकर दोहन कर रही हैं।  दूसरी ओर इस्लामी देशों के शासक, अपने देश की जनता के बारे में सोचने के बजाए अपनी सत्ता को अधिक से अधिक सुरक्षित रखने के उद्देश्य से वर्चस्ववादी शक्तियों से सांठगांठ कर रहे हैं।  वे पूरी तरह से वर्चस्ववादी शक्तियों पर निर्भर हो चुके हैं।  जानकारों का कहना है कि इस्लामी देशों में पाए जाने वाले संसाधनों और वहां की संभावनाओं का यदि उचित ढंग से प्रयोग किया जाए तो इससे इस्लामी जगत को कई प्रकार से लाभ हो सकता है जैसे वर्चस्ववादी शक्तियों के वर्चस्व से मुक्ति, आर्थिक एवं राजनीतिक स्वावलंबन, चहुमुखी विकास, देश के भीतर स्थिरता और शांति, बेरोज़गारी और बेकारी पर नियंत्रण तथा इसी प्रकार की बहुत सी अन्य समस्याओं से मुक्ति आदि।  यदि एसा हो जाए तो इस्लामी देश, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभर सकते हैं।

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यह बात सही है कि इस्लामी देशों के आपसी मतभेद और कई अन्य कारणों से एक आर्दश इस्लामी संयुक्त बाज़ार के गठन में बहुत सी बाधाएं मौजूद हैं लेकिन इसके बावजूद यह भी एक वास्तविकता है कि इन बाधाओं को दूर किया जा सकता है।  दूसरी बात यह भी है कि वर्तमान बुरी आर्थिक स्थिति के कारण मुसलमान देश एकजुट होने के लिए विवश हैं क्योंकि यदि एसा नहीं किया गया तो सबको बहुत नुक़सान भुगतना होगा।  आर्थिक दृष्टि से एकजुट होने के लिए इस्लामी देशों में कूटनीतिक और सांस्कृतिक रूप में भी एकता अनिवार्य है।  इस एकता को स्थापित करने का एक कारक यह भी है कि सारे इस्लामी देश निजी हितों को अनदेखा करते हुए मुसलमानों के संयुक्त हितों पर एकमत हों और फिर उनकी प्राप्ति के लिए क़दम बढ़ाएं।