Jul ०४, २०१७ १२:०९ Asia/Kolkata

सऊदी अरब ने यमन पर अतिक्रमण को ऑप्रेशन डिसाइसिव स्टॉर्म का नाम दिया है।

यमन पर उसके हवाई हमले को सऊदी अरब की क्षेत्रीय विदेश नीति में नए दृष्टिकोण का निर्णायक मोड़ कहा जा सकता है। ऐसा दृष्टिकोण जिसे मध्यपूर्व में अप्रजातांत्रिक व राजशाही व्यवस्था से संपन्न एक खिलाड़ी के रूप में सऊदी अरब ने प्रजातांत्रिक बदलाव के संबंध में अपनाया और यमन से पहले उसका यह दृष्टकोण बहरैन में पूरी तरह खुल कर सामने आ गया था।

Image Caption

 

2010 के अंतिम दिनों में अरब क्रान्तियों के जन्म लेने से सऊदी अरब की राजशाही व्यवस्था के सामने दो मूल ख़तरों ने सिर उठाया। एक रियाज़ के क्षेत्रीय घटकों के हालात का पूरी तरह बदल जाना, जिसका क्षेत्रीय शक्ति के संतुलन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। दूसरा ख़तरा सऊदी अरब की अप्रजातांत्रिक, पारंपरिक व संरक्षणवादी व्यवस्था को क्षेत्र में आए क्रान्तिकारी, आधुनिक व प्रजातांत्रिक बदलाव से डर था। दूसरी ओर यह बदलाव अचानक अस्तित्व वजूद में आने वाली प्रक्रिया और एक प्रकार की निष्क्रियता या सऊदियों के विचार में अमरीका की लापरवाही के कारण वजूद में आया। इसके अलावा दूसरे तत्वों के कारण धीरे-धीरे सऊदी अरब अपनी विदेश नीति में नए दृष्टिकोण अपनाने की ओर उन्मुख हुआ जो उसके पहले वाले दृष्टिकतण के विपरीत ग़ैर संरक्षणवादी व खतरनाक आयाम पर आधारित था।

सऊदी अरब ने यमन पर हमले में इस देश के मूल ढांचों, घरों, सार्वजनिक स्थलों, स्कूलों और अस्पतालों को तबाह करने के साथ यमन की पीड़ित जनता का जनसंहार किया जिसमें महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। व्यापक स्तर पर तबाही और लोगों के विस्थापन के नतीजे में चिकित्सा तंत्र के बर्बाद होने के कारण यमनी जनता को गंभीर संकट का सामना है। इसके अलावा हैज़ा सहित विभिन्न प्रकार की बिमारियों के फैलने से लोग मौत के मुंह में जा रहे हैं क्योंकि यमन में मूल चिकित्सा सुविधा का अभाव है।

सऊदी शासन क्षेत्र में ज़ायोनी शासन का एक तरह से अनुसरण करते हुए अपने आप को दिखाने के लिए तेल से प्राप्त आय से बड़े पैमाने पर हथियार व सैन्य उपकरण ख़रीद और उनसे बच्चों का जनसंहार कर रहा है। दूसरी ओर जिस तरह इस्राईल ने ग़ज़्ज़ा पट्टी की नाकाबंदी कर रखी है उसी तरह सऊदी अरब ने भी यमन की आर्थिक नाकाबंदी कर रखी है। इस नाकाबंदी के कारण युद्ध ग्रस्त यमनी जनता तक मूल ज़रूरत के सामान व मानवीय सहायता नहीं पहुंच रही है और वह धीरे धीरे मौत के क़रीब हो रही है। इस युद्ध अपराध व जातीय सफ़ाए से हट कर यह सवाल उठता है कि यमन और मध्यपूर्व में सऊदी अरब की जंग के क्या वास्तविक परिणाम रहे हैं?

Image Caption

 

सऊदी अरब और उसके घटकों का यमन में राजनैतिक हालात के ख़िलाफ़ सैन्य विकल्प का इस्तेमाल करने, यमन के मूल ढांचों को नुक़सान पहुंचाने, आर्थिक स्थिति को ख़राब और यमन में एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के गठन की संभावना को कमज़ोर करने से सबसे ज़्यादा यमन में आतंकवादी गुटों के पनपने का मौक़ा मिला है। जैसा कि सैन्य विकल्प की अनुपयोगिता अमरीका की अगुवाई में घटक फ़ोर्स के अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ पर हमले के बाद क्षेत्र में चरमपंथ के विस्तार के रूप में आ चुकी है। ऐसा विकल्प जिसके कारण आज आतंकवादी गुट 11 सितंबर से पहले की तुलना में बहुत ज़्यादा ताक़तवर बन गए हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि यमन पर सऊदी अरब के हमले का एक परिणाम आतंकवादी गुटों की स्थिति के मज़बूत होने और यमन में चरमपंथ के विस्तार के लिए पहले से ज़्यादा पृष्ठिभूमि मुहैया होने के रूप में सामने आया। जैसा कि दक्षिणी यमन का एक बड़ा हिस्सा हालिया दिनों में अलक़ाएदा के क़ब्ज़े में चला गया है।                         

यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि अफ़ग़ानिस्तान में सऊदी अरब की गतिविधियों और उसकी ओर से कुछ तकफ़ीरी आतंकवादी विचारधाराओं को समर्थन के कारण तालेबान और अलक़ाएदा अस्तित्व में आए। जैसा कि सऊदी अरब की ओर से इराक़ में अपने समर्थकों का साथ देने के कारण इराक़ और सीरिया में दाइश और उससे जुड़े आतंकवादी गुट वजूद में आए। इस आधार पर यह बात स्पष्ट है कि यमन पर सऊदी अरब के अतिक्रमण का सबसे बड़ा परिणाम यह निकला कि यमन में अलक़ाएदा और दाइश से जुड़े गुट शक्तिशाली हो गए और उनका प्रभाव बढ़ गया है।

वास्तव में यमन में अलक़ाएदा का प्रकट व मज़बूत होना, इस देश में सऊदी अरब के दो वर्षीय अतिक्रमण का बहुत बड़ा परिणाम रहा है। समाचार एजेंसी रोयटर्ज़ ने एक रिपोर्ट में कहा है कि सऊदी अरब की अगुवाई वाले गठबंधन की यमन जंग के नतीजे में यमन में अलक़ाएदा का नेटवर्क मज़बूत हुआ। इस रिपोर्ट में आया है कि यमन में सऊदी गठबंधन की सैन्य कार्यवाही के कारण अलक़ाएदा आर्थिक दृष्टि एक साम्राज्य बन गया है। जैसा कि इस समय उसने यमन के एक भाग में स्वयंभु सरकार के गठन का दावा किया है।

Image Caption

 

मध्यपूर्व मामले के मशहूर लेखक पैट्रिक कॉकबर्न ने 17 अप्रैल 2016 को ब्रितानी अख़बार द इंडिपेन्डंट में लिखा, “सऊदी अरब की अगुवाई में यमन के ख़िलाफ़ जंग से अलक़ाएदा को बहुत फ़ायदा पहुंचेगा। अगर ओसामा बिन लादेन ज़िन्दा होता तो उसे यह देख कर गर्व होता कि अलक़ाएदा नेटवर्क यमन के सबसे बड़े प्रांत हज़रमूत पर नियंत्रण कर रहा है।” यहां तक कि अमरीकी रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर ने भी यमन के ख़िलाफ़ सऊदी अरब की जंग को यमन में अलक़ाएदा के लिए ख़ुद को मज़बूत करने का अवसर माना। एश्टर कार्टर ने कहा, “आतंकवादी गुट अलक़ाएदा ने यमन में झड़पों व चुनौतियों का दुरुपयोग करते हुए फ़ायदा उठाया है।” योरोपीय संघ की विदेश नीति मामलों की प्रमुख फ़ेड्रिका मोग्रीनी ने 6 मई 2016 को चीन की राजधानी बीजिंग में छात्रों के बीच भाषण में कहा, “यमन में झड़प व अस्तव्यस्तता के कारण इस देश में अलक़ाएदा के लिए सत्ता हथियाने का रास्ता खुल गया है। यह प्रक्रिया बहुत ख़तरनाक है क्योंकि अलक़ाएदा यमन में पैदा हुए शून्य को भरने की कोशिश में है।”

यमन पर सऊदी अरब की थोपी गयी जंग के आर्थिक दृष्टि से सऊदी अरब और उसके घटकों के लिए बुरे परिणाम सामने आए हैं। अलआन न्यूज़ वेबसाइट ने “सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था पर यमन जंग के परिणाम” शीर्षक के तहत यमन पर सऊदी अरब के सैन्य अतिक्रमण से होने वाले वित्तीय घाटे की समीक्षा करते हुए लिखा है, “अभी कोई भी यमन पर सऊदी हमले पर होने वाले ख़र्च का सटीक आंकड़ा नहीं पेश कर सकता और इसका कारण यह है कि संबंधित अधिकारी इस बारे में सही आंकड़ा पेश होने के ख़िलाफ़ हैं लेकिन इस तरह की जंग पर होने वाले ख़र्च का अनुमान यह बताता है कि अप्रैल 2015 के मध्य तक इस जंग पर 30 अरब डॉलर ख़र्च हो चुके थे। इस ख़र्च में 175 युद्धक विमान के ऑप्रेशन, उसे ईंधन की आपूर्ति व कलपुर्ज़ों की मरम्मत और डेढ़ लाख सैनिकों के तय्यार रहने पर होने वाला ख़र्च शामिल है।”                                                                           

यद्यपि यमन पर हमला अरबी गठबंधन के नाम पर कई देशों की भागीदारी से शुरु हुआ लेकिन इस जंग का ख़र्च मुख्य रूप से सऊदी अरब उठा रहा है क्योंकि वही ऑप्रेशन डिसाइसिव स्टॉर्म गठबंधन का नेतृत्व कर रहा है। अकेले सऊदी अरब के 100 युद्धक विमान यमन पर अतिक्रमण में भाग ले रहे हैं। इसी प्रकार यमन से मिली सऊदी अरब की सीमा पर सैन्य झड़पें हो रही हैं जिससे सऊदी अरब की सैन्य छावनियों, गावों व शहरों को नुक़सान पहुंचा है। अनुमान के अनुसार, इतनी संख्या में युद्धक विमानों के इस्तेमाल पर माहाना 17 करोड़ 50 लाख डॉलर का ख़र्च आता है। इसी परिप्रेक्ष्य में सऊदी अरब के केन्द्रीय बैंक का रोल अदा करने वाली वित्तीय संस्था ने कहा है कि रियाज़ सरकार ने जारी साल की पहली तिमाही में 25 अरब डॉलर अपने विदेशी पूंजि भंडार से निकाल कर ख़र्च किए हैं। इस बात में शक नहीं कि इतना बड़ा ख़र्च सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था के सामने गंभीर चुनौती खड़ी करेगा।

Image Caption

 

यमन जंग का शायद सबसे बुरा परिणाम यह सामने आया कि दुनिया भर में लोगों के दिल में सऊदी अरब से नफ़रत पैदा हो गयी है। हालांकि सऊदी अरब ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ कार्यवाही के बहाने ये जंग शुरु की थी लेकिन जल्द ही उसका पाखंडी रूप दुनिया वालों के सामने आ गया और दुनिया वाले सऊदी शासन की युद्धोन्मादी व हिंसक नीति से नफ़रत करने लगे।

यमन के ख़िलाफ़ सऊदी अरब की जंग का एक और परिणाम यह सामने आया कि इस जंग से ख़ुद को मक्का-मदीना का सेवक कहने वाले आले सऊद शासन की छवि ख़राब हो गयी और आले सऊद शासन, अपराधी इस्राईल शासन की क़तार में आ गया है। अब तक आले सऊद शासन ने बहुत कोशिश की कि ख़ुद को मक्का-मदीना का सेवक दर्शाकर इसे इस्लामी जगत में साफ़्ट पावर के स्रोत के रूप में इस्तेमाल करे। यमन के ख़िलाफ़ जंग थोपने की ग़लती और इस जंग में मरने वाले बेगुनाह बच्चों व महिलाओं की तस्वीरों के छपने से आज इस्लामी जगत के जनमत के मन में यह सवाल उठ रहा है कि यह दो पवित्र स्थलों का कैसा सेवक है जो अपने ही मुसलमान भाइयों को युद्धक विमान से निशाना बना रहा है? यह कैसा सेवक है कि यमन में वैसा ही अपराध कर रहा है जैसा ग़ज़्ज़ा में इस्राईल कर रहा है, वह भी ऐसी हालत में जब यमन की 50 फ़ीसद से ज़्यादा आबादी सुन्नी समुदाय की है कि जिसके नेतृत्व का सऊदी अरब दावा करता है।

Image Caption

 

वास्तव में सऊदी अरब के अनुभवहीन रणनीतिकारों ने इस देश को ऐसी जंग में फंसा दिया है कि जिससे आसानी से बाहर निकलना मुमकिन नहीं है। इस बात में शक नहीं कि अगर सऊदी अरब यमन युद्ध के घोषित लक्ष्य को हासिल किए बिना यमन जंग से निकलता है तो उसकी प्रतिष्ठा दांव पर लग जाएगी और क्षेत्र में प्रभावी खिलाड़ी की उसकी स्थिति डांवाडोल हो जाएगी, साथ ही इस जंग के भारी ख़र्चे और इसकी आंतरिक, क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रही आलोचनाओं के मद्देनज़र इस जंग को जारी रखना सऊदियों के लिए मुमकिन नज़र नहीं आता। पूराने शब्दों में यह कहना चाहिए कि सऊदी अरब यमन पर हमला करके ऐसे दलदल में फंस गया है कि उससे सम्मानजनक रूप से बाहर निकलना और साथ ही क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी संभावित नकारात्मक प्रतिक्रियाओं से निपटना सऊदी अरब के बस की बात नहीं है।