इस्लाम और मानवाधिकार- 51
अगर मां-बाप बच्चों को सही धार्मिक शिक्षा देने और उन्हें सही आचरण सिखाने का प्रयास करेंगे तो यह एक अच्छा काम होगा और ईश्वर उन पर अपनी कृपा करेगा।
सही धार्मिक विश्वासों को बच्चों तक स्थानांतरित करना, मां-बाप की ज़िम्मेदारी है, इसलिए कि परिवार के धार्मिक विश्वासों का बच्चों पर गहरा असर होता है। पैग़म्बरे इस्लाम की हदीस है कि बच्चों और नौजवानों का दिल उस उपजाऊ ज़मीन की भांति होता है जिसमें जो कुछ बोया जाएगा, वह उग जाएगा।

परिवार में सही पालन-पोषण, एकेश्वरवादी प्रकृति की सुरक्षा की तरह है। इसकी सुरक्षा एक बड़ी नैतिक ज़िम्मेदारी है, जिसे पूरा करके परिवार का विकास किया जा सकता है। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) फ़रमाते हैं, तुम्हारे बच्चे का अधिकार यह है कि वह तुम्ही से है और अच्छा हो या बुरा, इस दुनिया में तुम्ही से जुड़ा हुआ है। तुम जो उसके संरक्षक हो उसके प्रति ज़िम्मेदार भी हो, अच्छा आचरण सिखाने में और ईश्वर की ओर उसका मार्गदर्शन करने में और ईश्वर का आज्ञापालन करने में उसकी सहायता करने में। अतः इस कार्य के लिए तुम्हें इनाम दिया जाएगा अगर सही काम करोगे और सज़ा दी जाएगी और बुरा काम करोगे। इसलिए उसका ऐसा पालन पोषण करो कि जो प्रभाव तुम उस पर डालते हो वह दुनिया में सुन्दरता को बढ़ावा दे और उसके प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को अच्छी तरह से निभाओ, ताकि ईश्वर के सामने इसका जवाब दे सको, ईश्वर के अलावा कोई शक्तिशाली नहीं है।
इस प्रकार, इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) ने बच्चों के सही पालन पोषण, एकेश्वरवाद में आस्था और उन्हें शिष्टाचार सिखाने का तरीक़ा बताया है और कहा है कि इन ज़िम्मेदारियों को पूरा करने से लोक एवं परलोक में कल्याण एवं मुक्ति प्रदान होती है।

हज़रत अली (अ) ने अपने बड़े बेटे से फ़रमाया कि मैंने तुम्हें शिष्टाचार सिखाया, इससे पहले कि तुम्हारा दिल कठोर हो जाए और तुम्हारी बुद्धि दूसरी दुनिया में व्यस्त हो जाए। उसके बाद फ़रमाया, मैं तुम्हारे कार्यों पर एक दयालु पिता की तरह ध्यान देता था और तुम्हें शिष्टाचार सिखाने में साहस से काम लेता था, इसलिए कि मैं समझता था कि यह तवज्जोह तुम्हारी युवा अवस्था में तुम्हारे काम आएगी और जीवन की बहार में कि जब तुम्हारी नियत पाक और बुनियाद शुद्ध होगी, पहले मैंने तुम्हें ईश्वरीय किताब का ज्ञान दिया और उसकी व्याख्या सिखाई और इस्लामी शरियत एवं उसकी शिक्षाओं और हलाम एवं हराम से तुम्हें अवगत किया।
घर और स्कूल में बच्चों की परवरिश का एक उद्देश्य, उन्हें सामाजिक जीवन के लिए तैयार करना है। यही कारण है कि कुछ शिक्षाएं उनके लिए ज़रूरी हैं। इन शिक्षाओं की शुरूआत घर से ही होनी चाहिए। इन शिक्षाओं का उदाहरण हज़रत अली (अ) की हदीस में पेश किया गया है। हज़रत फ़रमाते हैं, अपने बच्चों को तीर चलाना और तैरना सिखाओ। अगर हम यह स्वीकार करें कि यह दो शिक्षाएं इसलिए दी जाएं ताकि हम अपने बच्चों को सामाजिक ज़िम्मेदारियों के लिए तैयार करें, तो कहा जा सकता है कि इस शिक्षा को केवल इन्हीं दो चीज़ों तक सीमित नहीं किया जा सकता, बल्कि समय के साथ और समाज की ज़रूरतों के दृष्टिगत, शिक्षा में विविधता होनी चाहिए।
जीवन के अन्य आयामों की तरह, बच्चों के पालन पोषण में भी स्थायी सिद्धांतों को अस्थायी मामलों से अलग करना चाहिए और इस वास्तविकता पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि जीवन के कुछ नियम बदलते रहते हैं और सामाजिक जीवन की ज़रूरतों में भी बदलाव होता रहता है। बच्चों की परवरिश में सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टि से ख़ुद अपने और बच्चों के बीच के अंतर को समझना चाहिए। बच्चों को स्थान और समय के नैतिकता के स्थायी एवं बदलने वाले नियमों के पालन के लिए तैयार करना चाहिए। यह तैयारी उन्हें ज़हरीले प्रचार से सुरक्षित रखती है और नैतिक सुरक्षा उसे जवानी और उसके बाद सुरक्षित रखती है।

आज की विकसित दुनिया में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य है और इस मार्ग में कुछ महत्वपूर्ण क़दम भी उठाए गए हैं। बच्चों के अधिकारों के कनंवेंशन के 28वें अनुच्छेद के अनुसार, इस कन्वेंशन में शामिल देशों ने संकल्प किया है कि बच्चों के शिक्षा के अधिकार को औपचारिकता प्रदान करेंगे और इस अधिकार को सुनिश्चित बनाने के लिए सुविधाएं उपलब्ध करवायेंगे। उदाहरण स्वरूप, प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य और मुफ़्त करने, माध्यमिक शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करने और उच्च शिक्षा के लिए सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए उचित प्रयास किए जायेंगे।
इस्लाम में शिक्षा प्राप्त करना एक कर्तव्य है, इस प्रकार से कि पैग़म्बरे इस्लाम लोगों से सिफ़ारिश करते हुए कहते हैं, पालने से क़ब्र तक ज्ञान प्राप्त करो। वे शिक्षा की प्राप्ति को मां-बाप पर बच्चों का अधिकार मानते हैं और फ़रमाते हैं कि पिता पर बच्चों के अधिकारों में से उन्हें लिखना सिखाना है।
वास्तव में मां-बाप अपने बच्चों का उस वक़्त सम्मान करते हैं कि जब वे उन्हें लिखना-पढ़ना और शिष्टाचार सिखाएं। बच्चों का व्यक्तित्व उनके पारिवारिक जीवन के पहले चरण में एक रूप लेता है, इसलिए पढ़ना लिखना सिखाना बच्चों की ज़िम्मेदारी है, ताकि आरम्भिक जीवन में उन्हें शिक्षा से सुसज्जित कर दिया जाए, जिससे वे भविष्य में पेश आने वाली समस्याओं का समाधान खोज सकें। बच्चों के प्रति मां-बाप की यह सबसे छोटी ज़िम्मेदारी है।
वास्तविकता यह है कि सक्रियता, जीवन की ज़िम्मेदारियों का एक आधार है। विशेष रूप से बचपन में कि जब इंसान की शारीरिक संरचना की बुनियाद रखी जाती है। इस संदर्भ में इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं, बच्चे के जीवन के पहले सात साल, खेल-कूद में और शरीर की मज़बूती में बीतने चाहिए।

वास्तव में जीवन के प्राथमिक चरणों में बच्चों से आशा नहीं रखी जानी चाहिए कि वे अपने जीवन की ख़ुशियों को बड़ों के जीवन से बदल लें, बल्कि उन्हें खेलने कूदने के लिए आज़ाद छोड़ देना चाहिए, ताकि वे शारीरिक रूप से स्वस्थ रहें। बल्कि पैग़म्बरे इस्लाम की सिफ़ारिश के मुताबिक़, बच्चों के खेल में शामिल होकर उनकी सहायता करनी चाहिए, हज़रत फ़रमाते हैं जिसके पास बच्चा होता है, उसे बच्चों वाला आचरण करना चाहिए।
इस्लाम बच्चों को घुड़सवारी, तीर चलाने और तैराकी सिखाने की सिफ़ारिश करता है। इस संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैं, पिता पर बच्चों का यह अधिकार है कि वह उन्हें तैरना, तीर चलाना और लिखना सिखाए। बच्चों के अधिकारों के कन्वेंशन के 31वें अनुच्छेद में आया है कि कन्वेंशन में शामिल देशों ने बच्चों के मनोरंजन, शांति, खेल, उम्र के अनुरूप रचनात्मक गतिविधियों और सांस्कृतिक एवं कलात्मक गतिविधियों में आज़ादी के साथ भाग लेने के औपचारिकता प्रदान की है।
दूसरी ओर शारीरिक एवं मानसिक हिंसा, बच्चों के व्यक्तित्व को ख़राब कर देती है। यही कारण है कि बच्चों के कन्वेंशन के अध्याय 1 के 19वें अनुच्छेद में उल्लेख है कि बच्चों के ख़िलाफ़ होने वाली शारीरिक एवं मानसिक हिंसा से निपटने के लिए क़ानूनी, सामाजिक और शैक्षिक क़दम उठाए जाने चाहिएं।
इस्लाम में भी इस बिंदु पर काफ़ी अधिक बल दिया गया है, जैसा कि एक व्यक्ति जब हज़रत अली (अ) से अपने बेटे की शिकायत करता है, हज़रत फ़रमाते हैं, उसके साथ मारपीट मत करो, बल्कि उसके बजाए उससे नाराज़ हो जाओ, लेकिन नाराज़गी भी लम्बी न हो। वास्तव में इस हदीस से स्पष्ट हो जाता है कि अगर बच्चे को सज़ा देना ज़रूरी भी हो जाए तो यह सज़ा शारीरिक नहीं होनी चाहिए, बल्कि बच्चों की भावनाओं का प्रयोग किया जाना चाहिए, इसलिए कि शारीरिक दंड से बच्चों में मानसिक एवं भावनात्मक समस्याएं उत्पन्न होती हैं और उनका व्यक्तित्व तबाह हो जाता है। लेकिन जब बच्चे नाराज़गी का इज़हार किया जाता है तो धीरे धीरे अपनी ग़लती को समझ जाता है। हालांकि यह नाराज़गी लम्बी नहीं होनी चाहिए, इसलिए कि एक ओर इसका बच्चे पर घातक असर हो सकता है और उसे मानसिक समस्या का सामना करना पड़ सकता है, दूसरी ओर नाराज़गी के लम्बा होने की स्थिति में परवरिश का यह माध्यम कमज़ोर पड़ सकता है। इसीलिए हज़रत अली (अ) नाराज़गी की सलाह देने के तुरंत बाद सिफ़ारिश करते हैं कि यह नाराज़गी लम्बी नहीं होनी चाहिए।

पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैं, ईश्वर किसी भी चीज़ से इतना नाराज़ नहीं होता है, जितना बच्चों और महिलाओं के साथ हिंसा होने पर। इस्लाम ने अनाथ बच्चों पर विशेष ध्यान दिया है। क़ुरान में उल्लेख है कि यतीम या अनाथ को कदापि नाराज़ मत करो। इसी प्रकार, क़ुरान ने यतीमों की संपत्ति को नष्ट करने और उसे लूटने से रोका है और उल्लेख किया है कि कदापि यतीम की संपत्ति को हाथ मत लगाओ। एक और स्थान पर उल्लेख है कि यतीमों की देखभाल करो यहां तक कि वे विवाह की उम्र तक पहुंच जाएं, अगर उन्हें परिपक्व पाओ तो उनका माल उन्हें सौंप दो।