Sep १६, २०१७ १६:०४ Asia/Kolkata

हमने कहा था कि पर्यावरण के संबंध में संयुक्त राष्ट्रसंघ की दूसरी बड़ी कांफ्रेन्स वर्ष 1992 में ब्राज़ील के रियो नगर में हुई थी।

ओज़ोन की परत का खराब होना और जलवायु परिवर्तन उस कांफ्रेन्स में चर्चा का मुख्य विषय था। वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा में “सहस्त्राब्दी” नामक घोषणापत्र संकलित व पारित किया गया। उस कांफ्रेन्स में विश्व के 189 देशों के नेताओं ने भाग लिया था और उन्होंने वर्ष 2015 तक आठ आकांक्षाओं व लक्ष्यों को प्राप्त करने को अपनी कार्यसूचि में शामिल किया था जिनमें से एक पर्यावरण को टिकाऊ सुरक्षा प्रदान करना था। कांफ्रेन्स में भाग लेने वाले देशों के नेता इस बात के प्रति वचनबद्ध हुए थे कि वे पर्यावरण की रक्षा के लिए पूरा प्रयास करेंगे और अपने-2 देशों और कार्यक्रमों में टिकाऊ विकास के सिद्धांतों को शामिल करेंगे और प्राकृतिक स्रोतों को नष्ट होने से बचायेंगे।

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रियो कांफ्रेन्स में भाग लेने वाले देशों के नेताओं ने जिन चीज़ों पर सहमति जताई थी उनमें दुनिया में मछली के शिकार करने के स्थलों में जो कमी होती जा रही है उस पर ध्यान दिया जाना था। इसी प्रकार जो ज़मीन खराब होती जा रही है उस पर और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के कम करने पर सहमति हुई थी।  

जिन चीज़ों पर सहमति हो चुकी है और वर्ष 2000 में विश्व के 189 देश वचनबद्ध हो चुके हैं उसके बावजूद वर्ष 2015 में मौजूद प्रमाणों ने दर्शा दिया कि विश्व में प्राकृतिक स्रोतों को नष्ट होने से बचाने की दिशा में पर्याप्त कदम नहीं उठाये गये। घोषित रिपोर्टों के आधार पर विभिन्न प्रकार के जानवर, वनस्पतियां और पेड़- पौधे अभूतपूर्व ढंग से नष्ट हो रहे हैं, जलवायु परिवर्तित हो रहा है समुद्र की सतह ऊतर आती जा रही है, अकाल पड़ता जा रहा है और बाढ़ इंसानों के जीवन के लिए खतरा बनी हुई है। वर्षा कम हो रही है और पानी की कमी हो गयी है। वर्ष 2014 में पानी की कमी इस सीमा तक हो गयी थी कि विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की है कि आगामी वर्षों में देशों को पानी, खाद्य पदार्थों और ऊर्जा की भारी कमी का सामना होगा। इसी प्रकार जलवायु परिवर्तन और खाद्य पदार्थों के स्रोतों के सीमित होने के कारण बहुत सी सरकारों को संक्रामक बीमारियों के फैलने जैसी समस्यों का भी सामना होगा।

                          

जमीन के गर्म होने और मौसम के बदलने के विभिन्न नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं। यह चीज़ 10 मूल खतरों में से एक है जो इंसानों और जानवरों के लिए खतरा है। उदाहरण स्वरूप ज़मीन का गर्म होना ग्लेशियर के पिघलने का कारण बनता है। ग्लेशियर ज़मीन पर थर्मामीटर का काम करते हैं। जब ज़मीन गर्म होती है तो ये ग्लेशियर पिघलते हैं और जब ज़मीन का तापमान कम हो जाता है हिमखंडों का आकार व मोटाइ बढ़ जाती है। जब ग्लेशियर पिघलते हैं तो सागरों व महासागरों का जलस्तर बढ जाता है और इसके परिणाम में वे बहुत से तटवर्ती क्षेत्र डूब सकते हैं जिन पर लोग रहते हैं। जलवायु परिवर्तन के जो परिणाम हैं वे केवल प्रकृति तक सीमित नहीं हैं और मानव समाज भी उसके दुष्परिणामों से सुरक्षित नहीं रह सकता। जलवायु परिवर्तन के कारण अकाल, पानी की कमी का भारी संकट, कृषि की समस्याओं में वृद्धि, भूमिगत पानी की सतह का नीचे चला जाना, और इसी तरह खेती करने योग्य भूमि का कम हो जाना, खेती की पैदावार में कमी और दुनिया में मवेशियों की पैदावार भी कमी हो जाती है। इस आधार पर खाद्य पदार्थों की सुरक्षा के समाप्त हो जाने के कारण विभिन्न देशों को अकाल और सामाजिक अशांति जैसी समस्या का सामना हो सकता है। इसके अलावा ज़मीन के गर्म होने का प्रभाव गम्भीर रूप से इंसानों के स्वास्थ्य पर भी पड़ेगा। अध्ययनकर्ताओं और वैज्ञानिकों का कहना है कि मलेरिया, डेंगू बुखार और इसी तरह दमा जैसी बीमारियां भी ज़मीन के गर्म होने के कारण फैलेंगी।

इस प्रकार की स्थिति बहुत सी सरकारों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की चिंता का कारण बनी है।

अक्तूबर 2015 में पर्यावरण परिवर्तन की कांफ्रेन्स के मुख्यालय बोलीविया में एक कांफ्रेन्स हुई थी जिसमें संयुक्त राष्ट्रसंघ के पूर्व महासचिव बान की मून ने इस वास्विकता की ओर संकेत किया और कहा कि जलवायु परिवर्तन के कारण जो समस्यायें सामने आ रही हैं उनके मुकाबले के लिए दुनिया को जल्दी करना चाहिये क्योंकि ठंडक दिन­- प्रतिदिन अधिक कष्टदायक होती जा रही है और अकाल बढ़ता जा रहा है और ज़मीन का बढ़ता तापमान भी असहनीय होता जा रहा है। मौसम में यह जो परिवर्तन है सबका सब ज़मीन की ओर से चेतावनी है। उन्होंने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के संबंध में समस्त देशों की वचनबद्धता की याद दिलाई और मौसम में बदलाव से मुकाबले को काफी महत्वपूर्ण बताया और कहा कि ज़मीन की रक्षा बहुत महत्वपूर्ण विषय है और इसे देशों के टिकाऊ विकास के कार्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिये।         

                            

जलवायु परिवर्तन के संबंध में फ्रांस की राजधानी पेरिस में भी वर्ष 2015 में एक सम्मेलन हुआ था इस सम्मेलन में विश्व के 195 देशों के 10 हज़ार प्रतिनिधियों एवं 40 हज़ार मेहमानों ने भाग लिया था। इस सम्मेलन का लक्ष्य कार्बन डाइआक्साइड गैस के उत्सर्जन को कम करना और ज़मीन के गर्म होने के प्रभावों से मुकाबला करने में गरीब देशों की सहायता करना था। इसी प्रकार पेरिस सम्मेलन का एक लक्ष्य ज़मीन के तापमान को दो डिग्री सेल्सियस कम करना था। संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्कालीन महासचिव बान की मून ने पेरिस सम्मेलन के उदघाटन भाषण में कहा था कि जी-20 के देश विश्व में तीन चौथाई से अधिक ग्रीन हाउस पैदा करते हैं। इसी प्रकार उन्होंने कहा था कि गरीब व विकासशील देशों की सहायता, विकसित देशों की ज़िम्मेदारी है और स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में पूंजी निवेश करने के लिए उन्होंने विकसित देशों का आह्वान किया। इसी प्रकार उन्होंने कहा कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए 180 से अधिक देशों ने जो वचनबद्धता जताई है वह अच्छा आरंभ है परंतु औद्योगिक क्रांति से पहले ज़मीन की गर्मी को दो डिग्री सेल्सियस कम करने के लिए वह किसी प्रकार पर्याप्त नहीं है। उन्होंने आगे कहा कि पर्यावरण में बदलाव और ज़मीन को अधिक गर्म होने से रोकने के लिए धनी व विकसित देशों को चाहिये कि वे विकासशील देशों की 100 अरब डालर की सहायता करें। उन्होंने बल देकर कहा कि अब तक ज़मीन की गर्मी में डेढ़ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है और दो डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने से रोकने के लिए तुरंत कदम उठाया जाना चाहिये।“

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 कांफ्रेन्स की समाप्ति पर इसमें भाग लेने वाले समस्त 195 देशों ने स्वीकार किया कि वे इस संयुक्त लक्ष्य तक पहुंचने के लिए यानी कार्बनडाई आक्साइड और ग्रीन हाउस गैसों की पैदावार को कम करने के लिए अपने कार्यक्रमों की आधारिक रूप से घोषणा करेंगे। इस कार्यक्रम व रिपोर्ट की घोषणा का अर्थ इन देशों द्वारा ज़मीन को और दो डिग्री सेल्सियस तक गर्म होने से रोकने के लिए प्रतिबद्धताओं व कार्यक्रमों का स्वीकार किया जाना है। विभिन्न देशों के नेताओं और विशेषज्ञों के मध्य 11 दिनों तक विचारों का आदान- प्रदान करने के बाद पेरिस सम्मेलन समाप्त हो गया। इस प्रकार विश्व के देश मौसम के परिवर्तन और जलवायु बदलाव से मुकाबले के लिए एक समझौते पर सहमत हुए। इस समझौते में वर्ष 2050 तक ज़मीन के तामपान को औसतन दो डिग्री सेल्सियस तक कम करने की आशा जताई गयी है। इसी प्रकार इस समझौते में विकसित देश प्रतिबद्ध हुए हैं कि जलवायु परिवर्तन से मुकाबले के लिए वे वर्ष 2020 तक 100 अरब डालर विशेष करेंगे। पेरिस में जो ऐतिहासिक समझौता हुआ उस पर वर्ष 2020 से क्रियान्वय आवश्यक हो जायेगा और वह अपने आपमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन के संबंध में पहला समझौता है।

यद्यपि पेरिस सम्मेलन ने एक बार फिर पर्यावरण के विषय की ओर विश्व जनमत का ध्यान आकृष्ट किया है किन्तु देखना चाहिये कि साम्राज्यवादी देश अपने हितों की अनदेखी करते हैं और निर्धन देशों की सहायता करके इस सम्मेलन के लक्ष्यों को व्यवहारिक बनाने की दिशा में कदम उठाते हैं? अपने और दूसरों के स्वास्थ्य के बारे में सोचने और चिंता करने वाले समस्त लोग जानते हैं कि पर्यावरण से लाभ उठाना केवल इस समय विश्व में मौजूद लोगों का नहीं बल्कि भावी पीढ़ियों का भी अधिकार है। मानवाधिकार के समर्थक भी पर्यावरण के अधिकार को एक स्वतंत्र अधिकार के रूप में मान्यता देते हैं। पर्यावरण का अधिकार उच्च मूल्यों को प्रतिबिंबित करता है। पर्यावरण योग्य व उचित जीवन और स्वास्थ्य के अधिकार का पक्षधर है और वर्तमान एवं आगामी पीढ़ी के जीवन से उसका गहरा संबंध है। इस संबंध में बहुत सी बातें हैं जिनका उल्लेख किया जाना चाहिये परंतु कार्यक्रम का समय समाप्त हो गया जिसके कारण इससे संबंधित बातों की चर्चा अगले कार्यक्रम में करेंगे। सुनना न भूलियेगा।

                             

 

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