Sep १८, २०१७ १४:०० Asia/Kolkata
  • इस्लामी जगत-27

हमने इस्लामी जगत में एकता पैदा करने के प्रतीक के रूप में इस्लामी कांफ़्रेंस संगठन के गठन और उसके लक्ष्यों पर चर्चा की थी जिसका वर्तमान नाम इस्लामी सहयोग संगठन है, हमने बताया था कि वर्ष 1969 में मुसलमानों के पहले क़िबले मस्जिदुल अक़सा में आग लगाए जाने की घटना की वजह से इस्लामी कांफ़्रेंस संगठन का गठन हुआ।

इस घटना को एक चरमपंथी ज़ायोनी ने अंजाम दिया था जिसके बाद मुसलमानों का आक्रोश फूट पड़ा। सऊदी अरब और मोरक्को भी उस समय उन देशों में शामिल थे जिन्होंने इस विषय की समीक्षा के लिए बैठक के आयोजन पर बहुत अधिक बल दिया और अंततः इस कांफ़्रेंस ने रेबात में सितंबर 1969 में एक बैठक आयोजित की। इस बैठक में 20 इस्लामी देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया जिसमें भाग लेने वाले देशों ने मुख्य रूप से तीन महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा की। मस्जिदुल अक़सा में आग की घटना, इस्राईल द्वारा अरब भमियों का अतिग्रहण और बैतुल मुक़द्दस शहर की स्थिति।

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इस्लामी कांफ़्रेंस संगठन के गठन को लगभग पचास वर्ष हो रहे हैं। इस संगठन के गठन के लक्ष्यों और उद्देश्यों पर एक नज़र डालने से इस्लामी देशों के मध्य एकता और एकजुटता पैदा करने में इस संस्था की उम्र को चार चरणों में विभाजित किया जा सकता है। पहला चरण, इस संस्था के गठन के आरंभिक चरणों की ओर पलटता है। इस चरण की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता, फ़िलिस्तीनी उमंगों की केन्द्रियता पर इस संस्था की पहचान हासिल करना है।  दूसरा चरण, दो दश्कों से कम समयावधि में इस संस्था के जीवन तथा तीसरी कांफ़्रेंस से तेहरान कांफ़्रेंस के बीच की ओर पलटता है। इस चरण की विशेषता यह थी कि सदस्य देशों के बीच रुझान में काफ़ी वृद्धि हुई। तीसरा चरण, इस संस्था का तीसरा चरण वर्ष 1997 में तेहरान कांफ़्रेंस से आरभ होता है और वर्ष 2011 और 2012 में कुछ अरब देशों में मुसलमानों की क्रांतियां इस काल में शामिल हैं। इस काल में इस्लामी देशों के मध्य ध्यान योग्य एकजुटता में वृद्धि हुई। चौथा चरण, कुछ अत्याचारी शासनों में इस्लामी जागरूकता नामक क्रांतियों की ओर पलटता है जिसमें इस्लामी देशों में मतभेद और विवाद बढ़ा गया और सदस्य देशों के आपस में टकराव बढ़ गये। इस्तांबोल में इस्लामी सहयोग संगठन की बैठक के घोषणापत्र से इन मतभेदों के चरम पर पहुंचने का पता चलता है।

पहले चरण में अर्थात पहली और दूसरी बैठक के बीच का काल जो लगभग दस वर्षों तक जारी रहा, इस्लामी देशों के राष्ट्राध्यक्षों के स्तर पर दो बैठकें रेबात और लाहौर में आयोजित हुईं। इस अवधि में संगठन ने घोषणापत्र में वर्णित अपने लक्ष्यों और सिद्धांतों पर आधारित अपनी मुख्य पहचान बाक़ी रखने का प्रयास किया। पहली बैठक में इस्लामी मूल्यों को आधार बनाते हुए इस्लामी सरकारों के मध्य एकता पर बल दिया गया और एक दूसरे के मध्य सहयोग को विस्तृत करने के उद्देश्य से शांति और सुरक्षा की रक्षा करने का प्रयास और मानवाधिकार घोषणा पत्र तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्रों पर प्रतिबद्धता पर बल दिया गया। साथ ही मस्जिदुल अक़सा में आग लगने की घटना पर रोष व्यक्त किया गया। इस बैठक में भाग लेने वाले 25 देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने बैतुल मुक़द्दस को जून 1967 से पहले वाली स्थिति में पहुंचाए जाने की मांग कर दी।

इस बैठक में इस संगठन के सदस्य देशों ने दुनिया के समस्त देशों विशेषकर फ़्रांस, ब्रिटेन, सोवियत संघ और अमरीका से मांग की थी कि वह बैतुल मुक़द्दस शहर के बारे में इस्लाम धर्म के अनुयाइयों में पाये जाने वाले गहरे लगाव और इस शहर की स्वतंत्रता के बारे में इस्लामी देशों के निर्णय की अनदेखी न करें और घोषणा करें कि जून 1967 से इस्राईल द्वारा अरब देशों की धरती के अतिग्रहण के जारी रहने के कारण इस्लामी सरकारों और राष्ट्रों में गहरी चिंता पायी जाती है और इन भमियों से इस्राईली सैनिकों के निकलने के लिए भूमिका प्रशस्त करे। इसी प्रकार इस बैठक में शामिल होने वाले देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने फ़िलिस्तीन के भरपूर समर्थन और उनके अधिकारों को दिलवाने के लिए संघर्ष और उनको स्वतंत्रता दिलाने पर बल दिया।

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पाकिस्तान के शहर लाहौर में आयोजित होने वाली दूसरी बैठक में आर्थिक और राजनैतिक स्तर पर महत्वपूर्ण फ़ैसले किए गये। संगठन के राजनैतिक स्तर पर लिए गये महत्पूर्ण फ़ैसलों में इस्राईल से अपनी धरती को वापस लेने के लिए मिस्र, जार्डन, सीरिया और फ़िलिस्तीन की जनता के क़ानूनी प्रयासों का संपूर्ण समर्थन भी शामिल है और इसमें सदस्य देशों से मांग की थी कि वह अतिग्रहित धरती से इस्राईल को पीछे हटने पर विवश करने के लिए व्यापक कार्यवाहियां करें। इस बैठक में इसी प्रकार उन सदस्य देशों से भी जिनके इस्राईल से संबंध थे,   इस्लामी एकता का समर्थन करने के लिए इस्राईल से संबंध विच्छेद करने की मांग की गयी थी। आर्थिक स्तर पर इस बैठक में जो फ़ैसला लिया गया उनमें सार्वजनिक लाभ और आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए समस्त मुस्लिम देशों के बीच सहयोग को आकर्षित करने के लिए समिति का गठन सबसे महत्वपूर्ण है।

इस बैठक में इसी प्रकार इस्लामी देशों के विश्वविद्यालयों के बीच सहयोग बढ़ाने और इस्लामी संस्कृतिक और सभ्यता को फैलाने तथा आपसी मेल जोल में वृद्धि के उद्देश्य से इस्लामी एकता कोष के नाम से एक कोष के गठन का भी फ़ैसला किया गया और यह तय हुआ कि इस्लामी देशों के सदस्य अपनी वित्तीय क्षमता के अनुसार इस कोष की सहायता करें। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस काल में फ़िलिस्तीन की केन्द्रियता से इस्लामी सहयोग संगठन ने अपनी आरंभिक पहचान बनाई और इसने इस्लामी जगत की बहुत सेवा की और मुसलमानों में एकता और एकजुटता के बीज बोए किन्तु कुछ ऐसे भी कारण थे जो मुस्लिम देशों के बीच एकता में सबसे बड़ी रुकावट बन गये।

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बाधा बनने वाले उन्हीं कारणों मे से एक सदस्य देशों की ओर से पास होने वाले प्रस्तावों पर प्रतिबद्ध न होना था। उदाहरण स्वरूप फ़िलिस्तीनी जनता के समर्थन, अतिग्रहित धरतियों को वापस लेने और अरब देशों के राष्ट्रीय हितों से इस विशेषता के समन्वित होने के बारे में संगठन के सदस्यों में पायी जाने वाली सर्वसम्मति के बावजूद, मिस्र ने अलग तौर पर और पूरी स्वतंत्रा से इस्राईल के साथ हाथ मिला लिया और मिस्र की इस कार्यवाही पर उसे इस्लामी सहयोग संगठन से निकाल दिया गया। मिस्र और ज़ायोनी शासन के बीच होने वाले कैंप डेविड समझौते के कारण मिस्र को इस्लामी सहयोग संगठन से निकाल दिया गया।

इस्लामी सहयोग संगठन का दूसरा चरण अर्थात तीसरी बैठक से 1997 में तेहरान की मेज़बानी वाली बैठक तक। इस चरण में इस्लामी जगत में काफ़ी परिवर्तन हुए और सदस्य देशों के बीच गंभीर मतभेद और संगठन पर अपना वर्चस्व स्थापित करने और इस पर अपना फ़ैसला थोपने जैसे मामले समाने आए ऐसे में एकता की बात तो एक सपना नज़र आने लगा। वास्तव में यह कहा जा सकता है कि इस चरण में इस्लामी देशों के बीच मतभेद बहुत अधिक हो गये और कुछ मामलों में तो उनके बीच युद्ध तक हो गये। इसी प्रकार राजनैतिक और सैन्य मतभेदोक के बाद इस्लामी जगत में वैचारिक मतभेद भी अपने चरम पर पहुंच गये जिसे इस्लामी संगठन न केवल यह कि समाप्त नहीं कर सका बल्कि कभी कभी तो मामला और ही गहरा गया। 1980 में ईरान पर इराक़ का हमला, इसी वर्चस्व का एक प्रमाण था, इस हमले के कारण ईरान और इराक़ के बीच 8 वर्षीय युद्ध हुआ, हमले के कारण दोनों इस्लामी देशों को भारी नुक़सान उठाना पड़ा और इस्लामी सहयोग संगठन को अपने लक्ष्यों और उमंगों में भीषण चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

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इस्लामी सहयोग संगठन के दो सदस्य देशों ईरान और इराक़ के मध्य मतभेद जारी रहे और शांतिपूर्ण ढंग से दोनों देशों के बीच अरवंद रूद नदी का मामला हल नहीं हो सका। इराक़ ने एक अन्य सदस्य देश कुवैत पर हमला कर दिया और इस्लामी सहयोग संगठन कुछ भी नहीं कर सका। इसी प्रकार सऊदी अरब के जेद्दा शहर में इस्लामी सहयोग संगठन की तीसरी बैठक आयोजित हुई जिसमें ईरान और इराक़ के बीच युद्ध के विषय पर मुख्य रूप से चर्चा हुई। संगठन ने एक बयान जारी करके युद्ध समाप्त करने की मांग की, यह ऐसी हालत में था कि इराक़ ने इस संगठन के नियम तोड़े थे। इसी प्रकार इस प्रस्ताव में संघर्ष विराम पर बल देते हुए इराक़ से आंशिक रूप से हमलावर सैनिकों को पीछे हटने की ओर से कोई संकेत नहीं दिया गया।  संगठन का यह दृष्टि ईरान की ओर से प्रस्ताव क्रमांग 598 स्वीकार किए जाने तक जारी रहा।

सद्दाम ने केवल ईरान पर ही आक्रमण को पर्याप्त नहीं समझा, उसने कुछ वर्ष बाद कुवैत पर भी हमला कर दिया। इराक़ द्वारा कुवैत पर हमला, इस्लामी जगत में मतभेदों का सबसे बड़ा प्रमाण था। यह हमला ऐसी स्थिति में था कि ईरान और इराक़ के बीच युद्ध अभी समाप्त ही हुआ था और इसने ईरान के अत्याचारग्रस्त होने को पहले से अधिक उजागर कर दिया। इससे यह सिद्ध हो गया कि संगठन समस्याओं के समाधान के लिए न्याय के पक्ष का सम्मान नहीं करता । उस समय इराक़ के विस्तारवादी मुद्दे को लेकर अरब देशों के भय के कारण सेनेगाल की राजधानी डकार में ओआईसी की छठी बैठक हुई जिसमें कुवैत पर इराक़ के हमले की कड़े शब्दों में निंदा की।

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