हम और पर्यावरण- 48
इस्लाम उन धर्मों में से है जिन्होंने इंसान के लिए बहुत से नियम निर्धारित किये हैं कि वह पर्यावरण के साथ किस प्रकार का व्यवहार करे।
आपको अवश्य याद होगा कि पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि आज बहुत से विचारक व विद्वान इस बात को भली-भांति समझ गये हैं कि पर्यावरण की रक्षा के लिए विश्व के विभिन्न समाजों में पर्यावरण के प्रति जागरुकता उत्पन्न करने और इसी प्रकार वह व्यवहार किये जाने की ज़रूरत है जिससे पर्यावरण की रक्षा हो सके। पर्यावरण रक्षा शैली या पर्यावरण व्यवहार का अस्ली कार्य समाजों में उन बाधाओं को उत्पन्न करना है जिससे पर्यावरण की रक्षा की जा सके। चूंकि आइडियालोजी और धार्मिक शिक्षाएं व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की दिशा निर्धारित करती हैं इसलिए कहा जा सकता है कि पर्यावरण की रक्षा के लिए एक बार फिर धार्मिक शिक्षाओं की शरण में जाना चाहिये। साथ ही हमने इस बात की ओर संकेत किया कि जिन धर्मों ने पर्यावरण की रक्षा के संबंध में नियम निर्धारित किये हैं उनमें से एक इस्लाम है।
टाउनसेन्ड व्हाइट वर्ष 1967 में अमेरिकी विश्व विद्यालय प्रिन्सटन और स्टेनफोर्ड में मध्य युगीन शताब्दी के इतिहास के प्रोफेसर थे। उन्होंने सांइस नामक पत्रिका में पर्यावरण और धर्म के संबंध में एक लेख प्रकाशित किया और इस प्रकार निष्कर्ष निकाला कि ईसाई और यहूदी धर्म ने पर्यावरण को अधिक से अधिक नष्ट करने की भूमि प्रशस्त कर दी है। उसका कारण यह है कि इन धर्मों ने इस प्रकार की शिक्षा दी है कि ईश्वर ने समस्त चीजों की रचना इंसान के लिए की है और इंसान द्वारा प्रकृति से लाभ उठाने की कोई सीमा नहीं है। उनके बाद इतिहास के प्रोफेसर टामस कीथ ने वर्ष 1983 में ब्रिटेन में एक किताब प्रकाशित की जिसमें उन्होंने इस बात पर आग्रह किया था कि कुरआन की कुछ आयतों में भी उसी दृष्टिकोण को बयान किया गया है जो ईसाई धर्म का है। उनका मानना था कि समस्त प्रकृति को इंसान के लिए पैदा किया गया है। इसी प्रकार उन्होंने इतिहास की अपनी पुस्तक में लिखा है कि वनस्पतियों और जानवरों को बोध नहीं होता है और उनका कोई अधिकार नहीं होता है। वह पवित्र कुरआन की जिस आयत को प्रमाण के रूप में पेश करते हैं उसका अनुवाद इस प्रकार है वही ईश्वर है जिसने आसमानों और ज़मीन की रचना की और आसमान से पानी बरसाया फिर उसमें से तुम्हारे खाने के लिए फल उगाये और नावों को तुम्हारे अधिकार में दे दिया ताकि वे उसके आदेश से चलें और नदियों को भी उसने तुम्हारे अधिकार में दे दिया।
इस ब्रितानी लेखक ने यद्यपि प्रमाण के तौर पर पवित्र कुरआन की आयत पेश की परंतु मुसलमान विद्वान इंसान को सर्वश्रेष्ठ प्राणी बताते हैं पर इसका यह मतलब नहीं है कि इंसान प्रकृति का स्वामी है। पवित्र कुरआन और इस्लाम के अनुसार प्रकृति का मूल लक्ष्य इंसान है किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि इंसान प्रकृति का मालिक है। इस्लाम के अनुसार समूची दुनिया गतिशील है और उसका अंतिम लक्ष्य महान ईश्वर है परंतु दुनिया को चाहिये कि वह अपनी गति को इंसान के माध्यम से जारी रखे। अतः प्रकृति का पहला लक्ष्य इंसान है और लक्ष्य होने का मतलब मालिक होना नहीं है। पवित्र कुरआन की आयतों के अनुसार ईश्वर ने ज़रूरी शक्ति व संभावना इंसान को दी है और उसे ज़मीन को आबाद करने की ज़िम्मेदारी सौंपी है। इसी संबंध में महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरये हूद की 16वीं आयत में कहता है” वही ईश्वर है जिसने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया है और उसे आबाद करने की ज़िम्मेदारी तुम्हें सौंपी है।“ महान ईश्वर यह नहीं कह रहा है कि उसने ज़मीन को तुम्हारे हवाले कर दिया है बल्कि इस आयत में इस ओर संकेत है कि हर दृष्टि से दुनिया तैयार है और तुम्हें अपने प्रयास से उसे आबाद करना है।
पवित्र कुरआन की आयतों की समीक्षा भली-भांति इस वास्तविकता की सूचक है कि पर्यावरण की समस्त चीज़ें महत्वपूर्ण हैं। पवित्र कुरआन आसमान और ज़मीन को ईश्वर की महानता की निशानी समझता व बताता है। उदाहरण के तौर पर पवित्र क़ुरआन के सूरये अन्कबूत की 44 वीं आयत में महान ईश्वर कहता है” ईश्वर ने सत्य के साथ आसमानों और ज़मीन की रचना की है और इसमें ईमान रखने वालों के लिए निशानियां हैं। महान ईश्वर ज़मीन में घासों व वनस्पतियों के उगने को अपनी निशानी बताता है और पवित्र क़ुरआन के सूरे शोअरा की 7वीं- 8वीं आयत में कहता है” क्या उन लोगों ने ज़मीन की ओर नहीं देखा कि उसमें हमने कितने प्रकार की वनस्पतियां उगाई हैं बेशक यह स्पष्ट निशानी है परंतु अधिकांश लोग ईमान नहीं लाये।“
इसी संबंध में पवित्र क़ुरआन के सूरे नहल की आयत नंबर 67 में भी महान ईश्वर कहता है “और हमने खजूरों और अंगूरों से भी तुम्हें अच्छी रोज़ी दी और तुम इससे मादक पदार्थ भी तैयार कर लेते हो। निश्चित रूप से बुद्धि से काम लेने वालों के लिए इसमें निशानियां हैं।“
इस आधार पर समूचा पर्यावरण महान ईश्वर की निशानी है। प्रकृति महान व सर्वसमर्थ ईश्वर का प्रतिबिम्बन है और इंसान उसके कण- कण में महान ईश्वर की मौजूदगी का आभास करता है।
सूरज, चांद, तारे, आसमान, ज़मीन, बादल, वर्षा, हवा का चलना, जानवर, वनस्पति और हर वह चीज़ जिसका आभास इंसान अपने आस पास करता है पवित्र क़ुरआन उन सबको उन विषयों में मानता है जिसके बारे में इंसान को चिंतन- मनन करना चाहिये। उदाहरण के तौर पर महान ईश्वर सूरे आले इमरान की आयत नंबर 191 में कहता है” आसमानों और ज़मीन की रचना के बारे में चिंतन -मनन करते हैं ताकि उसके रहस्यों व निशानियों को समझ सकें।“ प्रकृति में चिंतन- मनन करने से जो महत्वपूर्ण वास्तिविकता प्राप्त होती है वह यह है कि प्रकृति की रचना जीवित प्राणियों के पैदा होने और उन्हें बाक़ी रखने के लिए की गयी है। अतः प्रकृति व पर्यावरण में संतुलन की सुरक्षा जीवित प्राणियों के लिए एक आवश्यकता है। प्रकृति महान ईश्वर की वह आयत व निशानी है जिसकी सुरक्षा में ही जीवित प्राणियों की सुरक्षा व उससे लाभ उठाया जाना नीहित है। अतः प्रकृति महान ईश्वर की आभास की जाने वाली निशानी है और उसने अपनी न्यायपूर्ण तत्वदर्शिता से छोटे -बड़े समस्त प्राणियों को जीवन का अधिकार दिया है। महान ईश्वर ने जिस प्रकृति की रचना की है उसे एक पवित्र चीज़ समझा जाता है और इंसानों को चाहिये कि वे जो भी गतिविधियां ज़मीन पर अंजाम दें उन सबको उससे समन्वित होना चाहिये। इस आधार पर ज़मीन, पानी और हवा जैसी चीज़ों को दूषित या उसे ख़राब करना महान ईश्वर की नेअमत पर अत्याचार और उसका अतिक्रमण है।
पवित्र क़ुरआन की आयतों के अनुसार प्रकृति और जो कुछ उसमें है वह इंसान के लिए महान ईश्वर की नेअमत है। महान ईश्वर ने अपनी नेअमतों को इंसान के अधिकार में दिया है ताकि वह उससे लाभ उठाये और उसका आभार व्यक्त करे। यानी इंसान महान ईश्वर की नेअमतों से सही तरह से लाभ उठाये और जब इंसान सही ढंग से उसकी नेअमतों से लाभ उठायेगा तो उसकी नेअमतों के जारी रहने एवं उसमें वृद्धि का कारण बनेगा। स्वयं महान ईश्वर पवित्र क़ुरआन में कहता है कि अगर मेरा शुक्र अदा करोगे तो मैं अपनी नेअमतों को अधिक कर दूंगा।
इंसान अगर महान ईश्वर की नेअमतों से सही ढंग से लाभ न उठाये तो लोक- परलोक दोनों में उसकी अनुकंपाओं से वंचित होने का कारण बनता है और ईश्वरीय नेअमतों से जो चीज़ वंचित होने का कारण बनती है वह लालच और उसकी नेअमतों की अनदेखी जैसी इंसान की आंतरिक विशेषताएं हैं। अतः पर्यावरण का जो संकट है वह इंसानों के क्रिया- कलापों का परिणाम है। इसके मुकाबले में पर्यावरण की सुरक्षा में सीमाओं और आसमानी धर्मों की शिक्षाओं का ध्यान रखना प्रकृति के हरा- भरा रहने और उसमें विकास का कारण बनता है। इसी तरह महान ईश्वर के आदेशों पर ईमान और अमल आसमानी और ज़मीनी नेअमतों में वृद्धि का कारण बनता है। महान ईश्वर पवित्र क़ुरआन में कहता है कि अगर वे तौरात व इंजील और जो कुछ उन पर उनके पालनहार की ओर से उतारा गया उस पर अमल करते तो वे आसमान और ज़मीन से रोज़ी पाते। पवित्र क़ुरआन की इन आयतों के आधार पर यह समझा जा सकता है कि इंसान और पर्यावरण के मध्य सीधा संबंध है। जिस तरह प्रकृति से इंसान का अनुचित संबंध ज़मीन और समुद्र में समस्या का कारण बनता है।
महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरे रूम की 41वीं आयत में कहता है” इंसानों के क्रिया -कलापों के कारण सूखे और समुद्र में समस्या उत्पन्न हो गयी और ईश्वर उनकी करतूतों का मज़ा चखाना चाहता है शायद वे अपने कर्मों से बाज़ आ जायें। इंसानों द्वारा अपने कार्यों व व्यवहार का सुधार लेना आसमान और ज़मीन की नेअमतों के अधिक होने का कारण बनता है। महान ईश्वर पवित्र क़ुरआन के सूरे आराफ़ की आयत नंबर 96 में एक बस्ती की मिसाल पेश करता और कहता है” अगर बस्ती वाले ईमान लाते और डरते तो हम उन पर आसमानों और ज़मीन से बरकतों का द्वार खोल देते।“
अतः इंसान को जिन सिद्धांतों व बातों का ध्यान रखना चाहिये अगर इंसान उनका लेहाज़ रखता है तो वह पर्यावरण के फलने- फूलने और उसके विकास का कारण है और इसके बहुत मूल्यवान परिणाम सामने आयेंगे। पर्यावरण की रक्षा के संबंध में केवल पवित्र क़ुरआन की आयतों में सिफ़ारिश नहीं की गयी है बल्कि पैग़म्बरे इस्लाम और इमामों के हवाले से आने वाली रवायतों में भी इसका उल्लेख हुआ है।