मार्गदर्शन- 62
न्याय को सामाजिक व्यवस्था में प्रचलित करना धर्मों का उद्देश्य रहा और मानव समाज धार्मिक परिवेश में आगे बढ़ा है।
धर्म ने न्याय की स्थापना के लिए जितना बल दिया है वह मनुष्य द्वारा स्थापित किसी भौतिक मत में दिखाई नहीं पड़ता।
इस्लाम में न्याय का अर्थ बराबरी और मामलों के बीच इस तरह संतुलन क़ायम करना कि हर शख़्स या चीज़ को उसका हिस्सा मिल जाए और इस दृष्टि से हर चीज़ जिसे उसका उचित स्थान मिला है, दूसरे मामलों में बारबर हो। न्याय के मुक़ाबले में ज़ुल्म अर्थात अत्याचार है। अर्थात एक व्यक्ति को वह चीज़ न दें जिसे पाना उसका अधिकार हो बल्कि उससे ले लें। इसी तरह न्याय के मुक़ाबले में एक और बिन्दु भेदभाव है। दो लोग समान स्थिति में हों उनमें से एक को कोई एक चीज़ दी जाए और दूसरे को न दिया जाए। वास्तव में न्याय मनुष्य की प्रवृत्ति में है और मानव समाज की मूल ज़रूरतों में है जिसे सभी इंसान हासिल करना चाहते हैं।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई न्याय के अर्थ को बहुत व्यापक मानते हैं जो सत्य के साथ जुड़ा हुआ है। वरिष्ठ नेता न्याय के अर्थ की व्याख्या में कहते हैं, "न्याय दिखने में बहुत सादी सी बात लगती है जिसका सभी लोग आम तौर पर बारंबार ज़िक्र करते हैं लेकिन व्यवहार में न्याय तक पहुंचना बहुत कठिन है। जैसा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने सत्य के बारे में फ़रमाया है, सत्य का दायरा बातचीत में सब चीज़ों से ज़्यादा व्यापक नज़र आता है लेकिन अमल में सबसे छोटा दायरा होता है। न्याय के बारे में भी ऐसा ही है क्योंकि न्याय और सत्य एक दूसरे से अलग नहीं हैं। एक अर्थ में सत्य ही न्याय है और न्याय ही सत्य है। इसकी परिभाषा करना आसान है लेकिन व्यवहार में न्याय क़ायम करना मुश्किल है। यहां तक कि कभी कभी न्याय के स्थान व मौक़ों को समझना भी बहुत कठिन होता है।"
वरिष्ठ नेता न्याय की परिभाषा में कहते हैं, "अंतर को कम करना, समान अवसर देना, सही काम करने वाले को प्रोत्साहित करना, राष्ट्रीय संपत्ति पर अतिक्रमण करने वालों को लगाम लगाना, प्रशासनिक ढांचे में न्याय को प्रचलित करना-लोगों की नियुक्ति, पद से हटाने, फ़ैसलों और दृष्टिकोण बयान करने में- देश के सुदूर व निर्धन क्षेत्रों को केन्द्र की नज़र में लाना, देश के वित्तीय स्रोतों को सभी तक पहुंचाना, सभी को इन स्रोतों का मालिक समझना, ये सब न्याय के संबंध में मूल बिन्दु हैं।"
सामाजिक न्याय मानव जीवन के बहुत अहम लक्ष्यों में है कि यह अगर किसी समाज में क़ायम हो तो यह इस बात का चिन्ह है कि वह समाज मानवीय दृष्टि से परिपूर्णतः तक पहुंच गया है। आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई की नज़र में सामाजिक न्याय तीन खंबों पर टिका है जिस पर सामाजिक व्यवस्था के निर्माताओं को हमेशा ध्यान देना चाहिए। पहला स्तंभ, न्यायपूर्ण क़ानून है। इस्लाम पर आस्था रखने वालों का मानना है कि ये न्यायपूर्ण क़ानून सिर्फ़ इस्लाम के पास है क्योंकि इस्लामी क़ानून का स्रोत ईश्वरीय संदेश ‘वही’ है और ईश्वर ने जो सृष्टि के रहस्यों का जानकार है, इस्लामी समाज के क़ानून को सृष्टि व स्वभाव के अनुसार क़रार दिया है। अगर ईश्वरीय क़ानून लागू हो तो न्याय अपने वास्तविक अर्थ में समाज में क़ायम होगा। दूसरा स्तंभ इन क़ानूनों को लागू करने वाली फ़ोर्स है। अगर क़ानून तो न्यायपूर्ण हों लेकिन उसे लागू करने वाली फ़ोर्स न्याय करने वाली न हो तो सामाजिक न्याय का दूर दूर तक निशान न होगा। अच्छे से अच्छा क़ानून, लागू करने वालों की अयोग्यता के कारण निष्कृय रहेगा जैसा कि पिछली शताब्दियों में जिन समाजों में मुसलमान रहते थे वहां इस्लामी क़ानून लागू न हुए। यही वजह है कि इस्लाम की नज़र में न्यायपालिका के प्रमुख को न्याय करने वाला, ईश्वर से डरने वाला और क़ानून के लागू होने की पूरी तरह निगरानी करने वाला होना चाहिए। लेकिन तीसरे स्तंभ के बारे में एक बहुत ही अहम बिन्दु न्याय को लागू करने के बारे में है और वह आम लोगों से संबंधित है। अगर समाज में न्याय को वास्तविक अर्थ में लागू करना चाहते हैं तो ज़रूरी है कि लोग सामाजिक मंच पर पूरी तरह सक्रिय हों। अपने अधिकार को समझें और न्याय के क्रियान्वयन की इच्छा दिखाएं कि इसी से उन्हें न्यायपूर्ण अधिकार मिलेगा। इसी वजह से इस्लाम में लोगों की समझ को बहुत अहमियत दी गयी है। इस्लाम यह कहता है कि लोगों को अपने अधिकार की ओर से जानकारी होनी चाहिए। अगर लोग अपने अधिकार को जानेंगे और उसे मांगेगे, तो उस स्थिति में न्याय का लागू होना निश्चित है।
इस्लाम में निर्धनता उन्मूलन, समाज के विभिन्न वर्गों में निर्धनता की खाई को कम करना, अवसरों और सुविधाओं से लाभ उठाने में सबको एक नज़र से देखना, सामाजिक न्याय के आधार में है। इसी वजह से इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई निर्धनता उन्मूलन या ग़रीबी दूर करने और समाज के कमज़ोर वर्ग की मुश्किलों को ख़त्म करने को इस्लामी समाज के मुख्य कर्तव्यों में गिनवाते हुए फ़रमाते हैं, "हमारी नज़र में न्याय वर्गों के बीच खाई को कम करना है। भौगोलिक अंतर को कम करना है। ऐसा न हो कि अगर कोई क्षेत्र केन्द्र से भौगोलिक दृष्टि से दूर हो तो वंचित रहे लेकिन निकट वाला सुविधाओं से संपन्न हो, यह न्याय नहीं है। वर्ग अंतर को दूर होना चाहिए, भौगोलिक दूरी भी ख़त्म होनी चाहिए और साथ ही सुविधाओं व अवसरों से लाभ उठाने के समान अवसर मुहैया होने चाहिए।"
इस बारे में वरिष्ठ नेता सरकारी अधिकारियों को संबोधित करते हुए कहते हैं, "योजनाओं में निर्धनता व महरूमी को ख़त्म करना प्राथमिकता होनी चाहिए कि यह न्याय के स्तंभों में है।"
हर राष्ट्र व मत के सृष्टि, इंसान की हक़ीक़त, उसके दुनिया में आने के उद्देश्य के बारे में अलग अलग दृष्टिकोण हैं और हर एक ने न्याय की अलग अलग व्याख्या की है। समकालीन पश्चिमी विचारधारा में ख़ास तौर पर उदारवाद और पूंजि की आज़ाद मंडी में आस्था रखने वाले सामाजिक मूल्यों के वर्गीकरण में विकास को सामाजिक न्याय पर प्राथमिकता देते हैं और उनका मानना है कि आर्थिक विकास के नतीजे में अंत में समाज के कमज़ोर व वंचित वर्ग का भी भला होगा, लेकिन इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई इस विचार को इस्लामी विचार के ख़िलाफ़ बताते हुए कहते हैं, "हमारी आज की दुनिया में प्रचलित कुछ नीतियों की तरह जिसके बहुत से समर्थक भी हैं, नीति नहीं है कि सिर्फ़ देश के उत्पादन व संपत्ति को बढ़ाने के बारे में सोचें और न्याय की अनदेखी करें। नहीं यह हमारी सोच नहीं है। हमारी व्यवस्था की नवीनता यही है हम न्याय और आर्थिक विकास को एक साथ चाहते हैं। कुछ लोग यह सोचते हैं कि पहले विकास करें और जब उसके उचित चरण तक पहुंच जाएं तब सामाजिक न्याय की ओर ध्यान दें। यह विचार इस्लामी नहीं है। हम जन कल्याण व विकास जैसे विभिन्न प्रकार के काम न्याय के लिए चाहते हैं। इसलिए कि समाज में न्याय क़ायम हो और सभी समाज में मौजूद सुविधाओं व अवसरों से लाभ उठाएं। कुछ वंचित व पीड़ित न रहें। न्याय के माहौल में इंसान का विकास होता है, उच्च स्थान तक पहुंचते हैं और मानवीय विशेषताएं प्राप्त करते हैं। इसलिए इंसान के परिपूर्णतः तक पहुंचने के लिए न्याय एक अपरिहार्य ज़रूरत है।"
यह सच्चाई की एकेश्वरवाद की भावना, नैतिकता, अध्यात्म और बंदगी की ओर निमंत्रण, इस्लाम की मुख्य शिक्षाएं हैं, इंसान का ध्यान इस अहम बिन्दु की ओर ले जाती हैं कि इस्लामी विचारधारा के अनुसार अकेले सामाजिक न्याय एक समाज को भलाइयों से सुशोभित नहीं कर सकता। क्योंकि न्याय सही अर्थ में उसी वक़्त लागू होगा जब उसके साथ अध्यात्मिक भावना भी हो। इसके साथ ही अनुभव से भी यह बात साबित है कि वास्तव में वही लोग न्याय की स्थापना के सच्चे ध्वजवाहक हैं जिनके पास मज़बूत धार्मिक व आध्यात्मिक आधार है। अलबत्ता इस अध्यात्म के साथ साथ अगर पर्याप्त स्तर की बुद्धि व युक्ति न हो तो यह अकेले न्याय की स्थापना की गारेंटी नहीं ले सकता। वही वजह है कि इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता भी इस बिन्दु पर बल देते हैं कि न्याय की स्थापना के लिए ज़रूरी है कि समाज में यह आस्था आम होनी चाहिए कि हमें ईश्वर ने भेजा है और उसी की तरफ़ पलट कर जाना है। इसी तरह समाज में अध्यात्मिक वातावरण भी मौजूद हो। जब तक समाज की एक एक ईकाई की यह आस्था न होगी वास्तविक अर्थ में इस्लाम के मद्देनज़र सामाजिक न्याय क़ायम नहीं हो सकता। आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई न्याय के संबंध में इस बिन्दु को भी बहुत अहम मानते हैं कि हर व्यक्ति को अपने बारे में न्याय से काम लेना चाहिए। वरिष्ठ नेता कहते हैं, "जब हर व्यक्ति ख़ुद को न्याय की ऐनक से देखेगा तो पाप से दूर रहेगा, ईश्वर के सामने ख़ुद को तुच्छ समझेगा और यही चीज़ सामाजिक न्याय क़ायम करने में भी मदद देती है।"
वरिष्ठ नेता सरकारी अधिकारियों और सामाजिक न्याय क़ायम करने वालों पर अध्यात्म व तार्किकता अपनाने पर बल देते हैं। क्योंकि तार्किकता का तक़ाज़ा है कि न्याय क़ायम करने वाले समाज के हर मंच पर अन्य राष्ट्रों के अनुभवों से लाभ उठाएं, युक्ति व सूझबूझ से काम लें और विचारकों के दृष्टिकोण से भी फ़ायदा उठाएं।
इस बारे में वरिष्ठ नेता कहते हैं, "न्याय क़ायम करते वक़्त तार्किकता के साथ साथ अध्यात्म पर भी ध्यान देना चाहिए। अगर न्याय के साथ अध्यात्म न होगा तो न्याय एक खोखला नारा होगा। बहुत से लोग न्याय की बात करते हैं लेकिन चूंकि अध्यात्म से ख़ाली होते हैं इसलिए ऐसे लोगों के न्याय के नारे के पीछे ज़्यादातर राजनैतिक आयाम होता है। दूसरे यह कि अगर न्याय में तार्किकता न होगी तो कभी कभी न्याय अन्याय बन जाता है। न्याय में तार्किकता पहली शर्त है।"
जब भी न्याय तार्किकता व अध्यात्म से अलग होगा, तो आप उस न्याय तक नहीं पहुंच पाएंगे जिसे आप चाहते हैं। वास्तव में न्याय ही न होगा। तार्किकता इसलिए ज़रूरी है कि अगर तर्क व बुद्धि को उन जगहों व अवसरों पर इस्तेमाल न किया गया जहां न्याय की ज़रूरत है तो इंसान गुमराह हो जाएगा। उसे लगेगा कि न्याय हो रहा है जबकि वास्तव में न्याय न होगा और उसे वह चीज़ नज़र न आएगी जहां न्याय होगा। इसलिए न्याय तक पहुंचने के लिए तार्किकता व सूझबूझ एक ज़रूरी शर्त है।