मार्गदर्शन- 66
जेहाद का अर्थ कोशिश करना है और आम बोल-चाल में इसका अर्थ है अपनी जान, माल और क्षमता को इस्लाम और उसकी शिक्षाओं के प्रसार में लगाना।
आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई जेहाद की व्याख्या में कहते हैं, “हर वह काम जिसमें कोशिश हो और उसके मुक़ाबले में एक दुश्मन हो, उसे जेहाद कहते हैं।”
चूंकि इस्लाम और इस्लामी जगत को दुश्मन विभिन्न तरीक़ों से अपने हमलों का निशाना बना रहा है इसलिए उससे निपटने की शैली भी अलग अलग तरीक़े की होनी चाहिए। कभी दुश्मन के साथ जंग के मैदान में आमने-सामने खड़ा होना पड़ना हैं। कभी दुश्मन के सांस्कृतिक वर्चस्व को ख़त्म करने या उसके सांस्कृतिक धावे से निपटने के लिए सांस्कृतिक संघर्ष करना पड़ता है। इस्लामी क्रांति वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई जेहाद के प्रकार की व्याख्या में फ़रमाते हैं, “इस्लामी संस्कृति में एक बिन्दु जो इस्लाम के आरंभिक दौर में बहुत उभरा लेकिन बाद के दौर में फीका नज़र आता है, वह संघर्ष की संस्कृति है। जेहाद का अर्थ सिर्फ़ जंग के मैदान में मौजूद रहना नहीं है क्योंकि दुश्मन का मुक़ाबला करने की हर कोशिश को जेहाद कह सकते हैं। अलबत्ता यह भी मुमकिन है कि कुछ लोग कुछ काम करें, काफ़ी मेहनत करें और उसे संघर्ष का नाम दें, यह सही नहीं है। क्योंकि जेहाद की एक शर्त यह है कि उसके मुक़ाबले में कोई दुश्मन हो। यह मुक़ाबला कभी जंग के मैदान में हथियार के साथ होता है जिसे सामरिक संघर्ष कहते हैं, कभी राजनीति के मैदान में होता है उस वक़्त इसे राजनैतिक संघर्ष कहते हैं, कभी सांस्कृतिक मैदान में मुक़ाबला होता है उस वक़्त उसे सांस्कृतिक संघर्ष कहते हैं और एक वक़्त विकास व तरक़्क़ी के क्षेत्र में होता है उस वक़्त उसे निर्माण संघर्ष कहते हैं। जेहाद अलग अलग मैदान में अलग अलग शीर्षक से होता है।”
सांस्कृतिक संघर्ष का अर्थ समाज में सही विचार व आस्था को बयान करना और बुरी आस्थाओं व विचारों को ख़त्म करना है। इस संघर्ष में सबसे पहले ज़रूरी है कि समाज से निरक्षरता व अज्ञानता को ख़त्म किया जाए और शुद्ध ईश्वरीय व इस्लामी संस्कृति को पेश करके उसे दूर किया जा सकता है। चूंकि बुरे विचारों का प्रचार व प्रसार किसी समय व स्थान से विशेष नहीं है इसलिए सांस्कृतिक संघर्ष भी एक निरंतर प्रक्रिया है जिसे सैन्य संघर्ष पर प्राथमिकता हासिल है और यह बुनियाद की हैसियत रखती है। यही वजह है कि सांस्कृतिक संघर्ष करने वालों की अहमियत सैन्य संघर्ष सहित अन्य क्षेत्रों में संघर्ष करने वालों से ज़्यादा है क्योंकि वह सही विचारों, नैतिक मूल्यों और ईश्वरीय आदेशों का प्रचार व प्रसार करते हैं। उनके सांस्कृतिक संघर्ष से ईश्वरीय धर्म की रक्षा होती है, धर्म पर होने वाले हमले दूर होते हैं और ईश्वरीय मूल्य पनपते हैं। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का एक स्वर्ण कथन है, “प्रलय के दिन ईश्वर सभी लोगों को एक जगह इकट्ठा करेगा, तराज़ू व मानदंड रखे जाएंगे और उन पर शहीदों के ख़ून को विद्वानों की रौशनाई से परखा जाएगा। उस समय विद्वानों के क़लम की रौशनाई शहीदों के ख़ून से बेहतर क़रार पाएगी।”
इस कथन की व्याख्या में इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता फ़रमाते हैं, “विद्वान में यह क्षमता होती है कि आज की भाषा में इस नज़र आने वाले ढांचा रूपी इंसान को एक महान इंसान में बदल देता है। एक अटल इरादों वाला। एक विद्वान यह काम कर सकता है। विद्वान का क़लम शहीद के ख़ून पर वरीयता रखता है। हमने अपने जवान धार्मिक छात्रों को देखा है जो प्रचारिक जंग के मैदान में एक आम आदमी को प्रतिरोधी, एक सुस्त इंसान को सक्रिय और एक कमज़ोर इरादे के इंसान को अटल इरादे का बना देते थे।”
सांस्कृतिक संघर्ष का मुख्य स्तंभ एक विस्तृत सांस्कृतिक संघर्ष के लिए ज़रूरी सभी चीज़ों को तय्यारी है और उसके संचालन के लिए एक सांस्कृतिक बेस का वजूद है। इस मुख्य बेस में एक वॉच टॉवर होता जिसका काम इस बात पर नज़र रखना होता है कि कोई सांस्कृतिक हमला न करने पाए, हमेशा तय्यार रहे, ट्रेनिंग होती रहे, उचित हार्डवेयर उपकरणों की आपूर्ति होती रहे, अपनी फ़ोर्स को मनोवैज्ञानिक कार्यवाही के लिए तय्यार किया जाता है। यह सबके सब एक कमान्डर का अनुसरण किए बिना मुमकिन नहीं हैं। वरिष्ठ नेता सांस्कृतिक संघर्ष को व्यवहारिक बनाने के लिए इस्लामी गणतंत्र ईरान की सांस्कृतिक क्रान्ति की उच्च परिषद को मुख्य बेस के रूप में पहचनवाते हुए फ़रमाते हैं, “हो सकता है कि बेस का शब्द कुछ लोगों को अच्छा न लगे और कहें कि बेस एक सामरिक शब्दावली है। यह सैन्य मामलों के लिए विशेष है। लेकिन सच्चाई यह है कि सांस्कृतिक जंग का मैदान अगर सैन्य संघर्ष के मैदान से ज़्यादा अहम न हो तो उससे कम भी नहीं है।”
इंसान जिस मोर्चे पर होता है सबसे पहले उसके लिए ज़रूरी होता है कि दुश्मन को पहचाने, उसके सैन्य उपकरणों व सुविधाओं को पहचाने ताकि उससे निपट सके। जो दुश्मन को नहीं पहचानता, उससे निपटने के लिए ज़रूरी उपाय नहीं अपना सकता। वरिष्ठ नेता इस बारे में फ़रमाते हैं, “सांस्कृतिक हमले का बंदूक़ से जवाब नहीं दिया जा सकता। उसकी बंदूक़ क़लम है। आंख को खुला रखना और मोर्चे को पहचानना उसी तरह ज़रूरी है जिस तरह जंग के मैदान में। अगर कोई व्यक्ति वॉच टॉवर से दुश्मन की स्थिति को समझे बिना अपनी निगाह नीचे किए आगे चला जाए तो हार जाएगा। सांस्कृतिक जंग भी इसी तरह होती है।”
सांस्कृतिक संघर्ष का एक रास्ता धार्मिक आस्थाओं को मज़बूत करना है। धार्मिक आस्थाओं को मज़बूत करने से इस्लामी समाज में ख़ास तौर पर युवा वर्ग दुश्मन के सांस्कृतिक हमले से सुरक्षित हो जाता है। अलबत्ता धार्मिक विचार उस समय पनपते हैं जब उसके साथ पहचान भी हो वरना एक व्यक्ति अपनी कमज़ोर आस्था व पहचान न होने के कारण दुश्मन के प्रचार से धोखा खा जाता है। वरिष्ठ नेता इस उपाय की व्याख्या में कहते हैं, “ख़ुद को जागरुक बनाइये, अपने भीतर समीक्षात्मक क्षमता पैदा कीजिए। ऐसी क्षमता जिसके ज़रिए समाज की वास्तविकताओं को पहचानें। समीक्षा की शक्ति बहुत अहम है। हम मुसलमानों ने पूरे इतिहास में जब भी नुक़सान उठाया उसके पीछे कमज़ोर समीक्षा ज़िम्मेदार थी। इस्लाम के आरंभिक काल में जो नुक़सान पहुंचा उसके पीछे भी यही वजह थी। ऐसा न हो दुश्मन आप में जागरुकता के अभाव से फ़ायदा उठाए और वास्तविकता को उलट-पलट कर दिखाए। किसी व्यक्ति या मानव समाज के सामने जो मुश्किलें पैदा होती हैं उसके पीछे इन्हीं दो में से किसी एक का असर होता है। एक जागरुकता का अभाव और दूसरे धैर्य न होना। लापरवाही का शिकार हो जाते हैं और सही बात को समझ नहीं पाते या सही बात को समझते हैं लेकिन दृढ़ता के अभाव में जल्द हिम्मत हार जाते हैं। समय की ज़रूरत को न समझना और संकीर्णता वे हथकंडे हैं जिसे दुश्मन अपने सांस्कृतिक हमले के लिए इस्तेमाल करता है।” यही वजह है कि आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई सभी लोगों और ख़ास तौर पर छात्र वर्ग से अनुशंसा करते हैं कि संकीर्णता से निपटने के लिए ज्ञान हासिल करें और अपने भीतर जागरुकता लाएं। उनकी नज़र में संकीर्णता एक तरह की संस्कृति है जिसका द्वार बंद है। जिससे सांस्कृतिक शैलियों से निपटा जा सकता है।
दुश्मन के देशों को झुकाने के सबसे बड़े हथकंडों में से एक हीनता की भावना को पैदा करना है। इसलिए सांस्कृतिक संघर्ष को आत्म विश्वास की भावना को बढ़ाने पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिए ताकि दुश्मन की साज़िश नाकाम हो जाए। आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई फ़रमाते हैं कि दुश्मन सांस्कृतिक हमले के लिए सबसे बड़ा हथकंडा यह अपनाता है कि दृष्टिगत समाज की पहचान को निम्न स्तर की दर्शाता और उसमें निराशा की भावना को फैलाता है। इसी तरह दुश्मन अपनी शक्ति का प्रदर्शन और अपने भौतिक संसाधनों का बखान करता है। वरिष्ठ नेता फ़रमाते हैं, “आज और भविष्य में हज़ारों सांस्कृतिक उपकरण इसिलए इस्तेमाल होंगे कि मुसलमानों को उज्जवल भविष्य की ओर से निराश करें या उन्हें अपनी बुरी नीयत के अनुसार भविष्य के लिए प्रेरित करें। यह सांस्कृतिक व मनोवैज्ञानिक जंग साम्राज्य के आरंभ से लेकर अब तक इस्लामी देशों पर वर्चस्व जमाने के लिए साम्राज्य का सबसे प्रभावी हथकंडा रहा है। इस ज़हरीले तीर का निशाना सबसे पहले बुद्धिजीवियों, विचारकों और फिर आम लोगों को बनाया जाता है।” वरिष्ठ नेता सांस्कृतिक संघर्ष के उपाय की ओर इशारा करते हुए फ़रमाते हैं, “इस हथंकडे से संघर्ष पश्चिम की ओर से थोपी गयी संस्कृति से मुंह मोड़े बग़ैर मुमकिन नहीं है। बुद्धिजीवियों को चाहिए कि वे पश्चिम की संस्कृति की छानबीन करें। उसके अच्छे तत्व को ले लें और बुरे व विनाशकारी तत्वों को इस्लामी समाज की सोच व व्यवहार से निकाल बाहर करें। इस विशाल पैमाने पर छानबीन का मानदंड इस्लामी संस्कृति और पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण को क़रार दिया जाए।”
वरिष्ठ नेता आत्मिक शक्ति व आत्म विश्वास की भावना की मज़बूती को सांस्कृतिक संघर्ष के लिए ज़रूरी बताते हुए फ़रमाते हैं, “जिस समाज का मनोबल ऊंचा होता है, दुश्मन उससे धौंस व धमकी की ज़बान में बात नहीं कर सकता। दुनिया में धौंस व धमकी देने वाले जब किसी व्यक्ति, गुट या राष्ट्र को झुकाना चाहते हैं तो सबसे पहले उस व्यक्ति, गुट या राष्ट्र के मनोबल को तोड़ देते हैं। उनमें क्षमता व दृढ़ता की भावना ख़त्म कर देते हैं। जब तक कोई गुट या राष्ट्र ख़ुद को शक्तिशाली व सक्षम सिहमझता है और उसका मनोबल ऊंचा रहता है, उस वक़्त तक कोई भी उस गुट या राष्ट्र को हरा नहीं सकता न बाहरी दुश्मन और न ही सुस्ती, आवारागर्दी, व बेशर्मी जैसे आंतरिक दुश्मन।”