इस्लाम और मानवाधिकार- 61
कभी शुभचिंतक और हितैषी लोगों की सहानुभूति की ज़रूरत पड़ती है जो नसीहत करके हमें सही मार्ग दिखाते हैं।
कभी कभी हमारी इच्छा होती है कि हम अपनी नैतिक बुराइयों को समझें और यदि हमारी बातचीत में या रवैए में कोई त्रुटि है तो उसे दूर कर लें। ऐसे में हमारे लिए ज़रूरी है कि किसी समझदार व्यक्ति की सहायता लें और उनसे अनुरोध करें कि हमारी कमियों और त्रुटियों के बारे में हमें बताएं।
पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि यह प्रयास करो कि अपने जागने के समय को चार भागों में विभाजित करो। एक भाग ईश्वर के स्मरण के लिए, दूसरा भाग रोज़ी रोटी कमाने के लिए, तीसरा भाग भरोसेमंद मित्रों और भाइयों की संगत में रहने के लिए जो तुम्हारी कमियों से तुम्हें अवगत करें और तुम्हारे प्रति उनके दिल में निष्ठा हो, चौथा भाग जायज़ तरीक़े से नेमतों से आनंद उठाने के लिए होना चाहिए। यह ध्यान रहे कि आनंद उठाने का यह समय तुम्हें विशेष स्फूर्ति देता है और समय के अन्य भागों में काम करने के लिए तुम्हारे भीतर ऊर्जा पैदा करता है।

इस्लाम के नैतिक शस्त्र में जिन विषयों पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाता है उनमें एक दूसरों की नसीहत और उपदेश का सम्मान करना है। क़ुरआने मजीद ने पैग़म्बरों को समाज का उपदेशक बताया है। सूरए आराफ़ में यह बताया गया है कि पैग़म्बरों की शैली नसीहत और मार्गदर्शन की शैली है। जैसे कि हज़रत नूह अलैहिस्सलाम अपनी जाति के लोगों को संबोधित करते हुए कहते हैः मैं अपने पालनहार का संदेश तुमें पहुंचाता हूं, तुम्हारा शुभचिंतक हूं और ईशवर की ओर से मैं ऐसे तथ्य जानता हूं जो तुम नहीं जानते। पैग़म्बर हज़रत सालेह के बारे में क़ुरआन कहता है, सालेह ने उनसे मुंह मोड़ लिया और कहा कि हे मेरी क़ौम के लोगो मैंने अपने ईश्वर का संदेश तुम तक पहुंचा दिया, शुभचिंता की तक़ाज़े पूरे किए लेकिन तुम शुभचिंतकों के पसंद नहीं करते।
आलोचना और टिप्पणी सही और ग़लत रास्ते और रवैए की निशानदेही में मददगार है। आलोचना इंसान को यथार्थवादी बनाती है और उसकी सोच और रवैए में सुधार करती है तथा व्यक्ति और समाज के सुधार और उत्थान का रास्ता खोल देती है साथ ही इंसान की परिपूर्णता का रास्ता खोलती है। ज्ञान भी बुद्धिजीवियों और ज्ञानियों की आलोचना और बहस के नतीजे में विकास पाता है क्योंकि ज्ञान संबंधी विचारों के सही या ग़लत होने का पता बहस और आलोचना से चल जाता है। सही आलोचना के नतीजे में इंसान को यह समझ में आ जाता है कि अच्छा रवैया क्या है और बुरा बर्ताव क्या है।
आसमानी शिक्षाओं में अलग अलग विषय की टिप्पणी का अलग अलग महत्व है। कुछ नैतिकता विरोधी काम बड़े गुनाहों में गिने जाते हैं जिनसे हर एक को बचना ज़रूरी है जैसे झूठ, विश्वासघात आदि। इस तरह की चीज़ों की आलोचना करना धार्मिक कर्तव्य है। इस्लाम की ओर से मुसलमानों पर वाजिब है कि वह लोगों को गुनाह और बुरे कामों से मना करें। कुछ कर्म ऐसे भी हैं जो इस्लाम की दृष्टि से पाप तो नहीं हैं लेकिन नैतिकता की दृष्टि से वह अप्रशंसनीय हैं, जैसे बहुत ज़्यादा बातें करना, आत्ममुग्धता, लोगों से कठोरता का बर्ताव आदि। ऐसी परिस्थितियों में आलोचना करना एक नैतिक दायित्व है। लोगों को चाहिए कि शुभचिंता के आधार पर अपने भाई बंधुओं की कमियों से उन्हें अवगत करवाएं और त्रुटियों को दूर करने में मदद करें।

अलबत्ता आलोचना की भी कुछ शर्तें हैं। पहली शर्त यह है कि उस विषय की नैतिक व क़ानूनी बुराई का आलोचक को पूरा ज्ञान हो और ज्ञान के साथ आलोचना करे, भावुक होकर या अनुमान लगाकर नहीं। क्योंकि संभव है कि एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति का काम गुनाह प्रतीत हो और धार्मिक दायित्व के आधार पर वह उसे रोकने का प्रयास करे या उसके किसी रवैए को अनैतिक समझे लेकिन हक़ीक़त में ऐसा न हो और अकारण ही दूसरे इंसान का अपमान कर बैठे।
उचित यह है कि हर इंसान अपनी आलोचना ख़ुद करे, उसके जो विचार हैं उन्हें न्याय और सत्य की कसौटी पर परखे, जो विचार उसे सही लगें उन्हें बाक़ी रखे और परखने के बाद जो विचार ग़लत प्रतीत हैं उन्हें अपने मन से दूर कर दे। यह सबसे अच्छा, सबसे आसान और सबसे प्रभावी आलोचना है तथा बुरी आदतों और बुरे विचारों को दूर करने का यह सबसे अच्छा तरीक़ा है। ईश्वरीय दूतों ने अपने अनुयाइयों को हमेशा इसकी नसीहत की कि आत्म निर्माण के लिए इसी शैली का उपयोग करें। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि ज्ञानी इंसान के आत्म निर्माण का एक तरीक़ा यह है कि वह अपनी कही हुई बातों की आलोचना करे, तथ्यों का कई पहलुओं से जायज़ा ले और उनसे अवगत रहे।
वैसे तो हर इंसान अपनी बुद्धि का प्रयोग कर सकता है और अपने विचारों और क्रियाओं की समीक्षा व आलोचना कर सकता है तथा अपनी कमियों से अवगत हो सकता है लेकिन इस तरह उसकी सारी ज़रूरत पूरी नहीं हो सकती वह अपनी सारी कमियों से अवगत नहीं हो पाएगा। क्योंकि यह सही है कि इंसान के पास बुद्धि होती है लेकिन वह दूसरे अनेक कारकों से प्रभावित भी रहता है। इंसान स्वाभाविक रूप से अपने आपको पसंद करता है तथा उस पर उस माहौल का असर भी होता है जिसमें उसका पालन पोषण हुआ है। वह उस माहौल की रीति रिवाजों को अपने अस्तित्व में उतार लेता है। अब वह अपना मूल्यांकन करने बैठता है तो जिस माहौल में रहा है उस माहौल के अनुरूप कसौटी तय करता है और उसी के अनुसार अपने कर्मों और आदतों का मूल्यांकन करता है। यह भी स्पष्ट है कि जब तक यह सारे कारक मौजूद रहेंगे वह यथार्थवादी होकर आत्मावलोकन नहीं कर सकता। वह बुराइयों को सही रूप में देख पाने और उनके बारे में सही फ़ैसला करने में असमर्थ रहता है। ऐसे में उसके लिए ज़रूरी हो जाता है कि सज्जन व्यक्तियों की आलोचना पर ध्यान दे।

आत्म निर्माण तथा मन की बुराइयों को दूर करने के लिए ज़रूरी है कि इसी शैली पर काम किया जाए। जो व्यक्ति पवित्र जीवन बिताना चाहता है और नैतिक बुराइयों से ख़ुद को दूर रखना चाहता है उसे चाहिए कि अपनी बुद्धि का प्रयोग करे और खुली आंख से आत्मावलोकन करे और अपने कर्मों की समीक्षा करे। उसे अपने भीतर जो कमियों नज़र आएं उन्हें दूर करे और अपनी राय के साथ ही दूसरों की राय और सुझाव से भी लाभ उठाए। अपनी बुरी आदतों से परिचित होने के लिए ज़रूरी है कि दूसरों के विचारों से अवगत हो।
समाज में समझदार और भले लोग दर्पण के समान होते हैं वह अच्छाइयों और बुराइयों दोनों की निशानदेही कर देते हैं और तथ्यों को बयान दे देते हैं। जो व्यक्ति पवित्रता सदगुण चाहता है उसे चाहिए कि ख़ुद को भले लोगों के क़रीब करे, उनके सुझाव पर अमल करे, अपनी अज्ञात बुराइयों से परिचित हो और निष्ठापूर्वक अपना सुधार करे। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि मोमिन इंसान अपने भाई के लिए दर्पण के समान होता है उसकी प्रतिकूल बातों को उजागर और दूर करता है।
अच्छा बर्ताव और नर्मी आलोचना के समय भी बहुत लाभदायक और प्रभावी होती है बल्कि दूसरे तमाम मामलों में भी यह आदत बहुत अच्छा नतीजा देती है। नर्मी और सहनशीलता से जीवन में विशेष आकर्षण पैदा हो जाता है। लोग एक दूसरे के क़रीब आते हैं, सम्मान और आदर का भाव उत्पन्न होता है और समाज में जीवन बहुत अच्छा हो जाता है। इसके विपरीत यदि कठोर रवैया अपनाया जाए और कड़वाहट से पेश आया जाए जीवन में भी कड़वाहट घुल जाती है और वातावरण ख़राब हो जाता है। लोग एक दूसरे से दूर हो जाते हैं, बिखर जाते हैं, लोग एक दूसरे का अपमान करने लगते हैं और जीवन में कड़वाहट घुल जाती है।

जब नसीहत ख़मोशी से और बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से की जाती है और सम्मान व सदाचार के साथ होती है तो उसका अच्छा असर पड़ता है और लोग अपनी कमियां दूर करते हैं सुझाव को स्वीकार करते हैं और उनका बुरा भी नहीं लगता यदि बुराई को दूर न करें तब भी कम से कम यह होता है कि कड़वाहट का माहौल पैदा नहीं होता।
खुले आम किसी की आलोचना करना, दूसरों के सामने फटकार देना और कमियों को गिनवा देना वास्तव में उस व्यक्ति का अपमान करना और उसे नीचा दिखाना है। इस रवैए का कोई असर नहीं होता बल्कि इसका बुरा नतीजा निकलता है। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि जो व्यक्ति दूसरों के साथ नर्मी से पेश आता है और अपना स्वभाव नर्म व कोमल रखता है लोग उसकी हर बात मान लेते हैं।