Jan २०, २०१८ १७:२८ Asia/Kolkata

हालिया कुछ दशकों में आतंकवाद की समस्या एक अंतर्राष्ट्रीय चुनौती में परिवर्तित हो चुकी है किन्तु कुछ टीकाकारों का कहना है कि आतंकवाद से संघर्ष के विषय को हथकंडे के रूप में प्रयोग करना, आतंकवाद से भयंकर समस्या है क्योंकि आतंकवादी कार्यवाहियों के विपरीत इसकी प्रवृत्ति गुप्त होती है।

वर्तमान काल में या उस काल में जिसे वैश्विक युग का नाम दिया जाता है, दुनिया आतंकवाद की समस्या से जूझ रही है जिसने मानवता को ख़तरे में डाल दिया है। आतंकवाद अब एक वैश्विक समस्या में बदल चुका है और इसने राष्ट्रों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों को ख़तरे में डाल दिया है तथा देशों की शांति और उनकी संप्रभुता को ख़तरे में डाल दिया है।

यह ऐसी स्थिति में है कि अब तक आतंकवाद की समान या एक परिभाषा बयान नहीं की जा सकी है। बहुत से लोगों का मानना है कि आतंकवाद से संघर्ष के लिए वैश्विक कन्वेन्शनों के गठन के बावजूद इस बारे में समान बर्ताव नहीं किया जाता है और यही दोहरा बर्ताव, आतंकवाद और हिंसाप्रेम से संघर्ष के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट है। तेहरान के शहीद बहिश्ती विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर डाक्टर मोहसिन अब्दुल्लही का कहना है कि आतंकवाद, मानवाधिकार और मानवीय प्रतिष्ठा, स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार सहित इसमें वर्णित अन्य अधिकारों के विरुद्ध गंभीर खतरा समझा जाता है।

खेद की बात यह है कि आतंकवाद से संघर्ष के नाम पर दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिदिन होने वाली कुछ अप्रिय घटनाएं, आतंकवाद से संघर्ष की आड़ में राजनैतिक लक्ष्यों को छिपाने का परिणाम है। यहां पर दो मुख्य सवाल पाए जाते हैं। पहला सवाल यह है कि आतंकवाद से संघर्ष के मार्ग में मुख्य चुनौती क्या है, उनमें कमी है या कन्वेन्शनों और अंतर्राष्ट्रीय समझौतों का पक्का न होना है जिसके कारण दुनिया में आतंकवाद का विस्तार तेज़ी से हुआ है या यह कि इस बारे में दूसरी चुनौतियां पायी जाती है जिसके कारण आतंकवाद से संघर्ष के अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शनों के क्रियान्वयन में रुकावटें पैदा हुई है।

आतंकवाद से संघर्ष की वैश्विक प्रक्रिया पर नज़र डालने से यह पता चलता है कि बीसवीं सदी में आतंकवाद के विषय पर चर्चा, एक ऐसा विषय था जिसने संयुक्त राष्ट्र संघ के इतिहास में उत्तरी और दक्षिणी देशों के बीच मतभेद पैदा कर दिए। संयुक्त राष्ट्र संघ नस्लभेद, साम्राज्य और विदेशी वर्चस्व के विरुद्ध कार्यवाही को स्वीकार तो करता है 20 अक्तूबर वर्ष 1970 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में प्रस्ताव क्रमांक 2526 पारित हुआ जिसमें साम्राज्यवादियों से स्वतंत्रता पाने के लिए स्वतंत्रतापूर्ण आंदोलनों की सरकारी सैन्य सहायता पर बल दिया गया है। इसके बावजूद दक्षिणी देश स्वतंत्रता के आंदोलनों की परिभाषा के बारे में पायी जाने वाली चिंताओं के कारण, राष्ट्रों के भविष्य निर्धारण के अधिकार तथा सशस्त्र आंतरिक झड़पों पर छाये अधिकारों के कारण उत्तरी देशतों के साथ आतंकवाद के विषय पर एक प्लेटफ़ार्म पर जमा नहीं हो सके। इस विषय पर हमेशा से क़ानूनी पचड़ों के साथ राजनैतिक मुद्दों को मिलाकर चर्चा होती रही है।

21वीं सदी में प्रविष्ट होने से पहले तक आतंकवादी कार्यवाहियों के बारे में कुछ विशेष बातें कही जाती थी। इस विषय को तीन प्रकार से बयान किया जा सकता हैः

  1. हिंसक कार्यवाही या हत्या करना या वह काम जिससे शरीरी को काफ़ी नुक़सान पहुंच जाए।
  2. जनता के बीच भय और आतंक फ़ैलाना।
  3. ऊपर वर्णित अपराध अंजाम देने के लिए कुछ लोग या एक व्यक्ति के निर्धारित लक्ष्य और उनकी समन्वित योजना जो एक देश की राजनीति को प्रभावित कर देती है।

इस आधार पर जेनेवा के चार सूत्रीय प्रोटोकोल कन्वेन्शन के अनुच्छेद नंबर 51 में स्पष्ट रूप से बल दिया गया है कि आम नागरिकों के बीच आतंक या भय फैलाने के उद्देश्य से की जाने वाली हिंसा प्रतिबंधित है।

20वीं शताब्दी में आतंकवाद के विषय पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की निश्चेतना के कारण आम लोगों में इस विषय पर व्यापक दस्तावेज जमा करने का रुझान बढ़ा और इस समझौते पर प्रतिबद्ध होने के लिए देशों को प्रेरित होने का अवसर मिला। इस आधार पर वर्ष 1963 में 40 वर्ष से कम समय में आतंकवाद के विरुद्ध 12 सूत्रीय कन्वेशनों का गठन हुआ।

ग़ैर नागरिक उड्यन सुरक्षा के विरुद्ध ग़ैर क़ानूनी कार्यवाही कार्यवाही से रोकने का कन्वेन्शन, बंधक बनाने से रोकने का अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शन, परमाणु पदार्थकों के समर्थन का कन्वेन्शन, धमाके के लिए बम लगाने से रोकने का अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शन और इसी प्रकार आतंकवादियों की वित्तीय सहयता को रोकने का कन्वेन्शन, इन कन्वेन्शनों का भाग है।

संगीत

सुरक्षा परिषद के स्तर पर भी पहली बार वर्ष 1992 में लाकरबी के मामले में प्रस्ताव क्रमांक 748 प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें आतंकवादी कार्यवाही को अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के विरुद्ध ख़तरा बताया गया, इस प्रकार से मिलते जुलते प्रस्तावों के फिर से पारित किए जाने से इस परिणाम पर पहुंचा जा सकता है कि इस समय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद, विश्व की शांति व सुरक्षा के लिए गंभीर ख़तरा बन चुका है।

वर्ष 1998 में रोम में फौजदारी की अदालत का घोषणापत्र तैयार किए जाने के समय भी कुछ देशों ने आतंकवादी अपराध को उसके विषय में शामिल करने पर बल दिया था किन्तु आतंकवाद की एक संपूर्ण परिभाषा न होने के कारण अमरीका और अरब गठबंधन देशों ने इस विषय पर ध्यान नहीं दिया बल्कि अमरीका ने दूसरे विषय का सहारा लेते हुए यह कह दिया कि अमरीका अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का हिस्सा नहीं बनना चाहता था। इस प्रकार से उसने पूरी स्वतंत्रता के साथ आतंकवादी अपराधों से निपटने को प्राथमिकता दी।

इस आधार पर वर्ष 2001 में पारित होने वाले प्रस्ताव क्रमांक 1368 में बचाव के सामूहिक व व्यक्तिगत अधिकार को पहचानते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र की परिधि में विश्व समुदाय से आतंकवादी कार्यवाहियों पर रोक लगाने के लिए भरसक प्रयास करने की अपील की गयी है।

इस विषय को किसी सीमा तक अमरीका की एकपक्षीय कार्यवाही और इस बारे में सातवें अनुच्छेद के अंतर्गत सुरक्षा परिषद की कार्यवाही का परिणाम मान सकते हैं। वर्ष 2001 में एक अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के रूप में प्रस्ताव क्रमांक 1373 सामने आया और इसमें भी आतंकवाद की परिभाषा को पेश किए बिना, अंतर्राष्ट्रीय अधिकारों में अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को स्वीकार करने के देशों की स्वतंत्रता के मूल अधिकारों पर ध्यान दिए बग़ैर सरकारों पर यह ऐसी ज़िम्मेदारी सौंप दी गयी जो आम तौर पर हो ही नहीं सकती।

हालिया कुछ दश्कों के दौरान अमरीका के कारनामों में आतंकवादी कार्यवाहियां तथा क्षेत्रीय देशों में संगठित आतंकवादी गुटों की वित्तीय व सामरिक सहायता दर्ज है। ईरान में आतंकवादी गुट एमकेओ और पश्चिम समर्थित अन्य आतंकवादी संगठनों के हाथों इस्राईल की गुप्तचर संस्था मोसाद के सहयोग से परमाणु वैज्ञानिकों की हत्याएं, फ़ार्स की खाड़ी में ईरान का यात्री विमान मार गिराया जाना और इस घटना में लगभग तीन सौ महिलाओं और बच्चों को मौत के घाट उतार देना, अमरीका का ऐसा कारनामा है जो कभी भुलाया नहीं जा सकता।

प्रसिद्ध पश्चिमी विचारक नोआम चामस्की एक साक्षात्कार में ड्रोन विमानों से आम नागरिकों और बच्चों की हत्याओं को अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शनों का उल्लंघन मानते हैं किन्तु यह आतंकवाद से संघर्ष के बहाने के रूप में सबसे बड़े आतंकवादी अभियान में परिवर्तित हो गया है जो अमरीकी इतिहास में उभर कर सामने आया है।

नोआम चामस्की ने अमरीका के प्रभाव में रहने वाले तीसरी दुनिया के लैटिन अमरीकी देशों में हत्याओं की ओर संकेत करते हुए कहा कि अंतर्राष्ट्रीय सरकारी हत्याओं में वृद्धि, अमरीका की विदश नीति का परिणाम रहा है।

यहां पर यह सवाल पैदा होता है कि वह देश जिसका इतिहास केवल 239 साल पुराना है और उसके जीवन का 93 प्रतिशत भग विभिन्न देशों में युद्धों में बीतर हो तो क्या आतंकवाद से संघर्ष के कन्वेन्शन पर प्रतिबद्ध रहा जा सकता है?

 

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