मस्जिद और उपासना- 22
हमने मस्जिद की उपयोगिता का उल्लेख किया था।
आपको यह बताया था कि मस्जिदों का दूसरा काम लोगों को शिक्षित करना भी रहा है। यदि ग़ौर करें तो पता चलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने आरंभ से ही लोगों को शिक्षित करने का काम मस्जिदों से ही शुरू किया था। वे मस्जिद में मिंबर से भाषण देते और लोगों को इस्लामी शिक्षाओं से अवगत करवाते थे। मस्जिदों में शिक्षा देने का क्रम पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद भी जारी रहा। यह सिलसिला आज भी बाक़ी है। इस्लामी दृष्टिकोण के हिसाब से मस्जिद को शिक्षा से कभी भी अलग नहीं किया जा सकता।
मस्जिदों में आरंभ से जो गतिविधियां होती रही। उनमे से एक, मस्जिदों में मुसलमानों की उपस्थिति और उनकी सामाजिक समस्याओं का समाधान करना रहा है। यह एक वास्तविकता है कि मस्जिदों में लोगों की उपस्थिति, उन्हें एक-दूसरे की सहायता करने के लिए प्रेरित करती है। पवित्र क़ुरआन के सूरे होजोरात की 10वीं आयत में ईश्वर कहता हैः मोमिन तो आपस में भाई-भाई हैं अतः अपने दो भाइयों के बीच सुलह करा दो और अल्लाह का डर रखो ताकि तुम पर दया की जाए। इस आयत से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मुसलमानों को अपने भाइयों के दुख-दर्द से निश्चेत नहीं रहना चाहिए अर्थात लोगों के साथ सहानुभूति रखनी चाहिए। लोगों के प्रति सहानुभूति या हमदर्दी, ऐसा विषय है जिसे इस्लाम में विशेष महत्व प्राप्त है। ईश्वर पर ईमान के बाद यह दूसरे स्थान पर है। लोगों से सहानुभूति या हमदर्दी को उपासना के समान बताया गया है। इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) का कहना है कि लोगों की परेशानियों को दूर करना और उनके प्रति सहानुभूति, रोज़े और एतेकाफ से कहीं बेहतर है।
दूसरों के प्रति सहानुभूति ऐसी स्थिति में पैदा होती है कि जब व्यक्ति, दूसरों की परेशानियों से अवगत हो और उनके दर्द को समझे। मस्जिद के भीतर नमाज़ियों के बीच इस भावना को बहुत ही स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। इसका मुख्य कारण यह है कि मस्जिद में नमाज़ के लिए एकत्रित होने वाले लोग जहां ईश्वर की उपासना करते हैं वहीं पर वे एक-दूसरे से हालचाल पूछकर उनके बारे में जानकारी रखते हैं। एसे में यदि को नमाज़ी किसी दिन या कुछ दिनों तक मस्जिद में नहीं आता तो दूसरे नमाज़ी उसके बारे में जानकारी हासिल करते हैं कि वह कैसा है। अब यदि उसके साथ कोई समस्या होती है तो वे लोग उसकी समस्या के समाधान की कोशिश करते हैं। इस प्रकार से जहां पर वे अपने धार्मिक कर्तव्य का निर्वाह करते हैं वहीं पर सामाजिक समस्याओं का भी समाधान करते हैं। इस्लाम की दृष्टि में लोगों के साथ सहानुभूति, नैतिक रूप से आवश्यक है। इस्लाम का मानना है कि इस काम से समाज में स्थिरता आती है।
मस्जिद में लोगों की जारी उपस्थिति का एक लाभ यह है कि समाज में उदासीनता या दूसरों की ओर से बेख़बर रहने की भावना समाप्त हो जाती है। यह ऐसी समस्या जिसको वर्तमान समय में विश्व में लगभग हर समाज में महसूस किया जा सकता है। लोगों के बीच आपसी संपर्क के बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि एक मोमिन, दूसरे मोमिन का भाई है। वे वास्तव में एक शरीर की भांति हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे कि शरीर के किसी अंग को जब पीड़ा होती है तो उसका आभास अन्य अंगों को होता है। इन बातों से यह पाठ मिलता है कि हमें एक-दूसरे के बारे में जानकारी रखनी चाहिए और यदि किसी को कोई समस्या है तो उसे समाधान करने की कोशिश की जाए। दूसरों की स्थिति को जानने और ईश्वर की उपासना करने का उपयुक्त स्थल मस्जिद है ऐसे में मस्जिद जाने की आदत डालनी चाहिए।
मस्जिद में पाबंदी से जाने से त्याग की भावना मज़बूत होती है। यह भावना कुछ अवसरों पर अपने शिखर को पहुंचती है। होता यह है कि जब कोई व्यक्ति पाबंदी से मस्जिद जाता है तो वह वहां पर आने वालों से भलिभांति परिचित हो जाता है। ऐसे में किसी समस्या की स्थिति में वह अपने साथियों के साथ सहयोग करने के लिए सदैव तैयार रहता है। इस्लाम के उदयकाल के आरंभिक दौर में मस्जिदें, दूसरों की सहायता का केन्द्र रही हैं। उस काल में मस्जिदों से दूसरों की सहायता की जाती थी।
दूसरों की सहायता के बारे में पवित्र क़ुरआन के एक व्याख्याकार "सालबी" अपनी तफ़सीर की किताब में लिखते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के एक साथी जनाबे अबूज़र कहते हैं कि एक बार मैं पैग़म्बरे इस्लाम (स) के साथ ज़ोहर की नमाज़ पढ़ रहा था। इसी बीच एक भिखारी मस्जिद में आया और उसने लोगों से मदद मांगी। शुरू में तो किसी ने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। इसी बीच हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने नमाज़ की स्थिति में भिखारी की ओर उंगली से संकेत किया जिसमें अंगूठी थी। ऐसा देखकर भिखारी हज़रत अली अलैहिस्सलाम के निकट गया और उसने उनके हाथ से अंगूठी उतार ली। जब पैग़म्बरे इस्लाम (स) नमाज़ पढ चुके तो उन्होंने आसमान की ओर सिर उठाकर कहा कि हे ईश्वर! मेरे भाई मूसा ने आपसे दुआ करते हुए इस प्रकार कहा था कि हे ईश्वर मेरे कामों को आसान कर दे और मेरी ज़बान को खोल दे ताकि मेरी बातों को समझ सकें और मेरे परिवार से हारून को मेरा वज़ीर बना दे। इसके बाद ईश्वरीय संदेश "वही" के माध्यम से उनसे कहा गया कि जल्द ही तुम्हारे भाई के माध्यम से तुम्हारी पीठ को मज़बूत करेंगे और तुम्हारे लिए सलाहकार निर्धारित करेंगे।
इस्लाम के उदयकाल की आरंभिक पांच शताब्दियों तक मिस्र, इस्लामी ज्ञान का केन्द्र रहा है। उस काल में लोग ज्ञान अर्जित करने के उद्देश्य से मिस्र की मस्जिदों का रुख़ करते थे। क़ाहेरा की मस्जिदों में से एक का नाम हाकिम मस्जिद है। इसका संबन्ध फ़ातेमी शासकों से है। इसका निर्माण सन 990 ईसवी में तत्कालीन फ़ातेमी शासक "अलअज़ीज़ बिल्लाह" के आदेश पर कराया गया था। "अलअज़ीज़ बिल्लाह" मिस्र का शासक था जो फ़ातेमी शासकों में पांचवा शासक था। उसी के आदेश पर क़ाहेरा में अलअज़हर विश्वविद्यालय बनाया गया था। "अलअज़ीज़ बिल्लाह" ने ही क़ाहेरा और इस्कंदरिया में पुस्तकालय बनवाए थे। "अलअज़ीज़ बिल्लाह" की मृत्यु के बाद उसके पुत्र हाकिम ने सन 1003 ईसवी में इस मस्जिद का निर्माण कार्य पूरा करवाया। बाद में सन 1013 में मस्जिद में शिलालेख वाला एक मिंबर रखा गया। फिर उसने मस्जिद के ख़र्च के लिए कुछ चीज़े वक़्फ़ कीं। क़ाहेरा की हाकिम मस्जिद का नाम भी इसीलिए हाकिम मस्जिद पड़ा क्योंकि उसी के काल में मस्जिद का निर्माण काम समाप्त हुआ था। क़ाहेरा की हाकिम मस्जिद को कई अन्य नामों से भी पुकारा जाता है जैसे जामेउल ख़ोतबा, जामे अनवार और बाबुल फ़ुतूह आदि।
क़ाहिरा की हाकिम मस्जिद ने इतिहास में बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं। "सुल्तान बीबरेस दोव्वुम" के काल में हाकिम मस्जिद में सुन्नी मुसलमानों के चार प्रमुख पंथों मालेकी, शाफ़ेई, हंबली, हनफ़ी की धार्मिक शिक्षाएं यहां पर दी जाती थीं। कहते हैं कि सलीबी युद्ध के दौरान सन 1212 में फ़्रांसीसियों ने इसे अपनी छावनी के रूप में प्रयोग किया था। 19वीं शताब्दी में हाकिम मस्जिद में पहले इस्लामी संग्रहालय की स्थापना की गई थी।
आठवें फ़ातेमी शासक "अलमुंतसिर बिल्लाह" के शासन काल तक हाकिम मस्जिद, क़ाहेरा नगर की उत्तरी दीवार के बाहर स्थित थी। सन 1087 में हाकिम मस्जिद पर पत्थरों की दीवार बनाकर उसे नगर के भीतर शामिल कर लिया गया। इस मस्जिद की निर्माण शैली, पश्चमी और फ़ातेमी शासन काल की वास्तुकला का मिश्रण है। हाकिम मस्जिद, आयताकार है। इसमें एक हाल है जिसके चारों ओर बरामदे बने हुए हैं। मस्जिद की इमारत का अधिकतर भाग ईंटों से बनाया गया है। इस मस्जिद का बाहरे हिस्से और मीनारों पर पत्थर लगाए गए हैं। हाकिम मस्जिद के सात प्रवेश द्वार हैं। इसका मुख्य प्रवेश द्वारा मस्जिद के उत्तरी क्षेत्र में स्थित है। मस्जिद की हर दिशा में एक प्रवेश द्वारा बनाया गया है। इसका मुख्य द्वार मस्जिद की मेन दीवार से लगभग 6 मीटर पहले है जिसको बहुत ही सुन्दर ढंग से सजाया गया है। मुख्य द्वार के बीच में ऊपर की ओर शिलालेख टंगा हुआ है जिसमें मस्जिद के निर्माणकर्ता और इसके बनाए जाने की तिथि अंकित है।
दसवीं शताब्दी के आरंभ में हाकिम मस्जिद के मुख्य द्वारा के निकट एक गुंबद हुआ करता था जिसका नाम क़ुरक़मास गुंबद था जो बाद में नष्ट हो गया। मस्जिद के प्रांगण के दक्षिणी छोर पर एक बड़ा सा हाल है। इस मस्जिद के मेहराब पर प्लास्टर आफ पैरिस का काम है। इसपर तीन ईंटों के बने गुंबद हैं जिनमें से एक मेहराब के ऊपर बना हुआ है जबकि दो अन्य उसके निकट स्थित हैं। कहते हैं कि आरंभ में यह गुंबद वर्गाकार थे लेकिन बाद में उनमें परिवर्तन करके उन्हें अष्टभुजीय कर दिया गया।
हाकिम मस्जिद के प्रवेश द्वार के दोनों हिस्सों पर दो भव्य मीनारें बनी हुई हैं। जैसाकि हम पिछले कार्यक्रम में आपको बता चुके हैं कि मस्जिदों में मीनारों का चलन 668 ईसवी से आरंभ हुआ है। इससे पहले मीनार का प्रयोग नहीं होता था। सन 45 हिजरी क़मरी में माविया के शासन काल के दौरान इराक़ के तत्कालीन शासक "ज़ियाद बिन उबीह" ने मस्जिद पर मीनार बनवाई थी। उसके बाद से मीनारें बनवाने का चलन आम हो गया।