Feb १७, २०१८ १७:१० Asia/Kolkata

हमने यह कहा था कि 20वीं शताब्दी के अंतिम पचास वर्षों में इस्लामी देशों के नेताओं ने 50 से अधिक देशों में ऐसे संगठन के गठन की ज़रूरत महसूस की जो फूट व मतभेद के स्थान पर एकता व समरसता की दिशा में काम करे।

इस प्रकार के संगठन के गठन की आवश्यकता का आभास उस समय अधिक किया गया जब वर्ष 1969 में मुसलमानों के पहले क़िबले मस्जिदुल अक्सा में आग लगाने की घटना हुई।

इस घृणित कार्य को एक अतिवादी यहूदी ने अंजाम दिया जिस पर समूचे विश्व के मुसलमान क्रोधित हुए। इस्राईल ने मस्जिदुल अक्सा में आग लगाये जाने के लिए ऑस्ट्रेलिया के एक पर्यटक को ज़िम्मेदार बताया। इस्राईली अदालत ने  उस पर दिखावटी मुक़द्दमे के दौरान कहा कि इस पर्यटक ने जिस समय यह अपराध अंजाम दिया वह मानसिक बीमार था और इस्राईल के आंतरिक कानून के अनुसार उसे दंडित नहीं किया जा सकता। यह विषय मुसलमानों के क्रोध का कारण बना और इस्लामी देशों के शासक जनता के विरोधों का सकारात्मक उत्तर देने के प्रयास में थे। साथ ही इस्लामी देशों के शासक मुसलमानों के क्रोध को विश्व वासियों तक पहुंचाना चाहते थे। उस समय सऊदी अरब और मोरक्को उन देशों में से थे जिन्होंने इस विषय की समीक्षा के संबंध में एक बैठक कराने के लिए काफी प्रयास किया और अंततः सितंबर 1969 में मोरक्को की राजधानी रबात में इस्लामी सहकारिता संगठन ओआईसी का गठन हो गया जिसका नाम बाद में बदलकर इस्लामी सहयोग संगठन हो गया।

 

इस्लामी सहयोग संगठन ओआईसी के गठन को लगभग 50 वर्ष होने वाले हैं और इसका विभाजन चार दौर में किया जा सकता है। पहला दौर यह रहा कि किन कारणों से उसका गठन किया गया है। इस दौर की महत्वपूर्ण विशेषता फिलिस्तीन का समर्थन रहा है। ओआईसी का दूसरा दौर इसके तीसरे शिखर सम्मेलन से लेकर तेहरान की मेज़बानी में होने वाले शिखर सम्मेलन का है। वर्ष 1997 में तेहरान की मेज़बानी में ओआईसी का शिखर सम्मेलन हआ था और मतभेदों के कारण इसके सदस्य देशों के मध्य एक तरह की दूरी उत्पन्न हो गयी थी और इसके पहले एकता के लिए जो भूमि प्रशस्त हुई थी उसे नुकसान पहुंचने लगा।

वास्तव में कहा जा सकता है कि इस दौर में इस्लामी देशों के मध्य मतभेदों में वृद्धि हो गयी है और कुछ अवसरों पर उनके मध्य युद्ध तक हो गया। राजनीतिक और सैन्य विवादों के अलावा इस्लामी जगत में वैचारिक व आस्था संबंधी विवाद भी अस्तित्व में आ गये और ओआईसी न केवल इन मतभेदों पर नियंत्रण नहीं कर सका बल्कि कुछ अवसरों पर वह इन मतभेदों के अधिक होने का भी कारण बना। वर्ष 1980 में इराक द्वारा ईरान पर थोपे गये युद्ध और वर्ष 1990 में इराक द्वारा कुवैत पर किये जाने वाले हमले को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।

 

ओआईसी के तीसरे दौर में इस्लामी गणतंत्र ईरान इसका अध्यक्ष बना और ओआईसी के सदस्य देशों के मध्य समरसता का नया वातावरण अस्तित्व में आया। यह अच्छा वातावरण उस स्थिति में अस्तित्व में आया जब सोवियत संघ और पूर्वी ब्लाक का विघटन हो चुका था और अमेरिका विश्व में निर्विवाद प्रतिस्पर्धी के रूप में किसी ऐसे काल्पनिक शत्रु की खोज में था जो पूर्वी ब्लाक का स्थान ले सके और वह इस्लामी जगत के अलावा कोई और नहीं था। यद्यपि इस्लामी गणतंत्र ईरान पूर्वी और पश्चिमी दोनों ब्लाकों का विरोधी था परंतु जो वातावरण विश्व जनमत और मुसलमान राष्ट्रों की सतह पर अस्तित्व में आया था ईरान ने इस्लामी देशों के मध्य संबंधों को मजबूत बनाने के लिए उससे लाभ उठाया। जब वह ओआईसी का अध्यक्ष था तब भी उसने इस्लामी जगत से जुड़ी समस्याओं पर गम्भीर ध्यान दिया और उसने ओआईसी के सदस्य देशों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों और विश्व के दूसरे देशों के साथ अच्छे लेन -देन से इस्लामी जगत की समस्याओं को कम किया और ओआईसी के सदस्य देशों को एक दूसरे से निकट किया। इसी प्रकार ओआईसी के सदस्य देशों के मध्य समरसता की जो सकारात्मक प्रक्रिया आरंभ हुई थी वह तेहरान में होने वाले शिखर सम्मेलन के बाद भी जारी रही। इसी बीच 11 सितंबर वर्ष 2001 की घटना और न्यूयार्क में जुड़वां इमारतों पर हमले का मामला सामने आ गया। यद्यपि इस हमले से इस्लामी जगत के विरुद्ध दुश्मनी का वातावरण अस्तित्व में आ गया परंतु एक प्रकार से वह इस्लामी देशों के मध्य एकता व एक जुटता का कारण भी बना।

 

ओआईसी का चौथा दौर वह है जब वर्ष 2011 में ट्यूनीशिया से इस्लामी जागरुकता आरंभ हुई और तेज़ी से वह दूसरे देशों में फैल गयी और बहुत से वर्चस्ववादी देश उसके प्रति प्रतिक्रिया दिखा रहे हैं और ओआईसी के सदस्य देशों के मध्य और इस्लामी जगत में मतभेदों में बहुत अधिक वृद्धि हो रही है। तुर्की के इस्तांबोल नगर में ओआईसी के सदस्य देशों के नेताओं का जो शिखर सम्मेलन हुआ और उस सम्मेलन की समाप्ति पर जो विज्ञप्ति जारी हुई उसे इसी दिशा में देखा जा सकता है।

 

मिस्री सैनिकों की सहायता से इस देश की लोकतांत्रिक सरकार के समाप्त कर दिये जाने और बहरैन के शीया मुसलमानों के शांतिपूर्ण आंदोलन के दमन के बाद सऊदी अरब ने यमन और सीरिया में होने वाले परिवर्तनों के माध्यम से भी अपने लक्ष्यों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया और अपनी इच्छानुसार कठपुतली सरकारों को सत्ता में लाने की चेष्टा की किन्तु इन देशों के लोगों के दृढ़ संकल्प के सामने वह अपने लक्ष्यों को आगे न बढ़ा सका।

पवित्र नगर मक्का की मिना त्रासदी और शीयों के वरिष्ठ धर्मगुरु शैख़ बाक़िर अन्निम्र को मृत्यु दंड दिये जाने के बाद सऊदी अरब को क्षेत्रीय और इस्लामी जनता और इसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय संगठनों की प्रतिक्रियाओं व आपत्तियों का सामना हुआ। इसी कारण अलग -थलग की स्थिति से निकलने और धर्म व मानवता विरोधी उसने जो अपराध किया है उस पर पर्दा डालने के लिए ईरान से अपने कूटनयिक संबंधों को तोड़ लिया और उसने इस्लामी देशों को लालच व धमकी देकर ओआईसी का 13वां शिखर सम्मेलन तुर्की के इस्तांबोल नगर में करवाया और उसमें भाग लेने वालों को इस्लामी गणतंत्र ईरान के विरुद्ध उकसाने का भरपूर प्रयास किया।

इस शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले कुछ देशों ने ईरान विरोधी नीति अपना कर प्रयास किया कि ईरान पीड़ित फिलिस्तीनी व यमनी जनता का जो समर्थन कर रहा है वह अपनी तर्कसंगत नीति से पीछे हट जाये। रोचक बात यह है कि यह कार्य उन देशों ने किया जो स्वयं दाइश और क्षेत्रीय आतंकवादियों के समर्थक हैं। इसी प्रकार सऊदी अरब में जो मृत्यु दंड दिये गये उसमें बारे में भी कुछ देशों के जो दृष्टिकोण थे सऊदी अरब ने इस्तांबोल शिखर सम्मेलन में उसे भी रद्द कर दिया और जिन लोगों को सऊदी अरब में मृत्युदंड दिया गया उनका संबंध आतंकवाद से बताया गया जबकि मृत्युदंड दिये जाने वालों में वरिष्ठ शीया धर्मगुरू शैख़ बाक़िर अन्निम्र भी शामिल हैं। 

 

हमने सबसे पहले ओआईसी की गतिविधियों को कालों में बांटा और उसके बाद उसके क्रिया- कलापों की समीक्षा की और यह भी बताया कि अगर यह देखना चाहते हैं कि ओआईसी अपने लक्ष्यों में किस सीमा तक सफल रहा है तो हमने कहा था कि उसकी सफलता अपेक्षाकृत रही है। दूसरे शब्दों में यह कि ओआईसी अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में पूर्णरूप से सफल नहीं रहा है। ओआईसी का जो घोषणापत्र है उसमें कहा गया है कि सदस्य देशों की सामूहिक सुरक्षा के लिए प्रयास करना ओआईसी के लक्ष्यों में है जबकि निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस संबंध में ओआईसी के क्रिया- कलाप अधिक अच्छे नहीं हैं क्योंकि बहुत से अवसरों पर ओआईसी के दृष्टिकोण केवल संतुलन स्थापित करने वाले रहे हैं न कि मामले का समाधान करने वाले। इसी प्रकार ओआईसी का एक लक्ष्य यह है कि वह सदस्य देशों के मध्य मतभेदों के शांतिपूर्ण ढंग से समाधान के लिए प्रयास करेगा। इस संबंध में ओआईसी न केवल सफल नहीं रहा बल्कि कुछ अवसरों पर उसका रवइया विवादों के गहन होने और सदस्य देशों के मध्य हिंसा, तना यहां कि युद्ध का कारण बना है।

अगर ओआईसी को अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में ध्यान योग्य सफलता नहीं मिली है तो इसका कारण क्या है? इस्लामी जगत में होने वाले परिवर्तनों की समीक्षा इस बात की सूचक है कि ओआईसी के सदस्य देशों में साहूमिक हितों को प्राथमिकता देने के बजाये राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी गयी। साथ ही ओआईसी के सदस्य देशों के मध्य इस्लाम की एक संयुक्त परिभाषा नहीं है और ये संयुक्त हित हैं जो इस्लामी देशों के मध्य एकता की बुनियाद बन सकते हैं परंतु ओआईसी में इस बात की भी अनदेखी कर दी गयी और इस संगठन में सामूहिक हितों के बजाये राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी गयी और यह चीज़ ओआईसी के सदस्य देशों के मध्य मतभेद व फूट का कारण बनी। तुर्की के इस्तांबोल नगर में ओआईसी के शिखर सम्मेलन में सऊदी अरब के क्रिया- कलापों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।

इसी प्रकार अतिवादी धड़ों का लोगों के ज़ेहनों और इस्लामी देशों के व्यवहार पर हावी हो जाना एक ओर और दूसरी ओर इस्लाम व मुसलमानों के खुले शत्रु इस्राईल के साथ सांठ- गांठ करने हेतु प्रयासों की इस्लामी जगत में फूट पड़ने में प्रभावी व ध्यान योग्य भूमिका है। एतिहासिक समीक्षा इस बात की सूचक है कि जिस समय तर्क व बुद्धि से काम लिया गया और ओआईसी के सिद्धांतों विशेषकर फिलिस्तीन के समर्थन पर बल दिया गया उस समय इस्लामी देशों के मध्य एकता अधिक थी।

फिलिस्तीन की आकांक्षाओं के समर्थन के मुकाबले में दो चीज़ें हैं जो सदैव इस्लामी जगत में एकता व समरसता की दिशा में बाधा हैं। पहली चीज़ तालेबान और दाइश जैसे अतिवादी गुट हैं और दूसरी चीज़ जायोनी शासन से सांठ- गांठ करने वाला पक्ष। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि अगर इन दोनों चीज़ों का मुकाबला किया जाये, इन्हें हाशिये पर डाल दिया जाये ,बुद्धि व तर्क से काम लिया जाये और अतिग्रहणकारी इस्राईल के मुकाबले में प्रतिरोधक का समर्थन किया जाये तो निश्चित रूप से इस्लामी जगत में एकता व समरसता अधिक होगी और इस्लामी देशों के शुभ चिंतक शासकों को यह अवसर भी मिलेगा कि वे अपने अंदर मौजूद संभावनाओं व क्षमताओं का प्रयोग ओआईसी के उन उद्देश्यों को प्राप्त करने में लगायें जिनका उल्लेख उसके घोषणापत्र में किया गया है।

 

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