मार्गदर्शन- 75
इस्लाम के अनुसार समस्त लोगों का दायित्व है कि वे कोई न कोई काम करें और केवल पेट भरने व एश्वर्यपूर्ण जीवन बिताने से परहेज़ करें।
पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम के हवाले से आया है कि जो इंसान काम नहीं करता है और केवल ईश्वर की उपासना करता है तो ईश्वर उसकी दुआ कबूल नहीं करता है।”
ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनई श्रमिक के मूल्य व महत्व के बारे में कहते हैं” अगर समाज में श्रमिक के मूल्य व महत्व को समझा जाये तो समाज में जिन लोगों के पास सुविधायें मौजूद हैं वे स्वयं को श्रमिक का ऋणी समझेंगे।“
श्रमिक वह इंसान है जो अपनी क्षमता का प्रयोग इंसानों की सेवा के लिए करता है और अपनी मेहनत से धन कमाता है। इस्लामी संस्कृति में इस प्रकार के व्यक्ति का बहुत महत्व है। एक बार पैग़म्बरे इस्लाम ने श्रमिक के हाथ पर पड़े घट्ठे को चूमा और फरमाया” नरक की आग इन हाथों को नहीं जलायेगी।“
जी हां श्रमिक के हाथ उसे स्वर्ग में ले जायेंगे और यह उसके लिए बहुत बड़ी शुभ सूचना है। इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम फरमाते हैं” अमीरूल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम कुदाल और फावड़ा स्वयं चलाते थे और ज़मीन को सही करते थे और उन्होंने अपने हाथों की कमाई से बहुत से दासों को स्वतंत्र कराया।“
पैग़म्बरे इस्लाम श्रमिक को विशेष सम्मान की दृष्टि से देखते थे और उनका मानना था कि हर इंसान एक विशेष कार्य में अधिक सफल हो सकता है। पैग़म्बरे इस्लाम इस संबंध में फरमाते हैं” तुम सब कार्य व प्रयास करो पंरतु इस बात को ध्यान में रखो कि हर इंसान को एक कार्य के लिए पैदा किया गया है और उसे वह सरलता से अंजाम देगा। श्रमिक का भी दायित्व है कि जो कार्य उसके हवाले किया गया है उसे अच्छी तरह अंजाम दे और उसमें विलम्ब न करे।“
जब महान धार्मिक हस्तियां गर्व के साथ कार्य व प्रयास करती थीं तो किस प्रकार एक मुसलमान कार्य व प्रयास के प्रति लापरवाह रह सकता है? अगर समाज में कार्य व प्रयास की संस्कृति को मजबूत किया जाये और श्रमिक के मूल्य व महत्व की रक्षा की जाये तो इस प्रकार के विचार के परिणाम में समाज में रचनात्मकता परवान चढ़ेगी और समाज में विकास और प्रगति होगी।
ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई अपने एक भाषण में श्रमिक को समाज का एक महत्वपूर्ण वर्ग बताते हैं और उनका मानना है कि श्रमिक महत्वपूर्ण तत्व हैं जो देश को निर्भर बना सकते हैं। वरिष्ठ नेता विशेषकर किसानों और उद्दमियों को मजबूत भुजा बताते हैं जो अपने अनवरत व सतत प्रयास से देश को आवश्यकतामुक्त बनाते हैं।
श्रमिकों के प्रयासों के दृष्टिगत उनके अधिकारों की सुरक्षा आवश्यक है। इस्लाम धर्म में श्रमिक और काम कराने वालों के लिए बड़े सूक्ष्म कानून बनाये गये हैं ताकि श्रमिक और काम कराने वालों के अधिकारों का हनन न हो। इस्लाम में श्रमिक और काम कराने वालों के अधिकारों पर इस तरह से ध्यान दिया गया है कि कार्य के किसी भी कानून में इस सीमा तक महत्व नहीं दिया गया है। जैसाकि पैग़म्बरे इस्लाम ने फरमाया है” काम कराने वाले पर श्रमिक का यह अधिकार है कि वह वांछित ढंग से श्रमिक के खाने और कपड़े को पूरा करे और उसकी क्षमता से अधिक उससे काम न कराये।“
पैग़म्बरे इस्लाम एक अन्य स्थान पर फरमाते हैं” कार्य कराने वाले का दायित्व है कि श्रमिक का पसीना सूखने से पहले उसकी मज़दूरी दे दे।“
पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम रिसालये हुक़ूक़ नाम की अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में श्रमिक और उससे काम लेने वाले के अधिकारों के बारे में फरमाते हैं” काम लेने वाले को चाहिये कि वह श्रमिक की गलतियों की अनदेखी कर दे और उसे उसकी पूरी मज़दूरी दे। उससे अहंकारी व्यवहार न करे बल्कि उससे न्यायपूर्ण व्यवहार करे और मजदूरी तय करने में न्याय से काम ले।
सुलैमान जाफरी कहते हैं” मैं इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के साथ उनके घर गया। इमाम ने देखा कि उनके दास फूल लगाने में व्यस्त हैं और उनके साथ एक काला व्यक्ति भी काम कर रहा है। इमाम ने पूछा यह कौन है? तो उनके दासों ने कहा कि उसे हम लोग लाए हैं ताकि वह हम लोगों की सहायता करे। इमाम ने फरमाया क्या इसकी मजदूरी तय की है ? उन सबने कहा कि नहीं। हम जो कुछ भी उसे देंगे वह राज़ी है। इस पर इमाम बहुत नाराज़ हुए। मैं आगे गया और इमाम से कहा मैं आप पर न्यौछावर हो जाऊं! क्यों नाराज़ हो गये? इमाम ने फरमाया मैंने इन लोगों को इस प्रकार के कार्य से कई बार मना किया है कि किसी से भी काम नहीं कराना किन्तु यह कि पहले उसकी मज़दूरी तय कर दो। उसके बाद इमाम ने फरमाया हे सुलैमान! जान लो कि अगर किसी मज़दूर ने मज़दूरी तय किये बिना तुम्हारे लिये कोई कार्य किया तो आम तौर पर एसा होता है कि अगर तुम उसकी मज़दूरी के तीन गुना भी उसे दे दो तो वह सोचेगा कि कम दिया है परंतु अगर मजदूरी तय करके उतना ही दो जितने पर तय किये हो भी वह तुम्हारा आभार व्यक्त करेगा और अगर थोड़ा बढ़ाकर दो तो समझेगा कि बहुत दिये हो।
जी हां मजदूर के बारे में ईश्वरीय धर्म इस्लाम का एक सुन्दर कानून यह है कि कार्य शुरु करने से पहले मजदूरी तय कर दी जाये। इस्लाम ने मजदूरी तय किये बिना काम कराने से मना किया है। इसी प्रकार इस्लाम ने जल्द से जल्द मजदूर की मज़दूरी देने की सिफारिश की है।
इस्लाम ने मज़दूर के संबंध में जिन बातों पर ध्यान दिया है उनमें से एक यह है कि मजदूर को कष्ट न पहुंचाया जाये। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने रिसालये हुकूक में काम कराने वाले के अधिकार के बारे में फरमाते हैं” तुम्हारे अधीन काम करने वालों का तुम पर यह दायित्व बनता है कि जान लो उनकी कमज़ोरी कारण बनी है कि तुम उनसे काम करा रहे हो तो उनके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करो और उनके साथ कृपालु पिता की भांति रहो। उनकी अज्ञानता व गलती की अनदेखी कर दो और उन्हें सज़ा देने में उतावलेपन से काम न लो और इस पर ईश्वर का आभार व्यक्त करो कि उसने यह अवसर तुम्हें प्रदान किया है। इमाम ने एक अन्य स्थान पर मज़दूर को कष्ट देने से मना किया है और उसके अधिकारों का सम्मान करने का आदेश दिया है। इमाम फरमाते हैं जो तुम्हारा कार्य अंजाम देता है उसका तुम पर अधिकार यह है कि तुम जान लो कि ईश्वर ने उसे पैदा किया है और वास्तव में वह भी तुम्हारे माता- पिता यानी आदम व हव्वा की संतान है तुम उसके मालिक और पैदा करने वाले नहीं हो और उसकी आजीविका भी तुम्हारे हाथ में नहीं है। तो तुम उसके साथ भलाई करो और उसे कष्ट मत दो।
अगर कोई काम कराने वाला मज़दूर की मज़दूरी नहीं देता है या मज़दूरी देते समय उस पर अत्याचार करता है तो पैग़म्बरे इस्लाम इस कार्य को महापाप मानते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं जो भी मज़दूर की मजदूरी देने में अत्चार करेगा ईश्वर उसके भले कार्यों को खत्म कर देगा और उसे स्वर्ग की सुगंध से वंचित कर देगा।“
ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता का मानना है कि चाहे पूंजीवादी व्यवस्था हो या मार्क्सवादी इनमें काम कराने वाले और काम करने वाले का संबंध शत्रुतापूर्ण है जबकि इस्लाम में यह संबंध में मित्रता और दोस्ती का है। वरिष्ठ नेता इस संबंध में कहते हैं” इस्लाम की दृष्टि सहकारिता की दृष्टि है। यानी काम करने वाला और काम कराने वाला दो तत्व हैं जब दोनों एक साथ मिल जाते हैं तो कार्य अस्तित्व में आता है। मार्क्सवादी दृष्टिकोण के खिलाफ कि हर वह हर चीज़ को विरोधाभास की दृष्टि से देखती थी और ईश्वर की कृपा से अब दुनिया से उसका अंत हो चुका है। इस्लाम की दृष्टि सहयोग की दृष्टि है। काम करने वाले और काम कराने वाले दोनों एक दूसरे के विरोधी होने के बजाये एक दूसरे के सहयोगी हैं और उन दोनों के मिल जाने से तीसरी चीज़ अस्तित्व में आती है। यह इस्लाम की दृष्टि है, प्राकृतिक दृष्टि, ईश्वरीय दृष्टि, सृष्टि का कानून है, दुनिया की समस्त चीज़ों में यही कानून है। प्राकृतिक कानून से लेकर राजनीतिक, ऐतिहासिक, आर्थिक और ग़ैर आर्थिक। इस्लाम का दृष्टिकोण मार्क्सवादी विचार धारा के खिलाफ है। उसका दृष्टिकोण सहयोग व समरसता है। काम करने वाला और काम कराने वाले के बारे में भी यही बात है। यह दोनों एसे तत्व हैं जिन्हें एक दूसरे के हाथ में हाथ देना चाहिये ताकि कार्य अस्तित्व में आये ताकि उत्पादन अस्तित्व में आये। मज़दूर काम कराने वाले के बिना कुछ नहीं कर सकता। काम कराने वाला भी मज़दूर के बिना कुछ नहीं कर सकता। ये दोनों जब एक साथ होते हैं तो उनके मध्य एक स्वस्थ व मानवीय संबंध स्थापित होता है उस समय उत्पादन में विस्तार का वातावरण बनता है। भौतिक विकास व प्रगति के अलावा आध्यात्म भी अस्तित्व में आता है। यह हमारा दृष्टिकोण है। हम काम कराने वाले को न तो मार्क्सवाद की दृष्टि से देखते हैं और न ही उसे मालिक व शासक समझते हैं। जब दोनों एक दूसरे के साथ सहकारिता करते हैं तो वास्तव में शरीफ होते हैं और यह कार्य का आधार है। सबको चाहिये कि इस दिशा में काम करें।