Apr ०७, २०१८ १६:१७ Asia/Kolkata

इराक़ में चौथे संसदीय चुनाव 12 मई को आयोजित होंगे।

इन चुनावों के महत्व के दृष्टिगत हम इस संबंध में विदेशी पक्षों के रुख़ और लक्ष्यों की समीक्षा करेंगे।

इराक़ मध्यपूर्व के उन देशों में से है जिनके परिवर्तन क्षेत्र और क्षेत्र से बाहर की शक्तियों के लिए काफ़ी महत्व रखते हैं। इसका सबसे अहम कारण यह है कि इराक़ कभी सबसे सशक्त अरब देशों में से एक था और अब भी मध्यपूर्व की क्षेत्रीय शक्ति में उसकी अहम भूमिका है। इस आधार पर क्षेत्र और क्षेत्र से बाहर की शक्तियां बड़ी संवेदनशीलता के साथ इराक़ के संसदीय चुनाव पर नज़र रखे हुए हैं और इस बात की कोशिश कर रही हैं कि उनके दृष्टिगत दलों व धड़ों को चुनाव में अधिक से अधिक सीटें हासिल हो जाएं। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि इराक़ के संसदीय चुनाव इराक़ के अलावा सऊदी अरब, अमरीका, ज़ायोनी शासन, तुर्की और ईरान के लिए बहुत अहम हैं।

सऊदी अरब और अमरीका इराक़ के मामले में ऐसे अहम खिलाड़ी हैं जो इस देश की अधिकांश जनता की इच्छा के ख़िलाफ़ आगे बढ़ रहे हैं। 21वीं सदी के आरंभ में सद्दाम की तानाशाही सरकार को गिराने के कारण सऊदी अरब अमरीका से बहुत अप्रसन्न था क्योंकि इससे इराक़ के शिया सत्ता में आ गए लेकिन पिछले कुछ बरसों से रियाज़ और वाशिंग्टन के बीच इराक़ में सांप्रदायिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सहयोग और तालमेल देखा जा रहा है।

सऊदी अरब और अमरीका कुछ दलों व गुटों विशेष कर सुन्नी व उन शिया गुटों का सीधा आर्थिक व राजनैतिक समर्थन कर रहे हैं जो ईरान और इराक़ के स्वयं सेवी बल से मतभेद रखते हैं। इस प्रकार अमरीका व सऊदी अरब मई में होने वाले संसदीय चुनाव पर प्रभाव डालने की कोशिश में हैं। अगर इराक़ के आगामी संसदीय चुनाव में अमरीका व सऊदी अरब के लक्ष्यों की बात की जाए तो उनके मुख्य लक्ष्य कुछ इस प्रकार हैं।

सबसे पहला लक्ष्य कुर्दों और शियों के बीच मतभेद भड़काना है ताकि उनके बीच गठबंधन न हो सके। वर्ष 2010 में शियों व कुर्दों के बीच गठजोड़ ने नूरी मालेकी की सरकार के गठन में काफ़ी सहायता की थी। इस समय रियाज़ और वाशिंग्टन की कोशिश है कि बग़दाद और अरबील के बीच जो मतभेद पाए जाते हैं उनसे लाभ उठा कर वर्ष 2010 के संसदीय चुनावों जैसी स्थिति पुनः उत्पन्न न होने दें।

अमरीका व सऊदी अरब का एक और लक्ष्य जातीय व धार्मिक नारों की जगह राष्ट्रवादी नारों को देना है। इस संबंध में वे बास पार्टी के बचे खुचे तत्वों से मदद ले रहे हैं जबकि बास पार्टी, इराक़ मे प्रतिबंधित है। इन दोनों देशों का एक और लक्ष्य इराक़ के शिया मुसलमानों विशेष कर क़बायलियों के बीच यह मानसिकता पैदा करना है कि ईरान ही इराक़ में संकटों की जड़ है और स्वयं सेवी बल ईरान की सहायता से इन संकटों को हवा दे रहा है।

 

ईरान में रणनैतिक मामलों के विशेषज्ञ हसन शुकरी पुर कहते हैं कि सऊदी अरब और अमरीका की कोशिश है कि संसदीय चुनाव में इयाद अल्लावी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय गठजोड़ को जिताने का मार्ग प्रशस्त करें। उनके अनुसार इस गठजोड़ में 36 दल शामिल हैं जिनमें सेक्यूलर शिया, सलीम अलजबूरी के नेतृत्व वाली पार्टी और इसी तरह सालेह मुतलक इत्यादि शामिल हैं। अमरीका व सऊदी अरब की कोशिश है कि इस गठजोड़ को सर्वाधिक सीटें मिल जाएं और वह सरकार बना ले। इसके लिए वे सुन्नी मुसलमानों को बड़ी संख्या में मतदान करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

शुकरी पुर के अनुसार अमरीका व सऊदी अरब चाहते हैं कि राष्ट्रीय गठजोड़ के सत्ता में न आने की स्थिति में, अन्नस्र गठजोड़ सबसे ज़्यादा सीटें मिलें जिसका नेतृत्व हैदर अलएबादी करते हैं। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अमरीका व सऊदी अरब नूरी मालेकी व हैदर अलएबादी के बीच मतभेद पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। अमरीका के लिए सबसे बुरा विकल्प यह है कि नूरी मालेकी या हादी अलआमेरी के नेतृत्व वाला गठजोड़ सत्ता में विजयी हो जाए।

इराक़ के संसदीय चुनाव के संबंध में रियाज़ और वॉशिंग्टन का एक अन्य लक्ष्य यह है कि अगर राष्ट्रीय गठजोड़ या इराक़ी सुन्नी जीत कर सरकार बनाने में सफल नहीं होते हैं तो कम से कम वे संसद में एक मज़बूत विपक्ष के रूप में मौजूद रहें, इस प्रकार से कि स्वयं सेवी बल को ग़ैर क़ानूनी बता कर क्षेत्र में एक अन्य हिज़्बुल्लाह को अस्तित्व में आने से रोक दें।

अगर इराक़ के संसदीय चुनाव में इस्राईल की दिलचस्पी की बात की जाए तो यद्यपि ज़ायोनी शासन केवल कुर्दिस्तान के क्षेत्र में कुछ प्रभाव रखता है और इराक़ के अन्य क्षेत्रों में उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं है लेकिन उसने भी इन चुनावों पर प्रभाव डालने के लिए अपनी गतिविधियां बढ़ा दी हैं। इराक़ में ज़ायोनी शासन के दो लक्ष्य हैं, एक तो यह कि वह शिया सरकार या शियों के राजनैतिक दलों व गुटों को मज़बूत न होने दे क्योंकि तेल अवीव की दृष्टि में इराक़ की शिया सरकार और इस्लामी गणतंत्र ईरान के बीच, जो इस्राईल का सबसे बड़ा दुश्मन है, निकट संपर्क पाया जाता है और अगर बग़दाद में शिया सरकार सत्ता में आती है तो इससे इराक़ में तेहरान के प्रभाव में वृद्धि होगी।

इस्राईल का दूसरा लक्ष्य यह है कि इराक़ के कुछ सेक्यूलर गुटों और इसी तरह कुछ सुन्नी धड़ों के समर्थन के माध्यम से आगामी संसद में एक मज़बूत विपक्ष का गठन हो जाए ताकि वह क्षेत्र में हश्दुश्शाबी के माध्यम से प्रतिरोध के मोर्चे को सशक्त न होने दे। इसी परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार की रिपोर्टें भी मिली हैं कि इराक़ की प्रतिबंधित बास पार्टी के कुछ तत्वों ने, जो देश के कुछ राजनैतिक दलों से भी संपर्क रखते हैं, जॉर्डन में इस्राईली अधिकारियों से मुलाक़ात की है। इसी के साथ हाल ही में इस्राईल में एक सम्मेलन भी आयोजित हुआ है जिसमें इराक़ के विपक्षी दलों के समर्थन पर बल दिया गया है।

अगर हम तुर्की की बात करें तो उसने सद्दाम के बाद इराक़ में आयोजित होने वाले सभी चुनावों में हमेशा दो लक्ष्यों को दृष्टिगत रखा है, एक अन्कारा के निकटवर्ती कुर्द व सुन्नी धड़ों का समर्थन और दूसरे शिया सरकार को मज़बूत होने से रोकना। ऐसा प्रतीत होता है कि इराक़ में मई 2018 के संसदीय चुनाव में तुर्की का वह प्रभाव नहीं होगा क्योंकि सितम्बर 2017 में इराक़ी कुर्दिस्तान की पृथकता के लिए होने वाले जनमत संग्रह के तुर्की द्वारा विरोध के कारण कुर्द धड़ों में अब इस्तंबोल की वह पकड़ नहीं रह गई है और इराक़ के राजनैतिक ढांचे में भी उसका स्थान कमज़ोर पड़ चुका है लेकिन इसके बावजूद ऐसा प्रतीत होता है कि तुर्की आगामी संसदीय चुनाव में इराक़ के सुन्नी मुसलमानों से जुड़े राजनैतिक दलों व धड़ों का समर्थन करेगा ताकि अगली संसद में कम से कम एक मज़बूत विपक्ष गठित हो सके जिसके माध्यम से आवश्यक अवसरों पर सरकार पर दबाव डाला जा सके।

इराक़ के संबंध में इस्लामी गणतंत्र ईरान की सबसे अहम रणनीति यह है कि इस देश में शांति, सुरक्षा व स्थिरता रहे। इसी आधार पर वह दाइशी आतंकवाद से संघर्ष में इराक़ की सरकार का सबसे बड़ा समर्थक व सहायक था। इसी के साथ उसने इराक़ से कुर्दिस्तान की पृथकता का खुल कर विरोध किया था। इस आधार पर ईरान पहले चरण में यह चाहता है कि इराक़ में शांत वातावरण में संसदीय चुनाव आयोजित हों और इराक़ी जनता भविष्य निर्धारण के अपने अधिकार का एक बार फिर अनुभव करे।

इस्लामी गणतंत्र ईरान इराक़ के आगामी संसदीय चुनाव में अपने क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों व बाहरी शक्तियों की चालों को समझते हुए विशेष कर स्वयं सेवी बल के बारे में उनके कुप्रचारों को दृष्टिगत रखते हुए स्वयं सेवी बल से संबंधित राजनैतिक दलों व गुटों के चुनाव में भाग लेने पर बल देता है क्योंकि तेहरान के विचार में किसी भी क़ानूनी गुट, दल या धड़े को चुनाव में भाग लेने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। यद्यपि क़ानून की सरकार, अलफ़तह और अन्नस्र जैसे गठजोड़ की सरकार बनने पर भी, तेहरान को कोई क्षति नहीं पहुंचेगी क्योंकि इनके और ईरान के बीच मज़बूत धार्मिक रिश्ते हैं लेकिन ईरान, इराक़ी जनता के मतों का सम्मान करता है चाहे वे किसी को भी विजयी बनाए। बग़दाद में ईरान के राजदूत ईरज मस्जिदी ने कहा है कि ईरान, इराक़ में प्रजातंत्र और स्वतंत्र चुनावों के आयोजन का समर्थन करते हुए एक बार फिर जनता के मतों के आधार पर सामने आने वाले चुनाव परिणामों का सम्मान करता है।

अंतिम बात, जिस पर इराक़ के मामलों के टीकाकार मुस्तफ़ा हबीब ने बल दिया है, यह है कि मई 2018 में इराक़ में होने वाले संसदीय चुनाव, बाहरी शक्तियों के लिए भी अत्यंत प्रतिस्पर्धी चुनाव हैं क्योंकि सद्दाम शासन की समाप्ति के बाद पहली बार चुनावों में राजनैतिक हितों को सुरक्षा हितों पर प्राथमिकता प्राप्त है। इस आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि नए इराक़ के चौथे संसदीय चुनाव में इस देश के राजनैतिक दलों व गुटों के बीच प्रतिस्पर्धा के साथ क्षेत्रीय व बाहरी शक्तियों के बीच भी खुल कर टकराव दिखाई देगा। ज़ायोनी शासन के साथ अमरीका व सऊदी अरब जैसे देश इराक़ में एक अनुपयोगी संसद और कमज़ोर सरकार का गठन चाहते हैं जबकि इस्लामी गणतंत्र ईरान, इराक़ में एक उपयोगी संसद और मज़बूत सरकार का समर्थन कर रहा है।

 

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