Apr १०, २०१८ १५:५८ Asia/Kolkata

श्रोताओ साप्ताहिक कार्यक्रम मार्ग दर्शन की एक अन्य कड़ी के साथ आपकी सेवा में हाज़िर हैं। आज हमें सांस्कृतिक धावे व हमले के बारे में चर्चा करेंगे। ,,,, सलाम स्वीकार करेंगे।

किसी भी देश के विकास और उसकी प्रगति में उस देश की संस्कृति की विशेष भूमिका होती है।  इसी विषय के दृष्टिगत समाजों की संस्कृतियों की सुरक्षा बहुत अहम विषय है।  यदि इसको सुरक्षित नहीं रखा गया तो फिर परिस्थितियां बहुत ख़राब हो जाती हैं अतः एसे में सरकारों का दायित्व बनता है कि वे पूरी होशियारी, दूरदर्शिता और सूझबूझ के साथ देश की संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए समाज का सही मार्ग की ओर मार्गदर्शन करे। 

 

मानव समाज एक-दूसरे से दूर नहीं होते बल्कि एक-दूसरे के निकट होते हैं।  जिस प्रकार से मनुष्य एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं ठीक उसी प्रकार समाज भी दूसरों से प्रभावित होते हैं।  वह चीज़ जो किसी स्थान को दूसरे स्थान पर वरीयता देता है वह केवल उसकी भौगोलिक स्थिति ही नहीं बल्कि वहां की स्थानीय संस्कृति भी है।  विश्व के हर क्षेत्र की अपनी भाषा और परंपराएं होती हैं।  स्थानीय परंपराओं की सुरक्षा वहां के लोगों को मान-सम्मान प्रदान करती हैं।  राष्ट्रीय संस्कृति, व्यक्ति को राष्ट्रीय पहचान देती हैं।  किसी भी राष्ट्र की संस्कृति जितनी मज़बूत होगी उस राष्ट्र की राष्ट्रीय पहचान भी उसी अनुपात में सुदृढ़ होगी।  ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता के अनुसार संस्कृति, किसी राष्ट्र की पहचान होती है तथा सांस्कृतिक मूल्य ही किसी संस्कृति की आत्मा हैं।

आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई का मानना है कि किसी समाज की संस्कृति का विषय, उस समाज का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है।  उनका कहना है कि संस्कृति, किसी समाज का आधार और उस समाज की बुद्धिमानी का परिचायक है।  अगर किसी समाज की संस्कृति, वास्तव में सही संस्कृति होगी तो वह समाज आर्थिक विकास तथा वास्तविक स्वतंत्रता के मार्ग में आगे बढ़ेगा।  वरिष्ठ नेता के अनुसार सही संस्कृति, समाज के आर्थिक, राजनैतिक और वैज्ञानिक विकास की भूमिका प्रशस्त करती है।  एसा समाज अपनी आकांक्षाओं को प्राप्त करने में सफल रहता है।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने पश्चिमी युवाओं को लिखे पत्र में राष्ट्रों की स्थानीय संस्कृति की सुन्दरता की ओर संकेत किया था।  अपने इस पत्र में उन्होंने उस षडयंत्र का पर्दाफाश किया था जिसके अन्तर्गत अन्य संस्कृतियों को नष्ट करने के प्रयास किये जा रहे हैं।  वरिष्ठ नेता ने लिखा था कि संसार के बहुत से देश अपनी संस्कृतियों पर गर्व करते हैं।  यह एसी संस्कृतियां हैं जिन्होंने शताब्दियों तक समाजों का उचित ढंग से पोषण किया है।  इस्लामी जगत इससे अपवाद नहीं है।  वर्तमान समय में पश्चिम, अत्याधुनिक उपकरणों के माध्यम से पूरे संसार की संस्कृति को अपनी संस्कृति में बदलने के प्रयास कर रहा है।  आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि संसार की अन्य संस्कृतियों का अपमान करने और पश्चिमी संस्कृति को विश्व की दूसरी संस्कृतियों पर थोपने के काम को मैं एक प्रकार की मूक हिंसा मानता हूं।  वे कहते हैं कि यह बहुत ही हानिकारक और ख़तरनाक चाल है।

वरिष्ठ नेता आगे कहते हैं कि समृद्ध संस्कृतियोंऔर वैरानिक विकास तथा वास्तविक स्वतंत्रता के मार्ग में आगे बढ़ेग का अपमान और उनके स्थान पर एसी संस्कृति को लाने का प्रयास एसी स्थिति में किया जा रहा है कि जब थोपी जाने वाली संस्कृति, निष्कासित की जाने वाली संस्कृति से कहीं बेहतर है।  उदाहरण स्वरूप हिंसा और निरंकुश आज़ादी, पश्चिमी संस्कृति के दो मूल तत्व हैं।  इन तत्वों से बनी संस्कृति स्वीकारयोग्य नहीं हो सकती।  अब यहां पर सवाल यह पैदा होता है कि यदि हम एक भ्रष्ट आयातित संस्कृति को स्वीकार नहीं करना चाहते तो इसमें हमारा गुनाह क्या है?

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता, संस्कृतियों के मध्य संपर्क के विरोधी नहीं हैं।  जैसाकि हम आरंभ में बता चुके हैं कि मानव समाज, एक-दूसरे से दूर स्थित टापुओं की भांति नहीं हैं बल्कि वे एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं।  आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनई, पश्चिमी युवाओं को लिखे अपने पत्र में संस्कृतियों के सकारात्मक और नकारात्मक संपर्कों की ओर संकेत करते हैं।  संस्कृतियों के बीच सकारात्मक संपर्क यदि परस्पर सम्मान और स्वभाविक परिस्थितियों में होता है तो उनमे विकास होता है किंतु विपरीत परिस्थिति में यह हानिकारिक सिद्ध होते हैं।  वे इस प्रकार के संपर्कों की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि इसके परिणाम को आतंकवादी गुटों के अस्तित्व के रूप में देखा जा सकता है।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आगे लिखते हैं कि बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि दाइश जैसे दुष्ट गुटों का अस्तित्व, इसी प्रकार की भ्रष्ट आयातित संस्कृतियों की देन है।  पुष्ट एतिहासिक प्रमाणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि साम्राज्यवाद ने किस प्रकार क्षेत्र में एक बद्दू क़बीले के बीच अतिवाद के बीज बोए।  अन्यथा यह कैसे संभव था कि वह धर्म जो मानवता प्रेमी हो और जो एक जीव की हत्या को पूरी मानवता की हत्या के समान मानता हो उसी के नाम पर दाइश जैसा नीच गुट, लोगों की हत्याएं करे।  अर्थात यह सब साम्राज्यवाद की देन है।

वास्तव में संस्कृतियों के बीच संपर्क, संस्कृतियों की समृद्धता का भी कारण बनता है और यह उनके विनाश का भी कारण बन सकता है।  एसे में देशों को अपनी सांस्कृतिक समृद्धता को अधिक महत्व देना चाहिए और उसको सुरक्षित रखने में हर संभव प्रयास करते रहने चाहिए।  अपनी राष्ट्रीय संस्कृति की सुरक्षा करना और उसके समृद्ध बनाने के लिए प्रयास करना, प्रशंसनीय काम है।  हालांकि उसका पतन इतना ख़तरनाक होता है कि उसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं है।  इस बारे में इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि अगर किसी देश की संस्कृति पतन का शिकार होती है और वह अपनी सांस्कृतिक पहचान को खो बैठती है तो एसे में आयात की गई प्रगति से कोई लाभ होने वाला नहीं है।  इस प्रकार की प्रगति, उस देश की खोई हुई पहचान को पुनः वापस दिला नहीं सकती।

आत्मनिर्भरता और आत्म विश्वास वे विशेषताए हैं जिनकी भूमिका, राष्ट्रीय पहचान में बहुत महत्वपूर्ण है।  यदि बच्चों के प्रशिक्षण में आरंभ से इन विशेषताओं की ओर ध्यान दिया जाए तो फिर अन्य संस्कृतियों के साथ टकराव की स्थिति में ऐसी संस्कृतियों को बहुत कम क्षति पहुंचती है।  जैसाकि आप जानते हैं कि संस्कृति एक बहुत व्यापक विषय है।  यह एसे पुराने बहुत बड़े पेड़ की भांति है जिसकी बहुत सी शाखाएं हैं और उसपर बेहिसाब पत्ते हैं।  अब अगर बाग़बान उचित समय पर उसकी निराई और गुड़ाई करता रहेगा तो फिर उसकी शाखें मज़बूत बनी रहेंगी और पेड़ पर स्वादिष्ट फल आएंगे।  एसे पेड़ से दूसरे भी लाभान्वित होते हैं किंतु एसा न करने की स्थिति में पेड़ को भी क्षति पहुंचती है और दूसरे भी नुक़सान उठाते हैं।  संस्कृति भी कुछ एसी ही है।  उसे देखरेख की ज़रूरत होती है।  यदि उसकी देखरेख न की जाए तो हर समय उसके ख़राब होने का ख़तरा बना रहता है।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता का मानना है कि संस्कृति का उचित ढंग से प्रबंधन किया जाना चाहिए।  उनका मानना है कि किसी भी देश की संस्कृति के उचित प्रबंधन में सरकारों और उससे संबन्धित संगठनों की विशेष भूमिका होती है।  वे कहते हैं कि संस्कृति के बारे में सरकारों का व्यवहार, बहुत ही आत्मीय होना चाहिए।  वरिष्ठ नेता का कहना है कि सरकारों का व्यवहार, मेहनती और हितैषी बाग़बान की भांति होना चाहिए।

संस्कृतियों की उचित ढंग से देखरेख न करने के कारण अराजकता पैदा हो जाती है।  आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि संस्कृति के भी नियम और उसूल होने चाहिए।  जिस प्रकार से किसी भी देश का स्वास्थ्य मंत्रालय इस बात की कदापि अनुमति नहीं देगा कि देश के लिए एक्सपाएर दवाएं आयात न की जाएं और सड़ी हुई खाद्ध सामग्री को किसी भी स्थिति में देश के भीतर न लाया जाए।  इसी प्रकार से सांस्कृतिक क्षेत्र में भी हमें यह देखना होगा कि ऐसी बुरी बातें समाज में आम न होने पाएं जो लोगों के दिल व दिमाग़ को परेशान करें।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता इस बात को बिल्कुल भी पसंद नहीं करते कि संस्कृति के मामले में कड़ा व्यवहार अपनाया जाए।  वे मानते हैं कि संस्कृति के प्रबंन्ध के संबन्ध में बहुत ही धैर्यपूर्ण ढंग से व्यवहार किया जाना चाहिए।  आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि सरकारों का दायित्व बनता है कि वे पूरी होशियारी, दूरदर्शिता और सूझबूझ के साथ समाज का सही मार्ग की ओर मार्गदर्शन करे। इसके मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करे।  इसके विकास में सहयोग करे।  इस बारे में लोगों विशेषकर युवाओं की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए।  वे कहते हैं कि हम न तो इस बात के पक्ष में हैं कि इतनी छूट दी जाए कि अराजकता जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाए और न ही इतनी सख़्ती की जाए कि लोग अपने मन की बात कहने से भी बचें बल्कि वास्तविकता को समझकर उसी हिसाब से क़दम उठाया जाए।

 

 

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