Apr १६, २०१८ १६:२१ Asia/Kolkata

जवानी, किसी भी इंसान के जीवन का सबसे अच्छा, मूल्यवान और उज्जवल काल होता है।

युवा वह होता है जिसमें अत्यधिक उत्साह व जोश होता है और वह अपनी पहचान और अपनी पहचान के निर्माण के लिए विभिन्न प्रकार के अनुभवों के मार्ग पर क़दम रखता है। अब अगर युवा अपनी क्षमताओं और प्राकृतिक शक्तियों पर ध्यान दे और जवानी के मूल्यवान रत्न को सही मार्ग पर रखे तो वह अपने जीवन के आधारों को मज़बूत बना लेता है और परिपूर्णता को स्वयं से कुछ ही क़दम के फ़ासले पर महसूस करने लगता है।

अलबत्ता वह युवा जो अपनी जवानी के मूल्य को न समझे और उज्जवल अवसरों व संभावनाओं को वासनाओं और अनुचित इच्छाओं के कारण तबाह कर ले वह निश्चित रूप से आगे चल कर गहरे दुखों में ग्रस्त हो जाएगा। हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि दो चीज़ें हैं जिनका मूल्य सिर्फ़ वही समझता है जो उन्हें खो देता है, एक जवानी है और दूसरी स्वास्थ्य व सुरक्षा है।

इस्लाम की जीवनदायक शिक्षाओं के आधार पर इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई का मानना है कि जिस तरह इंसान को खाने, पीने, उद्योग, विज्ञान, प्रगति और जीवन के आनंदों की ज़रूरत है उसी तरह उसे ईमान, पवित्रता, दिल के प्रकाश और ईश्वरीय शिक्षाओं में डूबने की भी ज़रूरत है। इसी तरह उसे शिष्टाचार और उच्च नैतिकताओं की भी आवश्यकता होती है। उनकी दृष्टि में जवानी का वैभवपूर्ण काल उस उपजाऊ ज़मीन की तरह है जिसमें नैतिक गुणों के बीज बोए जा सकते हैं और मान्यताओं व गुणों की फ़सल उगने पर उसकी रक्षा की जा सकती है। उनका कहना है कि संसार के भौतिकतावादियों ने पिछले डेढ़ सौ बरसों के दौरान इस बात की बहुत कोशिश की है कि मानवता से अध्यात्म को ख़त्म कर दें और अध्यात्म की ओर रुझान को कम कर दें। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि पश्चिम के युवाओं की वर्तमान स्थिति इन्हीं कुप्रयासों का परिणाम है और सभी युवाओं को अध्यात्म की ओर लौटना चाहिए।

युवाकाल में धार्मिक मान्यताओं और शिक्षाओं को समझने का बड़ा महत्व है। अगर जवानी में धार्मिक शिक्षाओं के पालन का सामर्थ्य प्राप्त हो जाए तो उसका परिणाम यह निकलता है कि पवित्रता और ईश्वर से भय युवा के अस्तित्व में रच बस जाता है और फिर यह पवित्रता व ईमान बुढ़ापे तक उसे पथभ्रष्टता से सुरक्षित रखता है। पैग़म्बरे इस्लाम व उनके परिजनों ने जवानी में अपनी आत्मा को शुद्ध करने और शिष्टाचार के पालन पर अत्यधिक बल दिया है। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि बुढ़ापा, मानवीय, नैतिक और आत्मिक दृष्टि से जवानी में किए गए कामों का ही क्रम है।

वे कहते हैं कि इस बात की कोई संभावना नहीं है कि कोई इंसान जवानी में वासना और भौतिकता में डूबा रहे, ईश्वर को भूला रहे, ईश्वर और उसके प्रिय बंदों से प्रेम के बारे में न सोचे, अच्छे लोगों के साथ न रहना चाहिए बल्कि सिर्फ़ निश्चेतना में अपना समय बिता दे और फिर बूढ़ा होने के बाद कहे कि अब मैं अच्छा इंसान और मोमिन बन जाऊंगा। यह ठीक है कि ईश्वर किसी को भी नहीं नकारता, सत्ता बरस तक पाप करने वाले को भी ईमान के रास्ते पर आने का अवसर देता है लेकिन वह अवसर ऐसा नहीं हो सकता कि वह इंसान बड़ी तेज़ी से प्रगति करे और उसका अस्तित्व प्रकाशमान हो जाए। अब यह नहीं हो सकता। यह तभी हो सकता है जब आपने जवानी में सही ढंग से काम किया हो, जवानी में ही शुरुआत कर दी हो, इसी स्थिति में बुढ़ापे से लाभ उठाया जा सकता है।

वास्तव में ईश्वर की पहचान, उपासना, संघर्ष, पवित्रता और पापों से दूरी, लोगों के व्यक्तित्व की परिपूर्णता की मुख्य आवश्यकताएं हैं और इसकी जड़ें युवाकाल में ही मज़बूत होती हैं। जवानी में ही आत्म निर्माण और आत्म प्रशिक्षण के अहम व प्रभावी क़दम उठाए जा सकते हैं। आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई युवाओं को संबोधित करते हुए कहते हैं। आप लोग हमेशा सतर्क रहें, अपनी धार्मिक शिक्षाओं व क्रांतिकारी विचारों को अधिक से अधिक मज़बूत बनाइये। जैसा कि कुछ हदीसों और दुआओं में आया है, अपने आपको इस्पात का टुकड़ा बना लीजिए जिसमें कोई भी चीज़ घुस नहीं सकती, दुश्मन के मुक़ाबले में मज़बूत इच्छा शक्ति के स्वामी बनिए। अगर आप अपनी इस पहचान को अपने लिए पूरी तरह सुरक्षित रखना चाहते हैं तो अपने दिलों में धार्मिक शिक्षाओं के आधारों को मज़बूत बनाइये।

जवानी में धार्मिक शिक्षाएं अर्जित करने का एक मार्ग क़ुरआने मजीद की तिलावत और उसकी प्रकाशमयी आयतों के बारे में सोच-विचार है। हदीसों में कहा गया है कि जो जवानी में क़ुरआने मजीद पढ़ता है तो क़ुरआन उसकी खाल और मांस में मिल जाता है। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई युवाओं पर क़ुरआने मजीद के स्थायी प्रभावों के बारे में कहते हैं। मैं अपने प्रिय युवाओं को नसीहत करता हूं कि वे क़ुरआन के साथ अधिक से अधिक जुड़े रहें। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कथन है कि जो भी क़ुरआन के साथ बैठता है उसमें अवश्य ही कुछ वृद्धि या कमी होती है, मार्गदर्शन में वृद्धि और दिल के अंधकार में कमी। आप जब भी क़ुरआने मजीद के साथ उठते या बैठते हैं, आपकी अज्ञानता के पर्दों में से एक हट जाता है और प्रकाश के सोतों में से एक सोता आपके हृदय के अंदर फूटने लगता है।

अगर किसी को क़ुरआने मजीद से जुड़ाव और उसकी गहरी शिक्षाओं से लाभ मिलने लगे तो उसे सच्चा कल्याण प्राप्त हो गया है। इस प्रकार के व्यक्ति का उदाहरण पैग़म्बरे इस्लाम व उनके परिजनों के जीवन में देखा जा सकता है। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम कहते हैं कि अगर पूरब और पश्चिम के सभी इंसान मर जाएं और धरती पर कोई भी जीव बाक़ी न बचे और केवल मैं अकेला रह जाऊं तो अगर क़ुरआने मजीद मेरे साथ हो तो मुझे अकेलेपन से बिलकुल भी घबराहट नहीं होगी।

युवाकाल में ईश्वर की पहचान प्राप्त करने का एक अन्य मार्ग प्रार्थना और नमाज़ की सभाओं में भाग लेना है। इस प्रकार की सभाओं का एक उत्तम जलवा, एतेकाफ़ है। वैसे तो एतेकाफ़ किसी भी महीने के तीन, पांच, सात या नौ दिनों में किया जा सकता है लेकिन हिजरी क़मरी कैलेंडर के रजब महीने की 13वीं, 14वीं और 15वीं तारीख़ को एतेकाफ़ करने का बहुत पुण्य है। इन तीन दिनों में लोग मस्जिदों में जाते हैं और रोज़ा रखते हैं। उन्हें इन तीन दिनों में मस्जिद में ही रहना होता है। इस दौरान वे नमाज़, दुआ और ईश्वर से प्रार्थना में व्यस्त रहते हैं। एतेकाफ़ करने वालों के लिए ये तीन दिन अध्यात्म से परिपूर्ण होते हैं।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई एतेकाफ़ के संस्कार में युवाओं की उपस्थिति से बहुत ख़ुश होते हैं और उन युवाओं को देख कर उन्हें विशेष प्रसन्नता हासिल होती है। वे कहते हैं कि वास्तव में यह कितना सुंदर दृश्य होता है कि हमारे युवाओं की एक बड़ी संख्या, वासनाओं और भौतिकता में घिरे हुए संसार के अन्य युवाओं के विपरीत दिन में रोज़ा रखते हैं और रात में उपासना करते हैं, किसी मस्जिद में जाते हैं और एतेकाफ़ करते हैं।

एतेकाफ़ के दिनों पर भी विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई एतेकाफ़ करने वालों को नसीहत करते हैं कि इन तीन दिनों में अपने आप पर नियंत्रण का अभ्यास करें। इस अर्थ में कि बात करने में, खाना खाने में, मेल जोल में, किताब पढ़ने में, सोचने में और भविष्य के लिए कार्यक्रम बनाने में इस बात का ध्यान रखें की ईश्वर की प्रसन्नता को अपनी आंतरिक इच्छाओं पर प्राथमिकता दें और अपनी इच्छाओं के आगे नतमस्तक न हों। वरिष्ठ नेता के अनुसार इन तीन दिनों में इन चीज़ों का अभ्यास, स्वयं एतेकाफ़ करने वालों के लिए एक अच्छा पाठ हो सकता है।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई इसी तरह एतेकाफ़ के दिनों में उपासना को केवल दुआ व नमाज़ तक सीमित नहीं समझते बल्कि उनका मानना है कि एतेकाफ़ करने वालों से अच्छा, मैत्रिपूर्ण और भाईचारे वाला संपर्क, उनसे सीखना, उन्हें सिखाना और इस्लामी मेलजोल ये सब वे अवसर हैं जो एतेकाफ़ में हासिल हो सकते हैं और ये सभी उपासना की श्रेणी में आते हैं। आयतुल्लाह ख़ामेनेई इस बात पर बल देते हैं कि हमारे युवा जितने अधिक धर्म परायण होंगे, ईश्वर को दृष्टिगत रखेंगे और ईश्वर से अपनी ज़रूरतों का आभास करेंगे, उतना ही उनके कर्म, व्यवहार और विचार सुरक्षित रहेंगे और समाज उनसे अधिक से अधिक लाभ उठाएगा।

 

 

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