Apr २४, २०१८ १६:१५ Asia/Kolkata

वैसे तो चरित्र निर्माण के लिए सदैव प्रयासरत रहना चाहिए किंतु इसका सबसे अच्छा काल किशोर अवस्था है।

यह वह काल है जब मनुष्य मानवीय विशेषताओं को अपने भीतर सजा सकता है।  इस बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने सुपुत्र इमाम हसन को की जाने वाली वसीयत में कहते हैं कि किशोर का दिल, उस धरती जैसा है जिसपर अभी खेती नहीं की गई है अतः इसमें जो भी बो दिया जाएगा वह निकलेगा।  इससे पहले कि तुम्हारी आयु बढ़े और दिल कठोर हो स्वयं को शिक्षा और प्रशिक्षण में व्यस्त करो।  मेरे बेटे देखो, सबसे अच्छी विशेषता तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय है।

अगर ग़ौर किया जाए तो पता चलेगा कि जवानी एक ईश्वरीय विभूति है।  युवा अवस्था के काल में उनके भीतर बहुत अधिक उत्साह भरा होता है।  इसका आरंभ किशोरावस्था से होता है।  इस आयु में आतंरिक इच्छाओं पर नियंत्रण बहुत कठिन होता है।  एसे में सही मार्ग से भटकने की संभावना बहुत अधिक होती है। किशोरावस्था में आत्म निर्माण के प्रयास और ईश्वरीय भय से किशोर, बुराइयों से सुरक्षित हो जाता है।  इस आयु में तक़वा, एक ढाल की भांति है जो युवा को पापों से सुरक्षित रखता है।  वे किशोर या युवा जो आरंभ से भी नैतिकता की ओर ध्यान देते हुए आत्म निर्माण में लग जाते हैं वे नाना प्रकार की बुराइयों से सुरक्षित रहते हैं।

एक बार पैग़म्बर इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) ने एक जवान को देखकर यह दुआ की थी।  हे ईश्वर, इस जवान को जवानी से लाभान्वित होने दे।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) की इस दुआ से पता चलता है कि हर जवान अपनी जवानी से लाभान्वित नहीं हो पाता।  जवानी से लाभ उठाने का अर्थ क्या है? जवानी से लाभ उठाने का अर्थ अगर आप यह समझते हैं कि आंतरिक इच्छाओं की पूर्ति की जाए और अनैतिक मार्ग अपनाया जाए तो यह बहुत बड़ी भूल है।  जवानी से लाभ उठाने का अर्थ यह है कि युवा, ईश्वर के आदेशों का पालन करे।  अगर कोई जवान अपनी जवानी में ईश्वरीय आदेशों का पालन करता है तो उसको इसका बहुत अधिक पुण्य मिलेगा।  इसके लिए आदर्श के रूप में जिसे पेश किया गया है वे हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम हैं।

यहां पर शायद आपके मन में ही यह सवाल आए कि ईश्वर की उपासना का अर्थ यह है कि मनुष्य केवल नमाज़-रोज़ा करे और समाज से दूर हो जाए।  इस बारे में इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि ईश्वर की उपासना केवल नमाज़ तक सीमित नहीं है।  जीवन के विस्तृत क्षेत्र में ईश्वर की उपासना के कई अन्य पर्याय मिलते हैं जिनमें से एक, पापों से दूरी है अर्थात स्वय को पापों से बचाना।  यहां पर इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने के बहुत से फ़ाएदे हैं।  चरित्र निर्माण में इसकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है।  वे कहते हैं कि पढ़ना, मेहनत-मज़दूरी करना, हलाल रोज़ी कमाना, दूसरों की सहायता करना और इसी प्रकार के काम ईश्वर की उपासना की सूचि में आते हैं।  वे कहते हैं कि आत्म निर्माण उस समय मूल्यवान है जब व्यर्थ समय बर्बाद न किया जाए और पापों से बचते हुए एक सक्रिय जीवन गुज़ारा जाए।

पवित्र क़ुरआन ने जवानों के लिए जो आदर्श पेश किया है वह हज़रत यूसुफ़ का है।  वे बहुत ही सुन्दर थे।  उनकी सुन्दरता का हर ओर चर्चा थी।  एक बार जब एक सुन्दर महिला ने उन्हें पाप करने के लिए प्रेरित किया तो उन्होंने उसकी बात नहीं मानी और वे उस स्थान से चले गए।  ऐसे में उन्होंने ईश्वर की शरण अपनाई।  हज़रत यूसुफ़ की घटना के बारे में आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि वे वास्तव में ईश्वरीय भय रखने वालों के सादर्श थे।  वे कहते हैं कि आप सोचिए कि एक युवक जो बहुत सुन्दर है उसे ऐक सुन्दर महिला, पाप के लिए प्रेरित करती है किंतु जवानी में भी वह एसे प्रस्ताव को ठुकरा देता है।  वास्तव में यह बहुत ही प्रशंसनीय काम है।

इस घटना में दो तरह से भूमिका निभाई जा सकती है।  एक तो यह है कि जवानी के जोश में अनैतिक काम कर गुज़रे और पापों का हार अपने गले में डाल ले।  दूसरी भूमिका यह है कि ईश्वर की प्रशंसा के लिए मनुष्य स्वयं पर नियंत्रण करे और पापों से दूर रहे।  इस प्रकार से मनुष्य, आध्यात्मिक दृष्टि से उच्च स्थान प्राप्त करता है।  यौन इच्छाओं का विरोध करने का पहला फल यह होता है कि पहली इच्छा का विरोध करने से दूसरी यौन इच्छा के विरोध की शक्ति पैदा होती है।  हज़रत यूसुफ़ स्वयं भी बहुत सुन्दर थे।  उनके पास धन-दौलत भी थी और उनकी ख्याति भी बहुत दूर-दूर तक थी किंतु उन्होंने यौन इच्छा का विरोध करके ईश्वर के निकट बहुत उच्च स्थान प्राप्त किया अर्थात पैग़म्बरी।  इससे पता चलता है कि आंतरिक इच्छाओं के दमन करने के कारण ईश्वर अपने बंदे को पुरस्कार से सम्मानित करता है।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि आत्म निर्माण के लिए जिस विशेषता की सबसे अधिक आवश्यकता होती है वह है निष्ठा।  निष्ठा ऐसी विशेषता है जिसके बिना आत्म निर्माण लगभग असंभव है।  वे कहते हैं कि निष्ठा का अर्थ यह है कि मनुष्य जो काम भी करे वह केवल ईश्वर से निकटता के उद्देश्य से करे।  निष्ठा वास्तव में यह है कि मनुष्य अपने मन में एक प्रकार का प्रण कर लेता है कि वह जो कुछ भी करेगा वह केवल ईश्वर के लिए ही करेगा दूसरों के लिए नहीं।  उसकी इच्छा होती है कि वह ईश्वर के ध्यान को आकर्षित करने के लिए काम करे न कि दूसरों के ध्यान को।

निष्ठा के विषय की चर्चा करते समय यह बात सामने आती है कि कुछ लोग अपने अच्छे कामों को दूसरों पर जताते हैं।  वरिष्ठ नेता कहते हैं कि यदि अच्छा काम छिपकर किया जाए और उसे छिपाया जाए तो उसके अपने अलग प्रभाव होते हैं।  नेक काम को छिपाने से उसका महत्व बढ़ता है।  यहां पर इस बात का उल्लेख अनिवार्य है कि कभी-कभी अच्छे काम दिखाकर करने चाहिए ताकि दूसरे भी उसे करने के लिए आगे आएं।  हालांकि इतना सब होने के बावजूद अच्छे कामों को छिपाने का महत्व अलग है और उसका प्रभाव भी इसी प्रकार है।

इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) कहते हैं कि हर चीज़ की एक वास्तविकता होती है।  अच्छे कामों को छिपाना ही उसकी वास्तविकता है।  वे कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति निष्ठा के उस वास्तविक अर्थ को उस समय तक प्राप्त नहीं कर सकता जबतक कि वह अच्छे काम को न छिपाए।  आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि निष्ठापूर्ण काम की सबसे बड़ी अच्छाई यह है कि निश्चित रूप में इसका परिणाम निकलता है।  वे कहते हैं कि निष्ठापूर्ण काम करने की आदत किशोरावस्था से ही डालनी चाहिए क्योंकि उस काल में जो आदत पड़ जाती है वह आयु के अंतिम समय तक बाक़ी रह सकती है।

ईरान की इस्लामी क्रांति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी, युवाओं को संबोधित करते हुए कहते हैं कि जवानो, हाथ पर हाथ रखकर बुढ़ापे का इन्तेज़ार न करो।  हम बूढे हो चुके हैं और हमको बुढ़ापे की समस्याओं के बारे में अच्छी तरह से पता है।  तुम लोग जबतक जवान हो उस समय तक बहुत कुछ कर सकते हो।  तुम्हारे भीतर जबतक जवानी है, शक्ति है, उल्लास है तुम आंतरिक इच्छाओं का दमन कर सकते हो।  वे कहते हैं कि अगर तुमने किशोरावस्था से ही आत्म निर्माण के बारे में काम करना आरंभ नहीं किया तो फिर बुढ़ापे में कुछ कर नहीं पाओगे।  उस समय सिवाए पछतावे के कुछ और नहीं होगा।  युवा का मन कोमल होता है।  उसके भीतर पाप करने की इच्छा, अपेक्षाकृत में कम होती है।  जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है हृदय के भीतर पाप की जड़े मज़बूत होती जाती हैं।  बाद में एक समय एसा भी आ जाता है कि जब उन्हें उखाड़ फेकना असंभव हो जाता है।

आत्म निर्माण ऐसा काम है जिसका आरंभ किशोरावस्था से हो जाना चाहिए।  बाद में इसे निर्बाध रूप में बढ़ते रहना चाहिए।  आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि मोमिन को सदैव आत्म निरीक्षण करना चाहिए।  जो इस बात का ध्यान रखता है वह पापों से दूर रहता है।  वह ईश्वर के मार्ग पर पूरी दृढ़ता के साथ आगे बढ़ता है।  इस्लामी आदेशों के पालन से यह रास्ता आसान होता जाता है।  बहुत अफ़सोस की बात है कि कोई इस दुनिया में आए, पापों से बचने की कोशिश न करे, आत्म निर्माण न करे और जैसा आया है वैसा ही वापस चला जाए।

 

 

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