Jun १९, २०१८ १५:५९ Asia/Kolkata

महिलाएं मानव समाज का एक महत्वपूर्ण भाग हैं।

समाज के अन्य सदस्यों की भांति उनके भी अधिकार हैं, चाहे वे परिवार में हों या समाज में। इस्लाम ने ईश्वर के आदेशानुसार बहुत ही बारीकी और न्यायसंगत रूप से उनके अधिकारों का निर्धारण किया है। लेकिन यहां यह सवाल उठ सकता है कि फिर क्यों इस्लामी देशों में महिलाओं के अधिकारों की अनदेखी की जाती है। इसके जवाब में कहा जा सकता है कि यह इस्लाम की समस्या नहीं है, बल्कि उन लोगों की समस्या है जो धार्मिक होने के दावा तो करते हैं लेकिन व्यवहारिक रूप से धर्म का पालन नहीं करते।

इस्लामी देशों में अगर सरकारें और न्यायपालिका धर्म को आधार बनाएं तो किसी भी स्थिति में महिलाओं के अधिकारों का हनन नहीं होगा। यही कारण है कि सऊदी अरब में कि जिसे सबसे अधिक इस्लाम धर्म की शिक्षाओं के पालन का दावा है, व्यवहारिक रूप से सबसे अधिक महिलाएं अपने अधिकारों से वंचित हैं। पश्चिमी देशें में भी कि जहां नियमों और अधिकारों के लिहाज़ से महिलाओं और पुरुषों के लिए एक समान स्थिति उत्पन्न करने की कोशिश की जा रही है और महिलाओं और पुरुषों के बीच के प्राकृतिक अंतर की उपेक्षा की जा रही है, महिलाओं के अधिकार सुरक्षित नहीं हैं। पश्चिमी समाज और परिवारों में महिलाओं के अधिकारों के हनन के आंकड़ें चिंताजनक हैं।

इतिहास पर नज़र डालने से पता चलता है कि यूरोप में 17वीं शताब्दी से मानवाधिकारों की चर्चा शुरू हुई। 17वीं एवं 18वीं सदी के लेखकों एवं विचारकों ने अजीबों ग़रीब स्रोतों को आधार बनाकर मौलिक मानवाधिकारों के बारे में अपने विचार पेश किए। जॉन जेक रूसो, वॉल्टर और मोंटेस्कियू जैसे लेखक एवं विचारक इस श्रेणी में आते हैं। मानवाधिकारों के समर्थकों के विचारों के प्रकाशन का पहला परिणाम यह निकला कि शासन और जनता के बीच एक लम्बी खींचतान शुरू हो गई, आख़िरकार 1688 में एक घोषणापत्र के अनुसार, जनता अपने कुछ सामाजिक एवं राजनीतिक अधिकारों को पेश करने में सफल हो गई।  

दुनिया में प्रसिद्ध मानवाधिकार घोषणापत्र फ़्रांस की क्रांति के बाद सामने आया। लेकिन बीसवीं शताब्दी की शुरूआत तक जो कुछ भी मानवाधिकारों के संबंध में कहा गया वह सरकारों के मुक़ाबले में जनता के अधिकारों के बारे में अधिक था या समाज के वंचित वर्ग से संबंधित था। बीसवीं शताब्दी में पहली बार पुरुषों के मुक़ाबले में महिला अधिकारों की बात हुई। अमरीका की संयुक्त सरकारों ने अठारवीं सदी में आम मानवाधिकारों को स्वीकार करने के साथ ही 1920 में पुरुषों और महिलाओं के समान राजनीतिक अधिकारों का क़ानून पारित किया, इसी प्रकार 20वीं सदी में फ़्रांस ने भी ऐसा ही किया।

इस प्रकार, बीसवीं सदी में पूरी दुनिया में अधिकारों और ज़िम्मेदारियों के लिहाज़ से पुरुषों और महिलाओं के संबंधों में बड़ा परिवर्तन आया। 19वीं और 20वीं शताब्दियों में मशीनों के संकट और कामगारों विशेषकर महिलाओं के बड़े पैमाने पर बेरोज़गार हो जाने के कारण, महिला अधिकारों पर ध्यान दिया गया।

 

आलबर माले इतिहास नामक किताब के छठे वॉल्यूम में लिखा है, जबतक सरकारें कामगारों और उनके मालिकों की स्थिति पर ध्यान नहीं देती थीं, पूंजीपति जो चाहते थे वह करते थे। कारख़ानों के मालिक बहुत ही कम मज़दूरी पर छोटे बच्चों और महिलाओं से काम लेते थे, अधिक काम करने के कारण वे बीमार हो जाते थे और जवानी में ही उनकी मौत हो जाती थी।

वरिष्ठ नेता पश्चिम में महिला अधिकारों के हनन के बारे में कहते हैं, पश्चिमी जगत और यूरोपीय देश जो महिला अधिकारों का दावा करते हैं, वह सब झूठ है, पिछली सदी के प्रारम्भिक दशकों तक महिलाओं को वोट का अधिकार नहीं था, बल्कि उन्हें चयन का और मालिक होने का अधिकार भी नहीं था। इसका मतलब है कि महिला को विरासत में मिलने वाली चीज़ का मालिक होने का अधिकार भी नहीं था। उसकी संपत्ति पति के अधिकार में होती थी। इस्लाम में महिलाओं की बैयत, स्वामित्व, राजनीतिक एवं सामाजिक स्तर पर सक्रियता थी। महिलाएं पैग़म्बरे इस्लाम (स) की बैयत करती थीं। पैग़म्बरे इस्लाम ने नहीं कहा कि पुरुष आएं और बैयत करें और जो कुछ उनका मत हो महिलाएं उसे स्वीकार करें, बल्कि उन्होंने फ़रमाया महिलाएं भी बैयत करें, उन्हें भी इस व्यवस्था को स्वीकार करने में भूमिका अदा करनी चाहिए। इस क्षेत्र में पश्चिमी दुनिया इस्लाम से 1300 साल पीछे है, इसके बावजूद यह सब बड़े बड़े दावे।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता का मानना है कि महिलाओं को समझने और उनके साथ बर्ताव में पश्चिमी लोगों ने अतिशयोक्ति से काम लिया है। हालांकि पश्चिम में महिलाओं और पुरुषों के अधिकारों के लिए बड़े बड़े दावे किए जाते हैं, लेकिन महिलाओं के बारे में पश्चिमी दृष्टिकोण, वास्तव में असामनता पर आधारित है। वरिष्ठ नेता का मानना है कि महिलाओं के बारे में पश्चिमी दृष्टिकोण को उनके नारों से नहीं समझा जा सकता, इसलिए कि यह घटिया नारे हैं और उनका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है। वे कहते हैं कि इस संबंध में हमें पश्चिमी साहित्य के अध्ययन की ज़रूरत है।

वरिष्ठ नेता कि जो ख़ुद कई किताबों के लेखक हैं और यूरोप में लिखी जाने वाली किताबों पर उनकी नज़र है, कहते हैं, जो लोग यूरोपीय साहित्य, शायरी, नाविल और कहानियों से अवगत हैं, वे जानते हैं कि यूरोपीय संस्कृतिक में मध्यकालीन और उसके बाद से वर्तमान सदी तक महिलाएं दूसरे दर्जे की नागरिक थीं, हालांकि इसके विपरीत चाहे जितने दावे किए जायें। आप शेक्सपीयर के मशहूर ड्रामों को देखिए कि उनमें और अन्य पश्चिमी साहित्यों में महिलाओं के लिए किस भाषा का प्रोयग किया गया है और उनके बारे में कैसा दृष्टिकोण पेश किया गया है। पश्चिमी साहित्य में पुरुष महिला का मालिक होता है, इस संस्कृति की झलक आज भी देखी जा सकती है।

 

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता के अनुसार, आज की दुनिया में भी पश्चिम में जब कोई महिला किसी पुरुष से शादी करती है और पति के घर जाती है, तो उसे अपने पति का सरनेम अपनाना पड़ता है। महिला का सरनेम सिर्फ़ उसी वक़्त तक बाक़ी रहता है, जब तक वह शादी नहीं करती है। वरिष्ठ नेता का कहना है कि यह पश्चिमी सभ्यता है। लेकिन ईरान में ऐसा नहीं था और अब भी नहीं है। शादी के बाद भी महिला की अपनी पहचान बाक़ी रहती है।

वरिष्ठ नेता के अनुसार, पश्चिम में महिला अधिकारों की उपेक्षा के अन्य उदाहरणों में से उनकी संपत्ति का मामला है। वरिष्ठ नेता इस संदर्भ में अध्ययन के बाद कहते हैं, यूरोपीय संस्कृति में, महिला जब शादी करती है और पति के घर जाती है तो न केवल उसके शरीर पर पति का अधिकार होता है, बल्कि उसकी संपत्ति पर भी कि जो उसे विरासत में मिली है। यह ऐसी वास्तविकता है कि जिसका पश्चिमी लोग इनकार नहीं कर सकते। पश्चिमी संस्कृति में जब एक पत्नी अपने पति के घर जाती थी तो पति उसके जीवन का भी मालिक होता था, इसीलिए आप पश्चिमी कहानियों और शायरी में देखेंगे कि पति ने किसी नैतिक मतभेद के कारण, पत्नी की हत्या कर दी और किसी ने उसकी निंदा भी नहीं की। बेटी को अपने पिता के घर पर भी किसी तरह के चयन का अधिकार नहीं था।

 

हालांकि इस समय भी पश्चिमी संस्कृति में महिलाओं और पुरुषों के रिश्तों में किसी हद तक आज़ादी थी, लेकिन शादी के निर्णय और पति के चुनाव का अधिकार केवल पिता को था। जिस ड्रामे का उल्लेख किया गया उसमें भी ऐसा ही है, उसमें एक लड़की है जिसे शादी के लिए मजबूर किया जाता है, एक महिला है जिसे उसका पति क़त्ल कर देता है, एक परिवार है जिसमें महिला पर बहुत दबाव है इत्यादि। यह पश्चिमी साहित्य है। बीसवीं सदी के मध्य तक यही स्थिति जारी रही। हालांकि 19वीं सदी के अंत में महिलाओं की आज़ादी के कई आंदोलन शुरू हो चुके थे।                      

 

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