Jul ०२, २०१८ १२:२७ Asia/Kolkata

इस्लाम की दृष्टि में महिला को सीमित नहीं बतायागया है। 

वह न केवल परिवार में बल्कि मानव जीवन से संबन्धित विभिन्न गतिविधियों में भी सार्थक भूमिका निभा सकती है।  इस्लामी शिक्षाओं में महिला ऐसा सम्मानीय प्राणी है जो हर क्षेत्र में क़ानूनी अधिकारों की स्वामी है।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई का प्रयास रहता है कि वे अपने विभिन्न भाषणों में बहुत ही विनम्र अंदाज़ में महिला के उच्च स्थान और महत्व को समझाएं।  वे महिलाओं को संबोधित करते हुए कहते हैं कि मैं आपसे जो बात कहने जा रहा हूं आप कृप्या उसे ध्यान पूर्वक सुनिए।  वे कहते हैं कि इस्लामी दृष्टि से महिला को समझने के लिए तीन दृष्टिकोणों से देखना होगा।

 

पहला दृष्टिकोण यह है कि उसे आध्यात्मिक परिपूर्णता के मार्ग में एक इंसान के रूप में देखा जाए क्योंकि इस दृष्टि से महिला और पुरूष में कोई अंतर नहीं है।  दूसरा दृष्टिकोण यह है कि इस्लामी दृष्टिकोण से महिला के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में सक्रिय रहने में कोई रुकवाट नहीं है।  तीसरा दृष्टिकोण यह है कि महिला, परिवार का एक सदस्य है और यह दृष्टिकोण सबसे अधिक महत्व रखता है।  वरिष्ठ नेता कहते हैं कि इस्लाम में पुरूष को यह अनुमति नहीं दी गई है कि वह महिला पर अत्याचार करते हुए उससे ज़बरदस्ती काम ले।  यदि हम यह चाहें कि हम इस्लामी दृष्टि से महिलाओं के अधिकारों से अवगत हो तो हमको इन तीन क्षेत्रों में महिलाओं की विस्तृत भूमिका की समीक्षा करनी होगी।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता के अनुसार महिला, वह इन्सान है जो आध्यात्मिक परिपूर्णता की ओर अग्रसर है।  इतिहास में एसी कई महिलाओं का उल्लेख मिलता है जिन्होंने बड़े-बड़े काम किये हैं।  पवित्र क़ुरआन ने भी कुछ एसी महिलाओं का उल्लेख किया है जो समस्त महिलाओं के लिए आदर्श हैं।  जब हम पवित्र क़ुरआन का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि जब ईश्वर चाहता है कि किसी नेक या आदर्श व्यक्ति का उदाहरण पेश करे तो वह कुछ महिलाओं का उल्लेख करता है जैसे आसिया और मरयम।  यह एसी महिलाए हैं जिनका उदाहरण उनके काल में या तो नहीं था या फिर बहुत ही कम था।

 

इन दो महान महिलाओं के बारे में आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि संसार के आरंभ के समय से न जाने कितने महापुरूष आए और चले गए लेकिन जब ईश्वर चाहता है कि उनकी मिसाल पेश करे तो वे फ़िरऔन की पत्नी आसिया और हज़रत ईसा की मां, मरयम का उदाहरण पेश करता है।  सूरे तहरीम की 11वीं और 12 वीं आयतों का हवाला देते हुए वरिष्ठ नेता इस महत्वपूर्ण बिंदु की ओर संकेत करते हैं कि इस्लाम की दृष्टि में पुरूष होना या महिला होना कोई विशेष बात नहीं है और परिपुर्णता के मार्ग में बढ़ने में इसका कोई महत्व नहीं है।

इन दोनों आयतों के बारे में अन्य बिंदु जिस की ओर वरिष्ठ नेता संकेत करते हैं वह यह है कि इन दो महिलाओं ने अपने जीवन में जो भूमिकाएं निभाई हैं उसी के कारण वे इस स्थान पर पहुंची हैं।  आसिया, फ़िरऔन की पत्नी थीं।  उन्होंने हज़रत मूसा जैसे महान पैग़म्बर का लालन-पालन किया था।  इस मार्ग में उन्होंने बहुत सी कठिनाईयां सहन की थीं।  इन्ही बातों के कारण ईश्वर के निकट उनका बहुत अधिक महत्व था।  आसिया वे महिला थीं जो हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम पर ईमान लाईं।  वे जब ईमान लाईं और सही रास्ते को पहचना तो फिर उन्होंने हर प्रकार के आराम को त्याग दिया।  एसे में राज-दरबार के आराम और विलासितापूर्ण जीवन उनकी दृष्टि में अर्थहीन हो चुके थे।  वह महल जिसमें वह रह रही थीं उनके लिए अपना आकर्षण खो चुका था।  एसे में आसिया ने ईश्वर से कहा कि हे ईशवर! स्वर्ग में मेरे लिए तू एक घर बना।  मैं स्वर्ग के घर को वरीयता देती हूं।  सांसारिक जीवन मेरे निकट कोई महत्व नहीं रखती।

हज़रत मरयम ने भी आध्यात्म के मार्ग में ऐसे क़दम उठाए कि ईश्वर के ध्यान का केन्द्र बनें।  इस बारे में वरिष्ठ नेता का मानना है कि सूरे तहरीम की 12वीं आयत के अनुसार इमरान की बेटी मरयम ने अपने दामन को पाक रखा।  इससे पता चलता है कि हज़रत मरयम जिस वातावरण में रह रही थीं वहां पर ऐसा माहौल भी था जो किसी महिला की पवित्रता के लिए ख़तरा बनें जबकि हज़रत मरयम ने संघर्ष करते हुए स्वयं को पवित्र बनाए रखा।

 

महिलाओं के इन दो महत्वपूर्ण उदाहरणों में से एक सारा हैं जिनका जीवन बहुत ही वैभवशाली था किंतु उन्होंने ईश्वर की ओर क़दम बढ़ाए।  इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कोई भी महिला यह नहीं कह सकती कि वैभवशाली एंव एश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने के कारण मनुष्य पथभ्रष्ट हो सकता है।  दूसरी ओर हज़रत मरयम के जीवन से सीख लेकर यह कहा जा सकता है कि महिलाएं इस बहाने के साथ कि ख़राब माहौल के कारण उनके क़दम डगमगा सकते हैं वे पथभ्रष्ट हो जाएं।  बल्कि ईश्वर पर भरोसा करते हुए ख़तरनाक रास्ते पर चलने के बावजूद स्वयं को बुराइयों से सुरक्षित रखा जा सकता है।

संसार के सभी लोगों में आध्यात्म की ओर झुकाव पाया जाता है।  इस बात में महिला और पुरूष दोनों समान हैं।  इसका मूल कारण यह है कि ईश्वर ने सभी लोगों की प्रवृत्ति में अपनी ओर झुकाव रखा है।  यह विषय इस्लाम में महिलाओं के अधिकारों की श्रेणी में आता है।  ऐसे में कोई भी व्यक्ति महिला को आध्यात्म की ओर बढ़ने से रोक नहीं सकता।

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) के एक कथन का अनुवाद है कि महिला का जेहाद है पति का ख़याल रखना।  इस कथन से पता चलता है कि ईश्वर की इच्छा है कि महिला अपने पति की उचित ढंग से सेवा करे।  इस बात का महत्व इस विषय से समझा जा सकता है कि आज बहुत से देशों में इस बात के क्लास लगाए जाते हैं कि किस प्रकार से जीवनसाथी के साथ रहा जाए?  इसके माध्यम से पति के साथ उचित ढंग से जीवन व्यतीत करने का तरीक़ा बताया जाता है।  हालांकि ईश्वर ने जीवनसाथी की सेवा को महिला की प्रवृत्ति में निहित किया है किंतु यह कोई आसान काम नहीं है।  कभी-कभी पुरूष के साथ जीवन व्यतीत करने में कठिनाइयों का सामना होता है।  यही कारण है कि वैवाहिक जीवन को सफलतापूर्ण ढंग से गुज़ारना, किसी भी महिला के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण बात है।  इसी के साथ पुरूष के लिए भी निर्धारित किया गया है कि वह अपने जीवनसाथी के साथ अच्छे ढंग से जीवन बिताए।  इसीलिए पुरूषों के संबन्ध में कहा गया है कि तुममे से सबसे अच्छा व्यक्ति वह है जो अपनी पत्नी के लिए उचित पति हो।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) के इसी कथन के संबन्ध में इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि पति के साथ उचित ढंग से जीवन व्यतीत करने के लिए ईश्वर ने महिला के लिए वह सवाब या पुण्य निर्धारित किया है जो किसी मुजाहिद को युद्ध करने में मिलता है जिसमें हर समय उसकी जान हथेली पर रहती है।  इसकी वजह यह है कि पति के साथ उचित ढंग से जीवन गुज़ारना, किसी जेहाद से कम नहीं है।  किसी व्यक्ति की सभी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ जीवन व्यतीत करना किसी भी रूप में सरल नहीं है।  प्रशिक्षित एवं सुघड़ महिला ही ऐसा काम करने में सक्षम है।  वह अपनी विशेषताओं से घर के वातावरण को शांतिपूर्ण बनाए रख सकती है।  महिला के लिए यही जेहाद है।  वास्तव में घर के वातावरण में महिला, छोटे-मोटे काम करके भी बड़े से बड़ा पुण्य प्राप्त कर सकती है।

 

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