Aug १३, २०१८ १४:३७ Asia/Kolkata

ईरान में तानाशाही सरकार के पतन और इस्लामी व धार्मिक सरकार के गठन के विभिन्न कारण थे।

हमने बताया था कि इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई के विचार में पश्चिम विशेष कर ब्रिटेन व अमरीका पर पहलवी शासकों की अत्यधिक निर्भरता और अहम फ़ैसले करने में उनकी अक्षमता, पहलवी शासन के पतन के मुख्य कारण थे। पश्चिम पर पूरी तरह निर्भरता और पश्चिम की मांगों को पूरा करने की हर संभव कोशिश इस बात का कारण बनी थी कि ईरान के शासक अपनी जनता की अनदेखी करें और उसे पश्चिम की मांगों की बलि चढ़ा दें।

दूसरी ओर पहलवी शासक अपनी स्वदेशी व राष्ट्रीय संस्कृति से दिन प्रति दिन दूर होते जा रहे थे और इस बात की कोशिश कर रहे थे कि पश्चिमी संस्कृति को अपने देश की संस्कृति का स्थान दे दें। इसके लिए उन्होंने अपने देश के युवाओं को बिगाड़ने तक में संकोच नहीं किया और शक्ति के बल पर महिलाओं के सिर से पर्दा उतरवा दिया और एक समय तो उन्होंने महिलाओं के लिए छोटे और खुले वस्त्र पहनना बाध्यकारी कर दिया था। ये सारे राष्ट्र व धर्म विरोधी क़दम भी ईरान की मुस्लिम जनता को, जो इस्लाम व उसकी ईश्वरीय शिक्षाओं पर कटिबद्ध थी, धर्म से दूर नहीं कर सके।

पहलवी शासक महिलाओं के संबंध में बड़ी हीन दृष्टि रखते थे। उनका मानना था कि औरत, मर्द की सेवा का एक साधन है। मुहम्मद रज़ा पहलवी ने एक इंटरव्यू में अपने इस पथभ्रष्ट दृष्टिकोण को खुल्लम खुल्ला बयान किया था और कहा था कि औरत, मर्द के लिए एक साधन है और उसकी सुंदरता पर ही अधिक ध्यान दिया जाता है। इसी तरह वह खुल कर कहता था कि महिलाएं राजनैतिक क्षेत्र में गतिविधियों की क्षमता नहीं रखतीं और उनमें संचालन की योग्यता कम होती है। मुहम्मद रज़ा शाह इस कमज़ोरी की वजह महिलाओं का षड्यंत्रकारी स्वभाव बताता था। उसने एक अन्य इंटरव्यू में अधिक दुस्साहस के साथ कहा था कि महिलाओं की बुद्धि मूल रूप से पुरुषों से कम होती है अलबत्ता कुछ महिलाएं इसका अपवाद हैं।

 

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई की नज़र में पहलवी शासन के पतन का एक अन्य कारण भारी घुटन था जो सरकार ने पैदा कर रखा था इस प्रकार से कि किसी में भी सरकार की आलोचना करने का साहस नहीं था। वर्ष 1335 हिजरी शमसी में भयावह खुफ़िया संगठन सावाक के गठन के साथ ही मुहम्मद रज़ा शाह की सरकार की ओर से दमन और घुटन की प्रक्रिया ने अधिक गति पकड़ ली। इस ख़ुफ़िया संगठन को पहलवी शासन की रक्षा के लिए अमरीका व ब्रिटेन की गुप्तचर एजेंसियों ने बनाया था और उन्होंने ही इसके लोगों को ट्रेनिंग दी थी। अगले बरसों में सावाक ने बंदियों के अधिकारों का अधिक से अधिक हनन करते हुए उन्हें बहुत अधिक यातनाएं दीं। वर्ष 1335 से 1357 हिजरी शमसी के दौरान उसने शाहर के विरोधियों के दमन में अत्यंत भयावह व अमानवीय भूमिका निभाई। उसने सरकार के विरोधियों और आलोचकों को इस प्रकार की यातनाएं दीं कि जो मानवाधिकार के अंतर्राष्ट्रीय घोषणापत्र के खुला हनन थीं।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई पहलवी शासनकाल की भारी घुटन के बारे में कहते हैं कि रज़ा ख़ान भी विद्रोह के माध्यम से सत्ता में आया था और उसका बेटा मुहम्मद रज़ा भी विद्रोह द्वारा ही सत्ता में पहुंचा था। यह बात स्पष्ट है जो सरकार विद्रोह द्वारा सत्ता में आएगी वह कैसी होगी? वह लोगों पर थोपी गई थी और लोगों के मत, लोगों की आस्थाओं, लोगों की आशाओं, लोगों की संस्कृति, लोगों की इच्छाओं और लोगों के संकल्प से पूरी तरह दूर थी। इस सरकार के लोग जनता के मतों, इच्छाओं, आस्थाओं, धर्म और संस्कृति का तनिक भी सम्मान नहीं करते थे, उनका लोगों से किसी भी प्रकार का निकट व मैत्रिपूर्ण संबंध नहीं था बल्कि शत्रुतापूर्ण रिश्ता था। स्वामी व प्रजा का रिश्ता था, मालिक और नौकर का रिश्ता था। वह सरकार राजशाही थी। राजशाही व तानाशाही का अर्थ यही होता है। यह ऐसी सरकार होती है जिसकी जनता के प्रति कोई कटिबद्धता नहीं होती। पहलवी परिवार ने हमारे देश में इस प्रकार जीवन बिताया। विश्व विद्यालय, समाचारपत्र, पत्रिकाएं, संसद और सरकार सब दिखावे के थे। केवल धर्म के नाम पर जो आंदोलन चल रहा था, जो सार्वजनिक था, वही सच्चाई था और सरकार की ओर से उसे दुश्मनी और घृणा की नज़र से देखा जा सकता था।

 

पहलवी परिवार द्वारा किए गए विश्वासघातों में से एक, जिसके कारण उसका पतन हुआ, देश को विज्ञान व उद्योग के क्षेत्र में पीछे और जनता को मूल आवश्यकताओं से वंचित रखना था। रज़ा शाह और उसके बेटे ने, जो पश्चिम के पिट्ठू और उसकी संस्कृति पर मोहित थे, "हम नहीं कर सकते" और "हमें पश्चिम से लेना चाहिए" के प्रचार को अपनी मुख्य रणनीति बना रखा था। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई इस संबंध में कहते हैं कि पहलवी शासनकाल में सबसे अधिक प्रचलित प्रोपेगंडा, "हम नहीं कर सकते" था। इस तरह के विचारों का परिणाम यह था कि पहलवी शासकों ने इस बुद्धिमान, साहसी और सभ्यता व ज्ञान में अग्रणी राष्ट्र का धन अमरीका से युद्धक विमान ख़रीदने पर ख़र्च किया। जब किसी विमान का कोई कलपुर्ज़ा ख़राब हो जाता था ईरानी इंजीनियर या मेकेनिक को इस बात का अधिकार नहीं था कि वह उस पुर्ज़े को खोले और उसे बनाने की कोशिश करे क्योंकि कलपुर्ज़े जुड़े हुए होते थे अर्थात कभी कभी विमान का कोई एक पुर्ज़ा कई पुर्ज़ों से मिल कर बना होता है। ईरान उस ख़राब पुर्ज़े को वापस भेजता था और उस विमान को बनाने और बेचने वाला देश, जो प्रायः अमरीका होता था, उसके स्थान पर एक नया पुर्ज़ा ईरान को बेचता था। ईरानी इंजीनियरों को विमान के ख़राब हो चुके पुर्ज़े को खोलने और मरम्मत करने का अधिकार क्यों नहीं था? इस लिए कि उनसे कहा जाता था कि तुम लोगों को इससे क्या लेना देना? यह काम तो विदेशी विशेषज्ञों का है। तुम लोग बिल्कुल हस्तक्षेप न करो और इस प्रकार के कामों के निकट भी न जाओ! एक राष्ट्र का अपमान इसी को तो कहते हैं।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई की दृष्टि में ईरान की राजशाही सरकार के पतन का एक अन्य कारण देश में व्याप्त अत्याचार व अन्याय था। रज़ा शाह के शासन काल में, लोगों की ज़मीन हड़पना सरकार के एजेंडे में शामिल हो गया था। आरंभ में रज़ा ख़ान के पास न धन था और न ही ज़मीन व संपत्ति, जैसे जैसे उसकी सरकार का कार्यकाल बढ़ता गया और उसकी शक्ति में वृद्धि होती गई, उसने देश के अनेक क्षेत्रों की उपजाऊ ज़मीनों और अहम संपत्तियों पर क़ब्ज़ा कर लिया और अपार धन एकत्रित किया। वह लोगों की संपत्ति और ज़मीनों को हड़प करने, बेनाम संपत्तियों को ज़ब्त करने, लोगों से अत्यंत कम क़ीमत पर ज़मीन ख़रीदने, खेती वाली ज़मीनों को उनके मालिकों से डरा धमका कर उनके वास्तिवक मूल्य से कम में ख़रीदने और मार पीट कर लोगों की ज़मीन हथियाने जैसे मार्गों से ईरान का सबसे बड़ा ज़मींदार बन गया था।

 

रज़ा शाह अपने अधिकारियों को उत्तरी ईरान के क्षेत्रों में भेज कर उन्हें आदेश देता था कि उन्हें जो भी अच्छी ज़मीन और संपत्ति दिखाई दे उसे उसके लिए ले लें। ईरान के एक मशहूर समाचारपत्र ने उस समय की परिस्थितियों के बारे में लिखा था। उत्तरी ईरान के असहाय किसानों की ऐसी स्थिति बना दी गई है कि उनके पास न पैरों में जूते हैं, न तन पर लिबास है और न घर में खाने को चावल। वे तेल न ख़रीद पाने के कारण रात से सुबह तक, इतिहास पूर्व के इंसानों की तरह अंधेरे में बैठे रहते और फिर सो जाते हैं। रज़ा शाह, लोगों की ज़मीन हड़प करने के बाद उनके मालिकों को प्रजा और मज़दूर के तौर पर इस्तेमाल करता था। बाद में वे अपनी ही ज़मीन पर बंधुआ मज़दूरों की तरह काम करने के लिए विवश थे।

ईरान का एक अन्य समाचारपत्र रज़ा शाह के शासनकाल में जनता की दयनीय स्थिति के बारे में लिखता हैः प्रजा अपने पैसे ख़र्च करके बीस मील दूर जाने और ज़मींदारों के लिए काम करने पर विवश है। रज़ा शाह के गुर्गे लाठी और चाबुक से उनकी पिटाई करते हैं। मज़दूरों को रात तबेले में सोना और सुबह सवेरे उठना पड़ता है, उनमें से अधिकतर भूखे होते हैं। अगर उनमें से कोई बीमार होने की बात करे तो उसकी दवा और इलाज हंटर होता है यहां तक कि वह अपनी जान से हाथ धो लेता है औ उसे शाह के क्रूर गुर्गों से मुक्ति मिल जाती है। इन सारे अत्याचारों के अलावा उनके परिवार की इज़्ज़त भी सुरक्षित नहीं होती क्योंकि शाह ने अपने गुर्गों और एजेंटों को लोगों के माल और इज़्ज़त से खेलने की इजाज़त दे रखी है।

 

रज़ा शाह के बेटे मुहम्मद रज़ा ने भी दूसरी तरह से अपने पिता के अत्याचारों को जारी रखा और उसके ख़िलाफ़ लोगों की नफ़रत बढ़ती रही। जब लोगों ने इस्लामी क्रांति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी की पुकार सुनी तो उन्हें लगा कि उन्हें एक बड़ा मुक्तिदाता मिल गया है। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई इस बारे में कहते हैं। सद्दाम शासन ने आठ वर्षीय युद्ध में ईरानी राष्ट्र पर जो कुछ अत्याचार का वह उन अत्याचारों से बहुत कम था जो पहलवी परिवार ने बरसों तक इस राष्ट्र पर किए थे। तो इस तरह की सरकार ने बरसों तक ईरानी जनता पर शासन किया था। जब वर्ष 1962 में इमाम ख़ुमैनी ने शाह के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई तो लोगों के धैर्य का प्याला छलक गया, उन्होंने बरसों तक बर्दाश्त किया था लेकिन अब उनसे सहन नहीं हो रहा था और इमाम ख़ुमैनी की पुकार उनके दिल में बैठ गई। (HN)

 

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