इस्लामी क्रांति और समाज-5
हम ने बताया था कि ईरान की इस्लामी क्रांति ने राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने महत्वपूर्ण प्रभाव छोड़े हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके प्रभाव केवल परिवर्तनों तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि इसने क्रांतियों के बारे में प्रचलित वैश्विक दृष्टिकोणों को भी बहुत प्रभावित किया है। ईरान की इस्लामी क्रांति ने कुछ अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोणों को बदलने में भी अपनी भूमिका निभाई है।
क्रांतियों के बारे में दृष्टिकोणों के विभिन्न वर्गीकरण पेश किये गए हैं जिनमें से कुछ सामान्य हैं जबकि कुछ विशेष हैं। क्रांतियों के महत्वपूर्ण समीक्षकों में से एक "थेडा स्कोसपल" शामिल हैं। उन्होंने वर्तमान क्रांतियों को चार वर्गों में विभाजित किया है।
पहला भाग मारर्कस्वादी विचारधारा का है जिसके अनुसार क्रांति आने का मुख्य कारक आर्थिक होता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार क्रांतियां सामान्यतः आर्थिक स्थिति के कारण आती हैं।
दूसरा दृष्टिकोण यह है कि क्रांति, समाज में किसी शून्य के कारण नहीं आती बल्कि यह हालात पर लोगों की प्रतिक्रिया होती है।
तीसरा दृष्टिकोण यह है कि असमानता और अन्याय को दूर करने के लिए क्रांतियां लाई जाती हैं।
चौथा दृष्टिकोण यह है कि राजनैतिक मतभेदों के कारण क्रांतियां जन्म लेती हैं।
"थेडा स्कोसपल" ने जो दृष्टिकोण पेश किये हैं उनकी सबसे बड़ी कमी यह है कि क्रांतियों के आने में सांस्कृतिक और धार्मिक कारकों की ओर कोई संकेत नहीं किया गया है।
Stan Tylor स्टेन टेलर भी क्रांतियों के बारे में दृष्टिकोण प्रस्तुत करने वालों में बहुत मश्हूर हैं। उन्होंने भी क्रांतियों के चार कारक बताए हैं। सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक और राजनैतिक। जिन विचारकों ने क्रांतियों का कारण सामाजिक बताया है उन्होंने सामाजिक व्यवस्था को अलग-अलग ढंग से पेश किया है। जिन विचारकों ने क्रांति का कारण मनोवैज्ञानिक बताया है उन्होंने मनोवैज्ञानिक दृष्टि से समाज और सामाजिक विषयों की समीक्षा की है। आर्थिक दृष्टिकोण पेश करने वालों का मानना है कि बुरी अर्थव्यवस्था के कारण ही क्रांतियां आती हैं जबकि बहुत से विचारक यह कहते हैं कि क्रांतियों के अस्तित्व में आने का कारण राजनीति है। "स्टेन टेलर" ने क्रांति के संबन्ध में जो दृष्टिकोण पेश किये हैं उनमें बहुत से आंशिक विषयों को भी सम्मिलित किया गया है किंतु उसमें उन क्षेत्रों की ओर को ध्यान नहीं दिया गया है जहां पर क्रांतियां आई हैं।
कुछ अन्य टीकाकारों का मानना है कि क्रांतियां आने के दो प्रमुख कारण हैं। उनके हिसाब से कुछ छोटे कारण है और कुछ बड़े। छोटे कारण वे हैं जिनमें लोगों के व्यक्तित्वों की समीक्षा की गई है जबकि बड़े कारकों में व्यवस्था और संगठनों तथा दलों की समीक्षा की जाती है। क्रांति के छोटे कारकों में नेताओं की विशेषताओं और उनके मनोविज्ञान की अधिक समीक्षा की गई है।
ईरान में आने वाली इस्लामी क्रांति, क्रांति के संबन्ध में पेश किये जाने वाले बहुत से दृष्टिकोणों में परिवर्तन का कारण बनी है। इस्लामी क्रांति के बाद अब क्रांतियों की समीक्षा में अब किसी एक बात को अन्य क्रांतियों का भाग नहीं बताया जा सकता। इसी प्रकार किसी एक कारक को अन्य क्रांतियों का आधार नहीं बताया जा सकता। एसे में संसार के बड़े-बड़े विचारकों के हिसाब से पेश की जाने वाली थ्योरियों को इस्लामी क्रांति पर थोपा नहीं जा सकता। एसा संभव है कि क्रांतियों के बारे में अबतक जो दृष्टिकोण पेश किये गए हैं उनमें से कुछ दृष्टिकोण इस्लामी क्रांति के एक छोटे से भाग पर लागू होते हों किंतु निश्चित रूप में वे ईरान की इस्लामी क्रांति की पूरी वास्तविकता को नहीं बता सकते। यही कारण है कि ईरान की इस्लामी क्रांति ने अन्य क्रांतियों के आने से संबन्धित कारकों को चुनौती दी। इसने यह भी सिद्ध कर दिया कि क्रांतियों के आने के कारक आंशिक हैं इसलिए वे पूर्ण रूप से क्रांति की उचित व्याख्या नहीं कर सकते।
ईरान की इस्लामी क्रांति ने विश्व की अन्य क्रांतियों के आम कारकों को चुनौती देते हुए क्रांति के सांस्कृतिक कारक को विस्तृत किया जो पहले इतना विस्तृत नहीं था। इससे पहले यह दृष्टिकोण बहुत ही सीमित था जो इस्लामी क्रांति के बाद बहुत अधिक विस्तृत हो गया। वास्तविक बात तो यह है कि ईरान की इस्लामी क्रांति का मुख्य कारण, उसका सांस्कृतिक कारक है। यह कारक बाद में "क्रांति के धार्मिक कारक" के रूप में परिवर्तित हो गया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि ईरान की इस्लामी क्रांति से पहले क्रांतियों के बारे में जो दृष्टिकोण पेश किये गए थे वे इस क्रांति के बाद किसी सीमा तक बदल गए।
इस संदर्भ में हम "जे.ए. गोल्डस्टोन" और "जान फारेन" के दृष्टिकोणों की समीक्षा करेंगे जिनमें गोल्डस्टोन ने तो क्रांतियों के बारे में दृष्टिकोण पेश किये हैं जबकि जान फारेन ने ईरान की इस्लामी क्रांति की विशेष रूप में समीक्षा की है। गोल्डस्टोन ने बीसवीं शताब्दी की क्रांतियों को तीन पीढ़ियों में बांटा है। उन्होंने बीसवीं शताब्दी के अन्त में आने वाली क्रांतियों के लिए चौथी पीढ़ी की भी बात कही है जिसमें ईरान की इस्लामी क्रांति भी शामिल है। इस हिसाब से पहली पीढ़ी, द्वतीय विश्वयुद्ध के अंत तक मानी गई है। इस काल में क्रांतियों के आने के कारकों की समीक्षा के स्थान पर क्रांतियों की स्थिति की ओर ध्यान दिया गया है। दूसरी पीढ़ी का काल 1940 से 1975 बताया गया है। इस काल की क्रांतियों को मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से परखा गया है। तीसरी पीढ़ी का काल 1970 से आरंभ होता है। इस दौरान की क्रांतियों में विचारक, क्रांति के ढांचे की ओर अधिक उन्मुख रहे हैं जैसे क्रांति में ग्रामीणों की भूमिका। इसमें क्रांति लाने वाले नेता की विशेषताओं और उसकी आइडियालोजी को अनदेखा किया गया है।
इन सभी बातों के बावजूद विचारक गोल्डस्टोन का मानना है कि सन 1970 से 1991 के बीच संसार के कुछ एसी क्रांतियां आईं जिनके दृष्टिकोण में गंभीर समस्याओं को इंगित किया गया है। 1970 के दशक में ईरान और निकारागुआ में एसी क्रांतियां आई जिन्होंने पश्चिम का समर्थन प्राप्त तानाशाहों को ढेर कर दिया। सन 1989 से 1991 के बीच पूर्व सोवियत संघ के गणराज्यों में विरोध प्रदर्शनों और रैलियों के माध्यम से तानाशाही व्यवस्थाओं को गिराकर समाप्त कर दिया गया। इनमें से कोई भी परिवर्तन यूरोप या चीन में आने वाली क्रांतियों के संबन्ध में बताए गए कारकों के आधार पर नहीं हुए। इन क्रांतियों में जिसने सबसे अधिक क्रांति से संबन्धित कारकों को परिवर्तित किया है।
इस बारे में गोल्डस्टोन का कहना है कि मेरा मानना है कि क्रांति से संबन्धित तीसरी पीढ़ी का समय समाप्त हो चुका है। वे कहते हैं कि हालांकि चौथी पीढ़ी का प्रभाव अभी स्पष्ट नहीं हो सकता है। यह पीढ़ी पहचान, आईडियोलोजी, स्ट्रैटेजी और नेतृत्व जैसे विषयों के बारे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
जान फारेन भी ईरान की इस्लामी क्रांति और निकारागुआ की क्रांतियों के प्रभावों और परिवर्तनों के बारे में कहते हैं कि इन दोनों क्रांतियों ने चौथी पीढ़ी के सक्रिय होने के लिए उचित भूमिका प्रशस्त कर दी है। यह वह पीढ़ी है जिसने स्वयं को अत्याचार से मुक्ति दिलाई है। यह पीढ़ी संस्कृति, आईडियालोजी, धर्म, स्वयंसेवा और असंतुलित विकास जैसे विभिन्न तत्वों को महत्व देती है।