Oct ०२, २०१८ १५:३१ Asia/Kolkata

हमने इस बात का उल्लेख किया था कि इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने अब्बासी शासक मंसूर दवानेक़ी के हाथों क्रान्तिकारियों की गिरफ़्तारी, उन्हें क़ैद व क़त्ल करने तथा लूटमार के कारण, अपने पिता इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के जीवन में ही सांस्कृतिक आंदोलन के संबंध में अहम क़दम उठाया था।

इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने भी अपने पिता की ही तरह सांस्कृतिक काम को राजनैतिक काम पर वरीयता दी और इस तरह मंसूर अब्बासी के घुटन भरे दस साल के दौर को बड़ी समझदारी से गुज़ारा। मंसूर 158 हिजरी क़मरी में मरा और हुकूमत की बागडोर उसके बेटे महदी अब्बासी के हाथ में पहुंची। उसने ढोंग की आड़ में और जनमत को धोखा देने के लिए उन सभी राजनैतिक क़ैदियों को रिहा कर दिया जिन्हें उसके पिता ने क़ैद किया था जिनमें ज़्यादातर इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्लाम के अनुयायी थे। इसी तरह इन राजनैतिक क़ैदियों की हड़पी गयी संपत्ति भी उन्हें लौटा दी और उनमें से बहुत कम लोगों को क़ैद में रखा।

महदी अब्बासी ने विदित रूप से अच्छे नज़र आने वाले इस व्यवहार की आड़ में अपने जासूसों को यह आदेश दिया कि वे इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की तमाम गतिविधियों पर नज़र रखें। महदी अब्बासी ने दूसरे अत्याचारी अब्बासी शासकों की तरह शुद्ध इस्लामी शिक्षाओं को ख़राब करने और पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की छवि बिगाड़ने की कोशिश की। महदी अब्बासी अपने इस शैतानी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन शायरों को बहुत पैसे देता था जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम की संतान की बुराई में शेर कहते थे। इस लक्ष्य के तहत उसने इस तरह के शायरों में से एक बश्शार बिन बुरद को 70 हज़ार दिरहम और मरवान बिन अबी हफ़्सा को 1 लाख दिरहम दिये इसके अलावा महदी अब्बासी राजकोष को बुरी तरह लुटाता, शराब पीता और अय्याशी करता था। जैसा कि उसने अपने बेटे की शादी पर 5 करोड़ दिरहम ख़र्च किये।

इस अय्याशी से अब्बासी शासकों का अस्ली चेहरा ज़ाहिर हो गया, उनके नारों का खोखलापन स्पष्ट हो गया, लोगों के मन में नफ़रत बढ़ गयी और इसके विपरीत लोगों के बीच इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम की लोकप्रियता दिन प्रतिदिन बढ़ती गयी। महदी अब्बासी की अपेक्षा के विपरीत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शोहरत हर जगह फैल गयी। लोग गुटों में गुप्त रूप से इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के पास आते और उनके आध्यात्मिक व्यक्तित्व से अपनी आध्यात्मिक प्यास को बुझाते। इस बात से महदी अब्बासी डर गया और उसने इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को मदीना से बग़दाद आने का आदेश दिया और जेल में डलवा दिया। लेकिन मौत के चंगुल ने महदी अब्बासी को धर दबोचा और 169 हिजरी क़मरी में वह इस दुनिया से चल बसा। उसके बाद उसका बेटा हादी अब्बासी सत्ता में पहुंचा। हादी ने अपने शासन के आरंभ से ही कठोर नीति अपनायी। वह बिना किसी झिझक के हज़रत अली अलैहिस्सलाम के वंशजों पर कड़ाई करता और उनके माल को हड़प लेता। उसने अपने कर्मपत्र को फ़ख़ नामक त्रासदीपूर्ण घटना से कलंकित किया।

फ़ख़ घटना इमाम हसन अलैहिस्सलाम के वंश से हुसैन बिन अली के नेतृत्व में अब्बासियों के ख़िलाफ़ बग़ावत थी जो मदीना से शुरु हुई। इस घटना में मक्का के निकट फ़ख़ नामक स्थान पर हुसैन बिन अली अपने ज़्यादातर साथियों के साथ शहीद हुए। इस त्रासदी में कर्बला की त्रासदी की तरह सभी शहीदों के सिर उनके शरीर से अलग किए गए और उस सभा में सिरों को रखा गया जिसमें इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम सहित इमाम अली अलैहिस्सलाम के वंशज मौजूद थे। किसी ने कुछ नहीं कहा सिर्फ़ इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने जब विद्रोह के नेता हुसैन बिन अली के सिर को देखा तो कहाः "इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन"। ईश्वर की सौगंध हुसैन इस हालत में शहीद किए गए कि वे मुसलमान और ईमानदार थे, बहुत रोज़ा रखते, रात में जाग कर उपासना करते, लोगों को भलाई का निमंत्रण देते और बुराई से रोकते थे। उनके परिवार में उनके जैसा कोई न था। फ़ख़ के शहीदो के मज़ार के अवशेष को अनेक बार वहाबी ध्वस्त कर चुके हैं।

इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के इस स्पष्ट दृष्टिकोण से यह स्पष्ट हो गया कि यह विद्रोह इमाम के समन्वय से हुआ है, जिससे हादी अब्बासी क्रोधित हो उठा और उसने इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को क़त्ल की धमकी दी और कहाः "ईश्वर की सौगंध फ़ख़ आंदोलन के नेता हुसैन ने मूसा बिन जाफ़र के आदेश से मेरे ख़िलाफ़ विद्रोह किया, उनका पालन किया है क्योंकि उनके परिवार का इमाम मूसा बिन जाफ़र के सिवा कोई और नहीं है। ईश्वर मुझे मार डाले अगर मैं उन्हें जीवित रहने दूं।" इस धमकी का इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम पर तनिक भी असर न हुआ लेकिन उनके आस पास के लोग ख़तरा महसूस करने लगे। लेकिन इससे पहले कि हादी अब्बासी अपनी साज़िश में कामयाब होता, मौत के चंगुल ने उसकी भी गर्दन धर दबोची और वह भी इस दुनिया से चल बसा और मदीने में लोगों ने ख़ुशियां मनायीं।

हादी के बाद उसका भाई हारून सत्ता में पहुंचा। हारून का शासन शुरु होते ही इस्लामी इतिहास में ख़तरनाक घटनाएं जुड़ गयीं। उसने 23 साल शासन किया जिसमें उसके शासन काल के 15 साल इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की इमामत के दौरान रहे। इस दौरान बहुत सी ऐसी घटनाएं घटीं जिनकी व्याख्या से हारून की हुकूमत का अस्ली चेहरा और इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है। जिस समय हारून शासक बना तो उसकी उम्र 23 साल थी और उस समय अब्बासी शासन का दायरा फैल कर 40 राज्यों तक पहुंच गया था। इन बड़े राज्यों में एक ईरान और दूसरा मिस्र था। कम उम्र होने, प्रशासनिक व राजनैतिक अनुभव न होने तथा कम उम्र में विशाल इस्लामी जगत की सत्ता मिलने की वजह से हारून में घमंड पैदा हो गया। कहते हैं कि एक दिन इसी घमंड में चूर वह लेटा हुआ था कि उसने बादल के एक टुकड़े को गुज़रते हुए देखा तो कहाः "जहां भी जा तेरा टैक्स मेरे ही पास आएगा।"

हारून भी दूसरे ताक़तवर लोगों की तरह तारीफ़ व चापलूसी का भूखा था। हारून ने अशजा सुलमी नामक शायर को अपनी तारीफ़ में एक क़सीदा कहने पर 10 लाख दिरहम दिए थे। इसी तरह इब्राहीम मूसली नामक गायक व संगीतकार को किसी साज़ के बजाने और गाने पर 1 लाख दिरहम और 100 महंगे वस्त्र दिए। इसके अलावा हारून के महल में गाने व बजाने वाली महिलाओं के बहुत से गुट रहते और नाना प्रकार के वाद्य यंत्र मौजूद रहते थे। हारून को रत्न बहुत पसंद थे। एक बार उसने एक अंगूठी ख़रीदने के लिए 1 लाख दीनार ख़र्च किए।

बड़े अफ़सोस की बात है कि हारून सहित अब्बासी शासन के सभी उद्दंडी शासकों ने जो ख़ुद को पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तराधिकारी समझते थे, 500 साल से ज़्यादा समय तक इस्लामी राज्यों पर शासन किया लेकिन उनके व्यक्तित्व में पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण का तनिक भी असर न था बल्कि सभी धार्मिक व मानवीय मूल्य इन शासकों के बुरे लक्ष्यों की बलि चढ़ गए। यही वजह है कि शियों के इमाम, इन ख़िलाफ़त के हड़पने वालों के मुक़ाबले में ख़ामोश नहीं बैठे बल्कि जीवन के अंतिम क्षण तक संघर्ष करते हुए शहीद हो गए। एक दिन इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम बग़दाद में हारून के एक बहुत ही सुंदर महल में दाख़िल हुए। हारून ने जो सत्ता के नशे में चूर था, अपने महल की ओर इशारा करते हुए इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से पूछा कि इस महल के बारे मे आपका क्या नज़रिया है? इमाम ने साफ़ शब्दों में कहाः "यह भ्रष्ट लोगों का घर है। जिनके बारे में ईश्वर ने फ़रमाया हैः "जो लोग ज़मीन पर ख़ुद को बड़ा समझते और घमंड करते हैं, अगर ईश्वर की किसी निशानी को देखते हैं तो ईमान नहीं लाते, सही रास्ते को देखने के बाद भी ईमान नहीं लाते और अगर बुराई के रास्ते को देखते हैं तो उसी का चयन करते हैं। हम इस गुट को अपने मार्गदर्शन से हटा देते हैं क्योंकि उन्होंने मेरी निशानियों को झुठलाया और ग़फ़लत में पड़े हुए हैं।"

हारून जिसे इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं थी, नाराज़ हो गया और उसने पूछाः तो फिर इस घर पर किसका अधिकार है? इमाम ने फ़रमायाः अगर सच को जानना चाहते हो तो यह हमारे चाहने वाले शियों और अनुयाइयों का है लेकिन दूसरों ने ताक़त और धोखे से इसे हथिया लिया है। हारून ने चिढ़ कर कहाः "तो फिर घर का मालिक इसे हमसे वापस क्यों नहीं लेता? इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "इस बात में शक नहीं कि जब उसका वक़्त आएगा तो इसे वापस ले लिया जाएगा।"

इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का इशारा हारून के महल को लेने की ओर न था बल्कि इमाम का इशारा ख़िलाफ़त की बागडोर की ओर था जिसे हड़पने वालों ने हज़ारों तरह की धूर्ततापूर्ण चालों से हथियाया था।

हारून और इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के बीच जो शास्त्रार्थ हुआ और जिसे अबुल क़ासिम ज़मख़्शरी ने जो सुन्नी समुदाय के क़ुरआन के बहुत बड़े व्याख्याकार हैं, बयान किया है उससे यह दृष्टिकोण स्पष्ट होता है।

एक दिन हारून ने इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से कहाः "आप हमे फ़ेदक नामक इलाक़े का क्षेत्रफल बताइये ताकि हम उसे आपको लौटा दें।" इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "छोड़ो इस बात को।" हारून ने फिर आग्रह किया तो इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "अगर मैं फ़ेदक का क्षेत्रफल बता दूं तो तुम उसे नहीं दोगे।" हारून ने क़सम खाकर कहा कि उसे आपको लौटा दूंगा। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "उसकी पहली सीमा अदन तक है।" यह सुनते ही हारून के चेहरे का रंग उड़ गया लेकिन इसके बाद भी उसने इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से कहाः उसके बाद की सीमा कौन सी है? तो इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "इसकी दूसरी सीमा समरक़न्द है।" यह सुन कर हारून बहुत नाराज़ हुआ। इमाम ने फिर फ़रमायाः "एक और सीमा अफ़्रीक़ा है"। हारून पूरी तरह लाजवाब हो चुका था कि इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "इसकी एक और सीमा आर्मीनिया और ख़ज़र है।" यह सुनकर हारून बेक़ाबू हो गया और क्रोधित होकर कहने लगा कि तो आइये हमारी जगह पर बैठ जाइये क्योंकि जो सीमा आपने बतायी है उससे तो हमारे लिए कोई जगह ही नहीं बचेगी। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "मैंने तो पहले ही तुमसे कह दिया था कि अगर फ़ेदक की हद बता दूं तो तुम उसे नहीं लौटाओगे।" इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का यह दृष्टिकोण उनके पवित्र पूर्वजों के दृढ़तापूर्ण नज़रिये का ही क्रम था। जैसा कि छठे इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने मंसूर के सामने और पांचवें इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने अब्दुल मलिक बिन मरवान के सामने और चौथे इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने हेशाम बिन अब्दुल मलिक के सामने पूरी तरह दृढ़ता दिखाई और उनकी धूर्त्तापूर्ण चालों के ख़िलाफ़ डट गए और उनकी झूठी शान को बेनक़ाब कर दिया।

 

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