Oct ०९, २०१८ १७:२६ Asia/Kolkata

वाले दाग़िस्तानी के नाम से मशहूर अलीक़ेली ख़ान, शाह सुलतान हुसैन सफ़वी के शासनकाल में उनकी राजधानी इस्फ़हान में वर्ष 1124 हिजरी के सफ़र महीने में पैदा हुए।

उनके पिता का नाम मुहम्मद अली ख़ान था जो वर्ष 1126 हिजरी में ईरवान के बीगलर बीगी के पद पर आसीन हुए। सातवीं से बारहवीं शताब्दी हिजरी में बीगलर बीगी बड़े राज्यों के वरिष्ठ सैन्य कमांडर को कहा जाता था। यह पद हासिल होने के बाद मुहम्मद अली ख़ान इस्फ़हान से ईरवान चले गए और अलीक़ेली भी, जो उस समय मात्र दो साल के थे, अपने पिता के साथ ईरवान पहुंचे।

मुहम्मद अली ख़ान निरंतर तरक़्क़ी करते रहे और ईरवान व आज़रबाइजान के सेनापति व शासक बनने के बाद सफ़वी शासक के आदेश पर वे क़ंधार पर क़ब्ज़ा करने और अफ़ग़ानों के विद्रोह को दबाने के लिए उस क्षेत्र की ओर रवाना हुआ। अभी वे क़ंधार पहुंचे भी नहीं थे कि नख़जवान के क्षेत्र में उनका निधन हो गया। उनके शव को इराक़ के नजफ़ नगर ले जाया गया और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के रौज़े के निकट दफ़्न किया गया।

पिता के निधन के बाद वाले दाग़िस्तानी अपने परिवार के साथ इस्फ़हान लौट आए। वर्ष 1129 हिजरी में उन्होंने इस्फ़हान में आरंभिक शिक्षा शुरू की और उस काल के ज्ञान व साहित्य के गुरुओं से शिक्षा ग्रहण की। उस काल में वाले की अभिभावक्ता उनके चाचा हसन अली ख़ान के ज़िम्मे थी। हसन अली ख़ान की एक बेटी थी जिसका नाम ख़दीजा सुलतान था और उसकी आयु भी लगभग अलीक़ुली के बराबर थी। वे दोनों एक साथ खेला करते थे। जब वाले ने आरंभिक शिक्षा शुरू की तो उनके चाचा ने अपनी बेटी ख़दीजा के लिए भी एक शिक्षक रखा ताकि वह घर के अंदर उसे पढ़ाए। क़ुरआने मजीद की शिक्षा प्राप्त करने के बाद थोड़े ही समय में वाले ने उस समय के प्रचलति अरब, फ़ारसी, इतिहास और साहित्य के ज्ञानों की शिक्षा ली लेकिन वे अपनी शिक्षा पूरी न कर सके।

 

वर्ष 1133 हिजरी में सुलतान हुसैन सफ़वी के दरबार में मंत्री के पद पर काम करने वाले अलीक़ुली ख़ान के पिता के चाचा फ़तह अली ख़ान को शासन हड़पने की कोशिश का आरोप लगा कर सभी सरकारी पदों से हटा दिया गया और इसके बाद उनके सभी रिश्तेदारों को उनके पदों से हटा कर जेल में डाल दिया गया जिनमें अलीक़ुली के चाचा और उनके भाई भी शामिल थे। उसी साल के अंत में अफ़ग़ानों ने इस्फ़हान पर हमला कर दिया और इस शहर का घेराव कर लिया। इस क्षेत्र में युद्ध की ज्वाला भड़क उठी यहां तक कि वर्ष 1135 के मुहर्रम महीने में महमूद अफ़ग़ान ने इस्फ़हान शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया और सुलतान हुसैन सफ़वी को पकड़ कर जेल में डाल दिया। इसके बाद वह गद्दी पर बैठा और वर्ष 1142 हिजरी तक उसने सात साल तक इस्फ़हान पर राज किया।

इन्हीं दिनों के दौरान वाले और उनकी चाचा की बेटी ख़दीजा की दुखद घटना सामने आई जो एक दूसरे से प्यार करते थे। वाले ने अपनी जीवनी में इस बात की ओर इशारा किया है कि किस तरह जीवन के साक़ी ने विफलता की मदिरा उन दोनों के गले में उंडेल दी। अलीक़ुली की मां ने, ख़दीजा सुलतान की मां के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि दोनों की शादी सादे ढंग से कर दी जाए। यहीं से उन दोनों की जुदाई शुरू हुई जिसे वाले ने अपनी कविताओं और ग़ज़लों में बड़े मार्मिक ढंग से पेश किया है। कुछ दिनों बाद ख़दीजा के घर वालों ने महमूद अफ़ग़ान के दबाव और धमकियों के चलते विवश हो कर उसकी शादी महमूद अफ़ग़ान के एक रिश्तेदार से कर दी। इस दुखद घटना के बाद वाले, दीवानों की तरह शहर के गली कूचों में अपनी प्रियसी के खोजते हुए घूमने लगे। उसी दौरान शाह तहमास्ब द्वितीय इस्फ़हान पहुंचे और उन्होंने अफ़ग़ानों को फ़ार्स और किरमान की ओर खदेड़ दिया। बलोचिस्तान की सीमाओं के निकट अशरफ़ अफ़ग़ान की हत्या कर दी गई।

 

अलीक़ुली उर्फ़ वाले ने, जो ख़दीजा को खो देने के कारण अत्यधिक दुखी थे और दर-दर घूम रहे, सन 1144 हिजरी में नादिर शाह के सत्ता में आने के बाद बीस साल की उम्र में देश छोड़ने का फ़ैसला किया और अत्यधिक कठिनाइयां सहन करके वे भारत पहुंचे। अनेक जीवनी लेखकों के अलावा ख़ुद उन्होंने अपने इस सफ़र का कारण, अपने चाचा की बेटी ख़दीजा सुलतान से इश्क़ बताया है। दस्तावेज़ों के अनुसार वाले वर्ष 1146 हिजरी में भारत पहुंचे और बक्खर और मुलतान से होते हुए लाहौर पहुंचे और फिर वहां से शाहजहांबाद चले गए और वहीं रहने लगे।

भारत के मुग़ल शासक मुहम्मद शाह और उनके दरबार के लोगों ने उनसे कहा कि वे दरबार में शामिल हो जाएं लेकिन वाले ने अपनी अक्षमता प्रकट करके इन्कार कर दिया। कुछ दिन बाद उनके पास शासक की ओर से निरंतर संदेश आने लगे जिसके बाद उन्होंने मजबूरन दरबार में शामिल होने की बात स्वीकार कर ली। कुछ ही समय बाद वे शासक के अत्यंत निकट हो गए और कई उच्च पदों पर आसीन हुए। वाले ने भारत में अपने निवास के दौरान, दरबारी कामों और लोगों की अत्यधिक आवाजाही के बावजूद कभी भी ख़दीजा सुलतान को नहीं भुलाया। वे हमेशा उनकी याद में रहे और उनके लिए शेर कहते रहे। इसी तरह वे ख़दीजा को पत्र भी लिखते थे।

 

भारत में अपने निवास के दौरान अलीक़ुली वाले के अनेक मित्र बने जिनमें पदाधिकारी, शायर, साहित्यकार और अन्य क्षेत्रों के लोग थे जो उनके घर आया जाया करते थे और उनके घर में साहित्यिक बैठकें भी होती थीं लेकिन उनके सबसे घनिष्ठ मित्र शम्सुद्दीन फ़क़ीर देहलवी थे जिनसे वे अपने हर बात साझा करते थे। वाले ने अपने प्रेम की दास्तान भी उन्हें सुनाई थी और उन्होंने वाले की अनुमति से उनकी प्यार की दास्तान को पद्य का रूप देने का निर्णय किया। इस प्रकार वाले व सुलतान नामक फ़क़ीर देहलवी की प्रख्यात मसनवी, वाले दाग़िस्तानी और उनके चाचा की बेटी ख़दीजा सुलतान की प्रेमकथा के आधार पर लिखी गई।

यह मसनवी वर्ष 1160 में लिखी गई है और निज़ामी की मसनवी लैला व मजनूं की शैली में 3230 शेरों पर आधारित है। यह दास्तान, पाठक को कोई ठोस परिणाम तक नहीं पहुंचाती क्योंकि मसनवी लिखते समय वाले और ख़दीजा सुलतान दोनों ही ज़िंदा थे और उनके दिल में एक दूसरे से मिलने की आशा मौजूद थी। ख़दीजा सुलतान से मिलन की इच्छा वाले के दिल में कभी कम नहीं हुई और वे हमेशा ईरान व इस्फ़हान वापसी के इच्छुक रहे। उन्होंने अपने अनेक शेरों में अपनी यह इच्छा प्रकट की है। एक स्थान पर उन्होंने लिखा हैः इस्फ़हान की याद में मैं भारत में इतना रोया कि मेरी जीवित नदी से गंगा को शर्म आने लगी।

यद्यपि अलीक़ुली वाले कभी अपनी शिक्षा खत्म नहीं कर पाए किंतु इसके बावजूद वह अध्ययन और काव्य रचनाएं पढ़ने का समय निकाल लेते थे और इसी वजह से वह "रियाज़ुश्शोरा" नामक कवियों की जीवनी लिखने में सफल हुए। वाले ने अपनी इस पुस्तक के अंत में इस बात का उल्लेख किया है। आज़ाद बेलग्रामी, क़ुदरतुल्लाह गूपामुई जैसे जीवनी लिखने वालों का कहना है कि खदीजा सुलतान से दूरी की वजह से भारत में अली कुली वाले का आवास पीड़ा भरा रहा। जीवनियों में बताया गया है कि खदीजा  सुलतान, वाले से मिलने के लिए भारत जाने वाली थीं इसके लिए वह पहले कर्बला और फिर वहां से बसरा और बसरा से पानी के जहाज़ से भारत जाने के इरादे से घर से निकलीं किंतु पश्चिमी ईरान के किरमानशाह पहुंचने के बाद उनका निधन हो गया। कहते हैं कि यह खबर सुन कर वाले को इतना दुख पहुंचा कि वह कुछ ही महीने में परलोक सिधार गये। वाले दागिस्तानी का सन 1170 में 46 वर्ष की आयु में दिल्ली में निधन हुआ और उसी नगर में उन्हें दफ्न कर दिया गया किंतु अब उनकी क़ब्र का कहीं कोई निशान नहीं है।