इस्लामी क्रांति और समाज- 9
निकी केडी कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी सहित अनेक यूनिवर्सिटियों में ईरान और पश्चिम एशिया के इतिहास पढ़ाती हैं।
उन्होंने ईरान की इस्लामी क्रान्ति के बारे में अनेक किताबें लिखी हैं। केडी की किताब में जिन बिन्दुओं पर ध्यान दिया गया है वह यह कि ईरान में क्या विशेषताएं हैं जिसने इस देश को क्रान्ति जनक देश बना दिया है। केडी का मानना है कि क्रान्तिकारी या विद्रोही आंदोलन की संख्या की दृष्टि से मुसलमान, हिन्दु या ईसाई कोई भी देश ईरान जैसा नहीं है।
निकी केडी ईरान की इस्लामी क्रान्ति के तत्वों की समीक्षा में अनेक कारण का उल्लेख करती हैं। वास्तव में निकी केडी कई कारणों के संयोग को ईरान में इस्लामी क्रान्ति के वुजूद में आने में प्रभावी मानती हैं। उनका मानना है कि क़ाजारी शासन काल में पश्चिम के साथ ईरान के आर्थिक एवं राजनैतिक संबंध ईरान में व्यापक स्तर पर असंतोष का कारण बने और ईरानियों में साम्राज्यवाद और पश्चिम के ख़िलाफ़ एक तरह से नफ़रत पैदा हुयी। दूसरी ओर क़ाजारी दौर का ईरान अपनी भौगोलिक स्थिति, पारंपरिक फ़ोर्सेज़ की ओर से पैदा हुयी रुकावटों और क़ाजारी शासकों के विचार के कारण विकास न कर सका। इस पिछड़ेपन की वजह से आधुनिकीकरण की भावना तेज़ हुयी। इसलिए पहलवी शासन काल में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया ने तेज़ी पकड़ी।
निकी केडी उन लोगों में है जिनका मानना है कि ईरान की इस्लामी क्रान्ति की जड़ दो तत्वों में है। एक आर्थिक और दूसरा शाह की आधुनिकीकरण की कार्यवाही। इन तत्वों का विभिन्न सामाजिक वर्ग और गुटों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा और ये तत्व विभिन्न वर्गों व गुटों के दमन का कारण बने जिसके नतीजे में ये आर्थिक सुधार नाकाम हुए और क्रान्ति प्रकट हुयी। केडी इसी मान्यता के आधार पर ईरान की इस्लामी क्रान्ति का धार्मिक होना मानती हैं और उनका कहना है कि पहलवी शासन काल में बड़ी रफ़्तार से आधुनिकीकरण की कोशिश की वजह से व्यापक स्तर पर सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक असंतोष पैदा हुआ और यह आधुनिकीकरण जो ख़ास तौर पर मोहम्मद रज़ा शाह के शासन काल में पश्चिम पर निर्भर था, अगस्त 1953 के विद्रोह जैसे ईरान में पश्चिम की राष्ट्र विरोधी कार्यवाही सहित कुछ दूसरे क़दम, ईरान में साम्राज्यवाद विरोधी भावना के मज़बूत होने और धार्मिक व ग़ैर धार्मिक फ़ोर्सेज़ की ओर से विरोध का कारण बने। यह साम्राज्यवाद विरोधी भावना जनता में पुराने मूल्यों अर्थात ईरानी व इस्लामी पहचान की ओर पलटने का रुझान पैदा होने का कारण बनी। दूसरी ओर कुछ ऐसे गुट जिन्हें मोहम्मद रज़ा शाह की आर्थिक नीतियों से नुक़सान पहुंचा था, वे शहर की ओर आने और औद्योगिक कारख़ानों में काम करने वाले लोग थे और बड़े शहरों की सीमा पर जीवन बिता रहे थे, वे गांव से पलायन करने वाले लोग थे जो बाद में क्रान्ति में शामिल हो गए। चूंकि इन ग्रामवासियों में धार्मिक आदतें थीं, सांस्कृतिक दृष्टि से अपनी पहचान खो चुके थे और आर्थिक दृष्टि से बुरी हालत में थे, क्रान्ति में धार्मिक धड़ों की ओर उन्मुख हुए। वे इन आधुनिक शहरी जीवन की प्रक्रिया की तुलना में धार्मिक प्रक्रियाओं के अधिक निकट थे। इसलिए इन गुटों ने क्रान्ति को धार्मिक रूप देने में प्रभावी रोल निभाया। केडी की नज़र में मोहम्मद रज़ा शाह की ओर से लिब्रल और सोशियालिस्ट वर्ग के लोगों का दमन और कुछ ग़ैर धार्मिक क़दम की वजह से भी धार्मिक फ़ोर्सेज़ की प्रभावशाली मौजूदगी का मार्ग प्रशस्त हुआ और विरोधी धड़े का नेतृत्व धार्मिक नेतृत्व से मिल गया। अंत में साम्राज्यवाद विरोधी भावना, शीया आस्था और इमाम ख़ुमैनी जैसे करिश्माई नेतृत्व की भूमिका जनता के बड़े आंदोलन, शाही शासना के पतन और इस्लामी क्रान्ति की सफलता कारण बनी।
निकी केडी अपनी किताब में एक सवाल उठाती हैं कि ऐसा क्यों है कि संवैधानिक क्रान्ति कुछ राजनैतिक व प्रशासनिक मामलों के पश्चिमी होने का कारण बनी लेकिन इस्लामी क्रान्ति पहलवी शासन में बहुत से क्षेत्रों के पश्चिमी रंग रूप में ढलने के बावजूद प्रशासनिक क्षेत्रों के धार्मिक रंग रूप में होने का कारण बनी? केडी इस अहम सवाल के जवाब में इस बात की ओर इशारा करती हैं कि संवैधानिक क्रान्ति में क्रान्तिकारी फ़ोर्स ने शाही शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष किया जिसने विकास, आधुनिकीकरण और सुधार के क्षेत्र में बहुत कम काम किया था। जिसकी वजह से क्रान्तिकारी फ़ोर्स और बुद्धिजीवी वर्ग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि कुछ रीति रिवाजों का अनुसरण ही विकास व प्रगति का एकमात्र हल है। इसलिए नई फ़ौज का गठन, संविधान और क़ानून में सुधार उनकी कार्यसूचि में क़रार पाया ताकि इस तरह तानाशाही व्यवस्था की शक्ति सीमित हो क्योंकि उनकी नज़र में देश के विकास का मुख्य दुश्मन शाही शासन व्यवस्था थी।
केडी कहती है कि पहलवी शासन ने क़ाजारी शासन के ख़िलाफ़ क़दम उठाए और ईरान के पाश्चत्यकरण के लिए 50 साल काम किए। जिसके नतीजे में आधुनिकीकरण, शक्तिशाली सेना, आधुनिक अधिकार क़ानून और नई शिक्षा व्यवस्था वजूद में आयी लेकिन रीति रिवाजों पर पश्चिमी रंग चढ़ने की वजह से इस्लामी आस्था और व्यापारियों के हित ख़तरे में पड़ गए। ऐसे में ईरान अमरीका और इस्राईल का पिट्ठू बन चुका था। यहां तक कि लिब्रल संविधान का भी मनमानी कार्यवाही की वजह से उल्लंघन हुआ था। ईरानियों को पश्चिमी व्यवस्था और लिब्रल संविधान पर विश्वास नहीं रह गया था। पहलवी शासन की 50 साल की हुकूमत के अनुभव से उनके लिए पश्चिमी व्यवस्था का साम्राज्यवादी व अत्याचारी चेहरा और पहलवी शासन की निर्भरता साबित हो गयी थी। इसलिए उन्होंने ऐसे स्वदेशी हल की तलाश शुरु की जिसकी जड़ उनकी परंपराओं में निहित हो। इस स्थिति का हल ईरानियों को मूल ईरानी व इस्लामी मूल्यों की ओर पलटना नज़र आया। वास्तव में निकी केडी ईरान की इस्लामी क्रान्ति और दुनिया की अन्य बड़ी क्रान्तियों के बीच अंतर को ईरान में इस्लामी क्रान्ति में धर्म की केन्द्रीय भूमिका को मानती हैं। केडी की नज़र में धर्म ही वह तत्व था जिसकी वजह से लोग इस्लामी क्रान्ति के धारे से जुड़े। केडी कहती हैं कि पहलवी शासन में सभी सामाजिक संस्थाएओं और विभागों के पश्चिमी रंग में रंगने के बावजूद, इस्लामी क्रान्ति एक ऐसी गणतंत्र व्यवस्था लायी जिसका इस्लामी स्वरूप हो और उसका संविधान पूरी तरह इस्लामी क़ानून व शिक्षा पर आधारित हो।
निकी केडी का मानना है कि ईरान में धर्मगुरुओं और धार्मिक संस्थाओं ने ईरान में क्रान्तियों और जन विद्रोह में जनता को लाने में बहुत बड़ा रोल अदा किया कि जिसका स्रोत शीया मत और शिया आस्था थी। वे ईरान के इतिहास में राजनैतिक शक्ति में धर्मगुरुओं के रोल की अहमियत के बारे में लिखती हैः “अगर एक बड़ा मुजतहिद यह कह दे कि सरकार की अमुक नीति बदलनी चाहिए या यह कि अमुक शासक ग़लत व्यवहार कर रहा है, तो उस मुजतहित के अनुयायी उसकी बात मानते थे न कि केन्द्रीय सरकार की बात को।” शिया में मुजतहिद उस धर्मगुरु को कहते हैं जो पवित्र क़ुरआन, पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथन, बुद्धि और पिछले धर्मगुरुओं की सर्वसम्मति के आधार पर धार्मिक नियम प्रतिपादित करने में सक्षम हो।
निकी केडी की ओर से धर्मगुरु और धार्मिक संस्थाओं के रोल की अहमियत पर बल दिए जाने के बावजूद, उनके दृष्टिकोणों पर एक गंभीर सवाल यह उठता है केडी ने एक सुव्यवस्थित मॉडल के आधार पर ईरान के धार्मिक होने की वजह शिया धार्मिक संगठन और पहलवी की विकास व आधुनिकीकरण की राजनीति के बीच पारस्परिक प्रतिक्रिया को दर्शाने की कोशिश की। केडी अपनी किताब में यह दर्शाने की कोशिश करती हैं कि धार्मिक नेताओं व धर्मगुरुओं ने इसलिए पहलवी शासन के ख़िलाफ़ क़दम उठाया क्योंकि उसने धार्मिक संस्था को कमज़ोर कर दिया था। यह ऐसी हालत में है कि इस्लामी क्रान्ति के विचारकों व समीक्षकों की नज़र में केडी की यह समीक्षा सही नहीं है। पहली बात यह कि धार्मिक संस्थाओं के ख़िलाफ़ नीति और धर्मगुरुओं की सांस्कृतिक, आर्थिक व न्यायिक स्थिति के कमज़ोर होने की वजह रज़ा ख़ान यहां तक कि उससे पहले क़ाजारी दौर की ओर पलटती है जिससे धर्मगुरु अवगत थे और यह सयोंगवश नज़र आने वाली घटना नहीं थी कि इमाम ख़ुमैनी बदला लेने के लिए धार्मिक संस्था को पहलवी शासन के ख़िलाफ़ संगठित करते। दूसरी बात यह कि क्रान्ति में धर्मगुरुओं के साथ साथ आम लोगों की व्यापक भागीदारी की वजह को संगठनात्मक प्रतिस्पर्धा के मॉडल के ज़रिए पेश कर जनता की आर्थिक व मूल्यों से संबंधित अन्य भावना की अनदेखी नहीं की जा सकती। तीसरी बात जो केडी के दृष्टिकोण की काट करती है वह यह कि जो चीज़ शिया मत और इमाम ख़ुमैनी जैसी हस्ती के आम लोगों के बीच प्रिय होने का कारण बनी और वे उनके अनुसरण करने लगे वह संगठनात्मक प्रतिस्पर्धा, वित्तीय स्वाधीनता या पहलवी शासन की आधुनिकीकरण की नीति के नतीजे में धर्मगुरुओं के आर्थिक हितों के ख़तरे में पड़ने की वजह नहीं थी बल्कि उनका राजनैतिक दृष्टिकोण था जिसने शिया शिक्षाओं को आधार बनाकर पाश्चत्यकरण, अत्याचार, अत्याचारियों और अन्याय का डट कर मुक़ाबला किया
निकी केडी के ईरान की इस्लामी क्रान्ति के बारे में दृष्टिकोण पर एक और सवाल यह उठता है कि उनका मानना है कि पहलवी शासन अधर्मी और कम्नूनिस्ट लोगों का दमन कर रहा था और ऐसे लोगों को अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझ रहा था और धार्मिक फ़ोर्स की ओर से लापरवाह था और शाही शासन की इसी लापरवाही का धार्मिक फ़ोर्स ने फ़ायदा उठाकर, अपने बल को संगठित किया और शाही शासन के मुक़ाबले पर खड़ा कर दिया। निकी ने ऐसी हालत में यह दावा किया है कि पहलवी शासन ने सबसे ज़्यादा इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी पर कड़ी नज़र रखी और उन्हें लगभग 15 साल निर्वासित जीवन के लिए देश से बाहर भेज दिया। वास्तव में पहलवी शासन ने धार्मिक फ़ोर्स की ओर से लापरवाही नहीं बरती बल्कि ईरान और ईरानी जनता पर पश्चिमी रंग चढ़ाने पर उसके आग्रह की वजह से लोग इस्लामी व ईरानी पहचान की रक्षा के लिए धर्मगुरुओं की ओर उन्मुख हुए कि जिसके नतीजे में 1979 में भव्य इस्लामी क्रान्ति सफल हुयी।