Oct २९, २०१८ १६:११ Asia/Kolkata

अमरीका के कैलीफ़ोर्निया विश्व विद्यालय में समाज शास्त्र के प्रोफ़ेसर जॉन फ़ोरान  है जो नई पीढ़ी या क्रांति के क्षेत्र की चौथी पीढ़ी के प्रसिद्ध विचारकों में हैं।

वह उन बुद्धिजीवियों में थे जिन्होंने ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद, क्रांतियों को बयान करने में अपने दृष्टिकोणों की विफलता और इस बारे में नया दृष्टकोण पेश करके ईरान में घटने वाली घटनाओं की समीक्षा की है। उनके ध्यान का महत्वपूर्ण बिन्दु यह था कि तीसरी पीढ़ी के दृष्टिकोणों के नाम से उस समय में प्रचलित दृष्टिकोणों से उनके दृष्टिकोण ढांचागत रूप से बहुत अधिक प्रभावित थे। वे ईरान में वास्तविक स्थिति की समीक्षा करने में थे।

तीसरी पीढ़ी द्वारा क्रांति से संबंधित चर्चा के अंत में, धीरे धीरे एक दूसरे से जुड़े हुए चर्चा के दो नए केन्द्रों पर गंभीरता से ध्यान दिया गया। एक क्रांति पैदा करने वाले मानवीय तत्व या क्रांति में शामिल लोग या उनके बीच बनने वाले गठबंधन की भूमिका और दूसरा क्रांतियों में संस्कृतियों या विचारों की भूमिका। वास्तव में यदि इन दो नये बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाए और क्रांति में विचारों और संस्कृतियों की भूमिकाओं पर बल दिया जाए जिसको फ़ोरान ने एक क्रांतियों को एक नये अंदाज़ से विभाजित किया है और क्रांति की चौथी पीढ़ी को अस्तित्व प्रदान करने और उसके गठन का प्रयास किया है।

फ़ोरान के अनुसार क्रांति एक प्रक्रिया है जिसके कई कारण होते हैं। यही कारण है कि फ़ोरान ने अपने दृष्टिकोणों में राजनैतिक तत्वों के साथ साथ सांस्कृतिक और आर्थिक कारकों पर भी ध्यान दिया और क्रांति को इन कारकों की उपज और परिणाम बताया है। यही वजह है कि वह ईरान की क्रांति की समीक्षा के लिए मिलाजुला नज़रिया पेश किया।  फ़ोरान ईरान की इस्लामी क्रांति को तीसरी दुनिया के लिए पहले उदाहरण के रूप में याद करते हैं जो पूरी तरह उनका मॉडल है।

जॉन फ़ोरान का मनना है कि एक क्रांति को अस्तित्व में आने के लिए तीन चीज़ें बहुत ज़रूरी है। सरकारी दमन, विभिन्न संस्कृतियों का अस्तित्व और किसी ऐतिहासिक घटना से पैदा होने वाला संकट जिसके दो कारण है, एक आंतरिक आर्थिक पतन और वैश्विक व्यवस्था से तनाव।

जॉन फ़ोरान, सरकार के बारे में थेडा स्कॉचपॉल के दृष्टिकोण से लाभ उठाते हैं जिसमें वह कहती हैं कि सरकार, एक स्वयंभू ढांच है और यह वर्गीय संघर्ष का कोई मैदान नहीं है। उनका मनना है कि जितना सरकार के लिए औद्योगिक विकास में प्रगति हेतु अनुभव आवश्यक है उसी तरह संबंधित क्षेत्रों में निर्भर विकास की प्रक्रिया भी महत्वपूर्ण है।

वास्तव में फ़ोरान का मनना है कि पहलवी शासन काल में ईरान जैसे देशों में सरकारें निर्भर विकास के रास्ते पर चल पड़ी थीं । निर्भर विकास के समर्थकों का मानना है कि तीसरी दुनिया के देशों के निर्भर सामाजिक ढांचे, विदेशी पूंजीविनेशकों के उत्पादों की शैली से प्रभावित होकर घरेलू पूंजीनिवेशकों से पहले वाली स्थिति हासिल कर लेते हैं। समय बीतने के साथ साथ, यह घरेलू और  विदेशी कारकों के टकराव के कारण, जटिल वर्गीकरण ढांचा अस्तित्व में आ जाता है जो पूंजीवाद और पूंजीवादी व्यवस्था का मिश्रण होता है।  इस प्रक्रिया के अंतर्गत अर्थव्यवस्था भी और परिवर्तन का दौर भी मजब़ूत हुआ और यह प्रक्रिया निर्भर विकास है। निर्भर विकास, आर्थिक विकास की प्रक्रिया है जो एक या कुछ पूंजीनिवेश देशों पर निर्भर होने के कारण कुछ सीमित्ताओं का सामना करते हैं। निर्भर विकास के लिए संभव है कि विकास के कुछ मापदंडों से संपन्न हो किन्तु इससे बेरोज़गारी, आर्थिक मंदी तथा वांछित नागरिक सेवा तक न पहुंच जैसे कुछ नकारात्मक परिणाम समाज में व्यापक रूप से फैलने लगते हैं।

जॉन फ़ोरन के अनुसार जब निर्भर विकास का आदर्श प्राप्त हो जाए लेकिन हमेशा नहीं, तो दमनकारी सरकार की आवश्यकता होती है जो समाज की आज़ाद शक्तियों को अपनी नज़र में रख सके। इसीलिए फ़ोरन का कहना है कि ईरान सहित इन देशों की सरकारें आर्थिक, समाजिक और राजनैतिक विकास में प्रथम भूमिका रखती हैं और इसी भूमिका के कारण सरकार बहुत से सामाजिक मामलों में उलझ कर रह जाती है।  दूसरी ओर ईरान में शाही और दरबारी सरकार को मिलाकर एक अलग प्रकार की सरकार थी जहां पर समाज का एक ख़ास वर्ग सरकारी संसाधनों पर जमा हुआ था और समाज का दूसरा वर्ग एकदम वंचित था। इस चीज़ ने शाह की सरकार को गिराने की प्रक्रिया और भी सरल बना दी।

 

जॉन फ़ोरान की नज़र में क्रांति व्यवहारिक होने की दूसरी शर्त जो ईरान की इस्लामी क्रांति में भी पायी जाती है, विरोधी संस्कृति का अस्तित्व में आना है। जॉन फ़ोरान इस संबंध में लिखते हैं कि दमनकारी सरकारें और उनके विदेशी समर्थक, मजबूरवश विरोधी मोर्चे के लिए भूमिका तैयार करते हैं जो समाज में मौजूद राजनैतिक संस्कृति को अपना समर्थक समझते हैं। जॉन फ़ोरम के अनुसार, दृढ़ व प्रतिरोधक संस्कृतियां, अवांछित और वांछित दों ही परिस्थितियों में एक प्रकार से राजनैतिक व्यवकारिक रूप से एक दूसरे से जुड़ जाती हैं। वास्तव में फ़ोरन के अनुसार दमनकारी सरकारों का गठन, सरकार विरोधी संस्कृति और मोर्चे के अस्तित्व में आने की भूमिका बनता है और दमनात्मक कार्यवाहियां और उनका विरोध, क्रांति लाने की मुख्य भूमिका प्रशस्त करता है यह परिस्थितियां, ईरान में इस्लामी क्रांति के आने से पहले पायी जाती थीं।  

जॉन फ़ोरन के अनुसार तीसरी दुनिया में क्रांति आने की एक अन्य शर्त विदेशी शक्तिशाली खिलाड़ियों भी भूमिका से संबंधित है। फ़ोरन का मानना है कि तीसरी दुनिया के देशों में क्रांति सफल होने के लिए, असमानता के अतिरिक्त, ढांचागत समस्याएं, उसके जवाब में एक या कुछ प्रतिरोधक राजनैतिक सांस्कृतिक शुरु करना और एक द्विपीक्षय संकट का होना आवश्यक है। आंतरिक अर्थव्यवस्था का पतन और वह होना जिसे वह वैश्विक व्यवस्था के फैलने का नाम देते हैं। अमरीकी प्रोफ़ेसर ईरान और अमरीका के ऐतिहासिक संबंधों और ईरान की इस्लामी क्रांति पर इस संबंध के पड़ने वाले प्रभाव की समीक्षा करते हुए लिखते हैं कि अमरीका 1953 में सैन्य विद्रोह करवा कर ईरान में बिना प्रतिस्पर्धी के एक शक्ति के रूप में उभरा और वह ब्रिटेन का उतराधिकारी बन गया। उसने हर हाल में हर समय पहलवी शासन का समर्थन किया किन्तु फ़ोरान के अनुसार 57 की क्रांति में अमरीका को अपने दमनकारी क्षेत्रीय घटक मुहम्मद रज़ा शाह के समर्थन में शंका पैदा हो गया और यह छोटा मौक़ा विरोधियों को हाथ लग गयी और उसके कुछ ही समय बाद वर्ष 1981 में रोलन्ड रीगन के सत्ता में पहुंचने से यह भी समाप्त हो गया। ईरान के मामले में अमरीका की यह थोड़ी से लापरवाही, आंतरिक शक्ति के निखरने और उभरने की भूमिका बनी और फ़ोरन के अनुसार यह चीज़, ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता की वजह बनी। फ़ोरन के अनुसार इस व्यवस्था की शक्ति का केन्द्र, ईरान पर अतिक्रमण और हस्तक्षेप बन गया।

 

ईरान की इस्लामी क्रांति के बारे में जॉन फ़ोरन के दृष्टिकोणों की समीक्षकों द्वारा महत्वपूर्ण आलोचनाएं हुई हैं। उनमें से एक यह है कि उन्हें ईरान में इस्लामी क्रांति के आने के कारणों और देश की आंतरिक स्थिति की अधिक पहचान नहीं है और उन्होंने ईरान में इस्लामी क्रांति से टकराव के लिए अमरीका के कुछ न करने पर बहुत अधिक बल दिया। जॉन फ़ोरन का यह दावा ऐसी स्थिति में है कि अमरीकी अधिकारियों की डायरियों सहित अमरीका के बहुत से सूत्रों ने बयान किया है कि अमरीकी सरकार ने अंतिम क्षण तक पहलवी शासन को बचाने के लिए अपने किसी भी प्रकार के प्रयास से संकोच नहीं किया। क्षेत्र में पहलवी शासन, रिचर्ड निक्सन की दो स्तंभो वाली नीतियों में से एक स्तंभ था। उन्होंने यह दावा किया कि अमरीकी सरकार ने क्रांतिकारियों के मुक़ाबले में पहलवी शासन का समर्थन नहीं किया जबकि पुष्ट प्रमाणों और सबूतों के आधार पर यह बिल्कुल ग़लत है। इस संबंध में वर्ष 1977 में ईरान में अमरीकी दूतावास के राजनैतिक विश्लेषक जान डी स्मिथ की रिपोर्ट देखी जा सकती है जिनके बारे में कहा जाता है कि वह अधिकतर अमरीकी लक्ष्यों के लिए ही ईरान में काम करते थे। वह अपनी किताब में लिखते हैं कि अमरीकी सरकार ने क्रांति के समय, हर वक्त और हर जगह, यहां तक कि जब विश्व समुदाय क्रांतिकारियों का दमन करने के लिए शाह की आलोचना कर रहा था, उस समय भी शाह का समर्थन जारी रखा।

 

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