Dec ०३, २०१८ १३:३१ Asia/Kolkata

ईरान की इस्लामी क्रान्ति और इसके घटित होने के कारण की समीक्षा करने वाले मशहूर लोगों में एक प्रोफ़ेसर हामिद अल्गार भी हैं।

उन्होंने 19वीं शताब्दी के ईरान के बारे में अध्ययन किया है।

हामिद अल्गार ब्रितानी विचारक हैं जिन्हें फ़ार्सी भाषा की पूरी समझ हैं। उन्होंने तेहरान यूनिवर्सिटी से डॉक्ट्रेट करने के लिए ईरान का सफ़र किया था लेकिन उस वक़्त क्रान्ति की लहर से प्रभावित माहौल और यूनिवर्सिटी पर हमले की वजह से वे इंग्लैंड वापस चले गए। वहां जाकर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से डॉक्ट्रेट की शिक्षा पूरी की। उन्होंने मशहूर विचारक मीशल फ़ूको से बहुत पहले ईरानी शहरों का भ्रमण किया। उन्होंने इस तरह ईरानी शहरों व स्थलों का भ्रमण किया कि इस बारे में उनका कहना है कि ईरान में शायद ही ऐसी कोई जगह होगी जहां वह न गए हों।

ईरान में इस्लामी क्रान्ति की प्रक्रिया का इस हद तक डॉक्टर अल्गार पर असर पड़ा कि उन्होंने अपनी डॉक्ट्रेट की थिसेज़ का विषय "19वीं ईसवी में शिया धर्मगुरु का राजनैतिक रोल" चुना। उन्होंने इस विषय को चुनने का कारण 1963 में इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के नेतृत्व में शुरु हुयी इस्लामी क्रान्ति को बताया। अलबत्ता उन्होंने इस किताब में क़ाजारी दौर में धर्मगुरुओं के रोल के बारे में भी इशारा किया है। हामिद अल्गार उन गिने चुने विचारकों में हैं जिन्होंने इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह से पेरिस में मुलाक़ात की थी। उन्होंने क्रान्ति की सफलता के बाद भी कई बार इमाम ख़ुमैनी से ईरान में मुलाक़ात की थी।

डॉक्टर अल्गार के बारे में एक अहम बिन्दु यह है कि उन्होंने 1981 में इमाम ख़ुमैनी के भाषण और लेखों का अंग्रेज़ी भाषा में अनुवाद किया जिसका शीर्षक है "इस्लाम और क्रान्ति।" उन्होंने 1983 में एक किताब लिखी जिसका शीर्षक है "ईरान में इस्लामी क्रान्ति की जड़ें"। इसके अलावा हामिद अल्गार ने इमाम ख़ुमैनी के वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व के बारे में किताब और उस्ताद शहीद मुर्तज़ा मुतह्हरी की कई किताबों का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। हामिद अल्गार ईरान की इस्लामी क्रान्ति को तत्कालीन इस्लामी इतिहास की सभी घटनाओं में सबसे ज़्यादा अहम, प्रभावी व आशा की किरण पैदा करने वाली घटना मानते हैं।

 

प्रोफ़ेसर हामिद अल्गार ईरान की इस्लामी क्रान्ति को धार्मिक दृष्टिकोण से देखते हैं वे इस क्रान्ति की जड़ को धर्म में निहित मानते हैं। इंग्लैंड का यह मशहूर विचारक ईरान की इस्लामी क्रान्ति के आधारों के बारे में कहता हैः "इस्लामी क्रान्ति का सीधा संबंध शियों की नज़र में इमामत के विषय और पैग़म्बरे इस्लाम के अंतिम उत्तराधिकारी हज़रत इमाम महदी की अनुपस्थिति और उसके राजनैतिक परिणाम से जुड़ी हुयी है, जिसका साक्षात उदाहरण वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व है।"

इसके बाद अल्गार यह दृष्टिकोण पेश करते हैं कि इमाम ख़मैनी रहमतुल्लाह अलैह का नेतृत्व और उनके द्वारा इस्लाम की व्याख्या का ईरान की इस्लामी क्रान्ति के वजूद में आने में प्रभावी रोल रहा है। वास्तव में हामिद अल्गार के दृष्टिकोणों पर इस्लामी क्रान्ति के जिस आयाम का सबसे ज़्यादा असर पड़ा है वह शिया धार्मिक नेतृत्व है। जैसा कि वह इस्लामी क्रान्ति के सफल होने के बाद अपनी थिसेज़ के बारे में जो एक केताब बन गयी, कहते हैः "यह किताब वह किताब है जो कुछ हद तक अनुभव की कमी की वजह से लिखी गयी और अगर अब उसे फिर से लिखना हो तो मैं उसमें वर्णित बहुत सी बातों व समीक्षाओं  को बदल दूंगा।" दूसरे शब्दों में अल्गार इस्लामी क्रान्ति में धार्मिक नेतृत्व के रोल से प्रभावित हैं और इस समीक्षा को उन्होंने अपनी डॉक्ट्रेट की थिसेज़ में पेश किया है। क्योंकि वह इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि शिया मत और इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व का एक परंपरा के साक्षात रूप और इस्लाम का विचारधारा के रूप में इस्लामी क्रान्ति के घटने में मुख्य रोल रहा है।

 

हामिद अल्गार ईरान में इस्लामी क्रान्ति के घटने में इमाम ख़ुमैनी के रोल के बारे में कहते हैः "मैं 1970 में कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी में आयोजित एक कॉन्फ़्रेंस में मौजूद था जो ईरान से जुड़े मामलों के बारे में थी। मैंने पहलवी शासन काल में धार्मिक नेतृत्व के रोल पर रिसर्च पेपर पेश किया जिसमें मैने 1963 के आंदोलन और इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व पर बल दिया था। मुझे अच्छी तरह याद है कि उस कॉन्फ़्रेंस में मौजूद सभी ईरानविदों ने मेरे विचार को रद्द किया था और कहा था कि अब ईरान में धर्मगुरुओं का कोई रोल नहीं होगा और आयतुल्लाह ख़ुमैनी को ईरानी भूल गए हैं और कोई ईरानियों की बात सुनने के लिए तय्यार नहीं है लेकिन जो कुछ बाद में हुआ उससे मेरे नज़रिये की पुष्टि हुयी।"

डॉक्टर अल्गार इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के स्वर्गवास के बाद कहते हैः "इमाम ख़ुमैनी को मीडिया के ज़रिए नहीं पहचनवाया जा सकता। उनका मूल संदेश मुसलमानों से यह है कि वे अमरीकी व पश्चिमी साम्राज्यवाद ख़ास तौर पर ज़ायोनीवाद का मुक़ाबला करें और इस मार्ग में किसी तरह के डर व संदेह को अपने मन में जगह न दें।" वह इसी तरह इस विषय की ओर इशारा करते हुए स्वीकार करते हैः "इमाम ख़ुमैनी के वजूद के कुछ आयाम ग़ैर मुसलमान नहीं समझ सकते। उसी तरह जिस तरह कोई इमाम ख़ुमैनी के अध्यात्म से संबंधित किताबों से फ़ायदा उठाना चाहे तो उसके लिए ज़रूरी है कि इस क्षेत्र में उसके पास कुछ मूल जानकारी व ज्ञान हो। अगर कोई इमाम ख़ुमैनी के व्यक्तित्व को पूरी तरह समझना चाहता है तो ज़रूरी है कि उसे इस्लाम की जानकारी हो। हम क्यों इमाम को चाहते हैं? उनका क्यों सम्मान करते हैं? हर साल उनकी बरसी श्रद्धा से क्यों मनाते हैं? क्योंकि उनका व्यक्तित्व, उनका ऐतिहासिक योगदान सिर्फ़ ईरान के लिए नहीं सिर्फ़ किसी विशेष समयावधि के लिए नहीं था, बल्कि इस्लाम के संपूर्ण आयाम का प्रतिबिंबन है। अगर कोई इस्लाम को हटा कर इमाम ख़ुमैनी को समझना चाहे तो नहीं समझ पाएगा। यही वजह है कि पश्चिमी समीक्षकों ने जो कुछ इमाम ख़ुमैनी और क्रान्ति के बारे में लिखा है उनकी बातों का कोई असर नहीं हुआ और न ही होगा।"

हामिद अल्गार इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के बारे में एक और विषय की ओर इशारा करते हैं जिसे वह बहुत अहम समझते हैं, वह आम लोगों को संगठित करने की उनकी क्षमता है। हामिद अल्गार इस बारे में कहते हैः "हालांकि कभी कभी वह ईरान के भीतर लोगों की रणनीति के बारे में आंशिक रूप से अनुशंसाओं को स्वीकार करते थे लेकिन मूल निर्णय ख़ुद लेते थे। शाही शासन के ख़त्म होने और एक इस्लामी सरकार के गठन पर उनके आग्रह ने शाह के साथ साठगांठ में विश्वास रखने वालों को चुप कर दिया। अगर इमाम आग्रह न करते, जनता की निष्ठा की रक्षा और लोगों से अपना आज्ञापालन कराने की उनमें क्षमता न होती तो एक क्रान्ति सफल होने के बजाए, सरकार विरोधी फ़ोर्सेज़ के बीच टकराव की एक और मिसाल बन कर बिना किसी ठोस नतीजे के ईरान के इतिहास के पन्नों में कहीं गुम हो जाती।"

हामिद अल्गार इस हद तक ईरान के हालात की छोटी बड़ी घटनाओं और ईरानी समाज की विशेषताओं से परिचित हैं कि वह ईरान में इस्लामी क्रान्ति के धार्मिक आयाम की समीक्षा में मस्जिद को शासन के ख़िलाफ़ जनता के उठ खड़े होने का मुख्य बिन्दु मानते हैं। प्रोफ़ेसर अल्गार ईरान में इस्लामी क्रान्ति में मस्जिद के रोल की समीक्षा में लिखते हैः "मस्जिद इस्लामी क्रान्ति को वजूद देने में मूल स्थान रखती है। इस्लामी क्रान्ति की सफलता में एक अहम तत्व मस्जिद के रोल को फिर से जीवित करना और उसके तमाम व्यवहारिक आयाम का इस्तेमाल था। मस्जिद की हैसियत उस स्थान की नहीं रह गयी थी जहां समाज से फ़रार होकर शरण ली जाए बल्कि मस्जिद संघर्ष का केन्द्र बन चुकी थी। कुल मिलाकर यह कि मस्जिद पैग़म्बरे इस्लाम के दौर की मस्जिद बन चुकी थी।" हामिद अल्गार ने मस्जिद के बारे में जो कुछ कहा है वह क्रान्ति की प्रक्रिया के दौरान इस धार्मिक केन्द्र की उपयोगिता का वर्णन है। वह इस मुख्य जुमले की ओर इशारा कर रहे हैं कि मस्जिद दुनिया से भाग कर शरण लेने की जगह नहीं थी बल्कि संघर्ष का केन्द्र थी। इस्लामी क्रान्ति के दौरान मस्जिद की इस उपयोगिता का वर्णन यह दर्शाता है कि प्रोफ़ेसर हामिद अल्गार को इस्लामी क्रान्ति से पहले के हालात, इस्लामी क्रान्ति के धार्मिक स्वरूप, ईरानी समाज की एक के नीचे एक विभिन्न परतों तथा इस समाज की धार्मिक पहचान की पूरी समझ है।

इस बात में शक नहीं करना चाहिए कि इस्लामी क्रान्ति के वजूद में आने में जनता की ओर से उनका साथ और आज्ञापालन मूल विशेषता थी। इस्लामी क्रान्ति एक जनक्रान्ति थी और यह बात हामिद अल्गार के विचारों में जगह जगह नज़र आती है। प्रोफ़ेसर अल्गार ने इस्लामी क्रान्ति के बारे में अनेक किताबें लिखी हैं। वह ईरान की इस्लामी क्रान्ति को वजूद देने में जनता के रोल के बारे में कहते हैः "इस्लामी क्रान्ति की एक विशेषता बड़े पैमाने पर आम लोगों की इसमें भागीदारी थी। फ़्रांस, रूस और चीन की क्रान्तियों के समय क्रान्ति को हमेशा गृह युद्ध का सामना था।" दूसरे शब्दों में इस्लामी क्रान्ति के बारे में जानकार इस मशहूर विचारक की नज़र में, गृह युद्ध नहीं था जो इस्लामी क्रान्ति के वजूद में आने की वजह बना बल्कि यह आम लोगों की व्यापक स्तर पर भागीदारी थी जिसने इस्लामी क्रान्ति को वजूद दिया। वास्तव में हामिद अल्गार धार्मिक नेतृत्व से जनता की संबंध के ओर इशारा करते हुए इसे इस्लामी क्रान्ति की सफलता की कुंजी बताते हैं जिसे ईरान की इस्लामी क्रान्ति की जड़ों के बारे में अल्गार के दृष्टिकोण का आधार समझा जाता है।

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