Dec ०३, २०१८ १७:०६ Asia/Kolkata

ईरान की इस्लामी क्रान्ति की विशेष रूप से समीक्षा करने वाली अहम हस्तियों में यर्वान्द आब्राहामियान भी हैं।

वह ईरानी मूल के विचारक हैं। वह तेहरान में पैदा हुए लेकिन 10 साल की उम्र में इंग्लैंड चले गए और एम ए की शिक्षा पूरी करने तक वहीं रहे। उन्होंने कोलंबिया यूनिवर्सिटी से डॉक्ट्रेट किया। उन्होंने प्रिन्सटन और ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाया और इस समय वह न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में भी पढ़ा रहे हैं। उनकी मशहूर किताब का शीर्षक "दो क्रान्तियों के बीच ईरान" है। इस किताब में ईरान में 1285 हिजरी शम्सी में आयी संवैधानिक क्रान्ति और इस्लामी क्रान्ति के बीच 70 साल में घटने वाली घटनाओं और मामलों की समीक्षा की गयी है।

इस्लामी क्रान्ति का यर्वान्द आब्राहामियान के विचारों पर बहुत असर पड़ा है। यर्वान्द आब्राहामियान इस्लामी क्रान्ति से पहले इस विषय की समीक्षा कर रहे थे कि ईरान के धार्मिक समाज में किस तरह तूदे पार्टी ने व्यापक स्तर पर जगह बनायी। लेकिन इस्लामी क्रान्ति आने से यर्वान्द आब्राहामियान के शोध का आधार बदल गया और उन्होंने ईरान की इस्लामी क्रान्ति की सफलता और उसकी पृष्ठिभूमि बनने में धर्म के रोल की समीक्षा की है।

यर्वान्द आब्राहामियान अपनी किताब "दो क्रान्ति के बीच ईरान" में संवैधानिक क्रान्ति और इस्लामी क्रान्ति के बीच अंतर को बयान करते हुए कहते हैः "बीसवीं शताब्दी में ईरान में दो अहम क्रान्तियां संवैधानिक और इस्लामी क्रान्ति आई। पहली क्रान्ति में आधुनिक विचार रखने वाले बुद्धिजीवियों को अल्पावधि के लिए ही सही, सफलता मिली। इन बुद्धिजीवियों ने पश्चिम के राष्ट्रवादी, उदारवादी और समाजवादी विचारों से प्रभावित होकर ऐसा संविधान बनाया जिसमें धर्म को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया गया था और वे अपने समाज का पुनर्निर्माण समकालीन योरोपीय समाज के अनुसार करने की उम्मीद संजोए हुए थे। लेकिन इस्लामी क्रान्ति की सफलता के साथ ही धर्मगुरु मैदान में आ गए। ऐसे धर्मगुरु जिनकी प्रेरणा का स्रोत इस्लाम का स्वर्णिम दौर था। उन्होंने अपनी सफलता को पूरी तरह धार्मिक मूल्यों पर आधारित संविधान के संकलन के ज़रिए सुनिश्चित किया। मौजूदा अदालतों की जगह पर शरीया अदालत क़ायम की, पश्चिम के प्रजातंत्र जैसे विचारों को नास्तिक विचार मानते हुए उसकी आलोचना की।" यर्वान्द आब्राहामियान बल देते हुए कहते हैः "यह एक हक़ीक़त है कि समकालीन इतिहास में इस्लामी क्रान्ति एक अभूतपूर्व घटना है जिसने एक ऐसे सामाजिक गुट को नहीं जिसे विभिन्न इस्लामी दलों और ग़ैर धार्मिक विचारधाराओं वाले गुटों का समर्थन हासिल हो बल्कि ऐसे पारंपरिक धर्मगुरुओं को सत्ता में पहुंचाया जिनके पास मिंबर था और वे वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व के ईश्वर के प्रतिनिधि होने के रूप में इस बात के दावेदार थे कि आम अधिकारियों के क्रियाकलापों यहां तक कि राष्ट्र द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों पर आधारित सबसे बड़ी संस्था पर भी निगरानी का उन्हें अधिकार है।"

यर्वान्द आब्राहामियान इस्लामी क्रान्ति की सफलता के अहम तत्वों को बयान करते हैं लेकिन इसके पीछे वह पहला कारक पहलवी शासन द्वारा असंतुलित विकास को मानते हैं। यर्वान्द आब्राहामियान अपनी किताब में जिसका फ़ार्सी में भी अनुवाद हो चुका है, कहते हैं कि इस्लामी क्रान्ति की सफलता के कारण के बारे में दो अलग अलग विचार मौजूद हैं जो पहलवी शासन के समर्थकों व विरोधियों की ओर से पेश किए गए हैं।  

पहलवी शासन के समर्थकों का मानना है कि इस्लामी क्रान्ति इस वजह से सफल हुयी कि शाह की आधुनिकीकरण की प्रक्रिया सीमा से ज़्यादा तेज़ व व्यापक थी जबकि ईरानी जनता पारंपरिक जीवन की आदी थी। पहलवी शासन के विरोधियों का भी यह मानना है कि मोहम्मद रज़ा शाह की ओर से अपर्याप्त आधुनिकीकरण और राष्ट्रवादी, प्रजातांत्रिक और निष्पक्षता के दौर में उसका सीआईए का एजेन्ट होना इस्लामी क्रान्ति की सफलता के मुख्य कारण थे।

 

यर्वान्द आब्राहामियान अलग ही वर्णन पेश करते है। वह कहते हैं कि मोहम्मद रज़ा शाह ने सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र को आधुनिक बनाया और नए मध्यम वर्ग व औद्योगिक मज़दूर वर्ग को विस्तृत किया लेकिन राजनीति के क्षेत्र में वह बदलाव नहीं ला पाया और उसकी इस अक्षमता की वजह से राजनैतिक व्यवस्था और जनता के बीच संपर्क का मार्ग बंद हो गया, सत्ताधारी वर्ग और आधुनिक सामाजिक फ़ोर्सेज़ के बीच खाई बढ़ गयी, और इससे भी अहम बात यह कि उसने संपर्क के उन छोटे छोटे पुलों को उजाड़ दिया जो अतीत में राजनैतिक संस्था और पारंपरिक सामाजिक फ़ोर्सेज़ ख़ास तौर पर बाज़ार और वरिष्ठ धर्मगुरुओं को आपस में जोड़े हुए थे। इस तरह 1356 हिजरी शम्सी में सामाजिक आर्थिक व्यवस्था और अविकसित राजनैतिक व्यवस्था के बीच खाई इतनी चौड़ी हो गयी कि पूरे शासन को गिराने के लिए एक आर्थिक संकट काफ़ी था। इसलिए क्रान्ति सीमा से अधिक विकास और न ही अविकास बल्कि असंतुलित विकास की वजह से घटी।

यर्वान्द आब्राहामियान पहलवी शासन की धर्म विरोधी नीतियों को इस्लामी क्रान्ति के घटने का दूसरा अहम कारण बताते हैं। आब्राहामियान रस्ताख़ेज़ पार्टी के गठन को पहलवी शासन की धर्म विरोधी नीतियों में निर्णायक मोड़ मानते हैं और इस्लामी क्रान्ति के वजूद में आने में धर्म के प्रभाव के बारे में लिखते हैः "शासन ने धर्म के ख़िलाफ़ व्यापक हमला शुरु किया। रस्ताख़ेज़ पार्टी ने शाह को राजनैतिक व आध्यात्मिक नेता के रूप में और धर्मगुरुओं को मध्ययुगीन काल के रूढ़ीवादियों के रूप में पहचनवाया और इस दावे के साथ कि ईरान महासभ्यता की ओर बढ़ रहा है, इस्लामी कैलेन्डर की जगह 2535 वर्षीय शाही कैलेन्डर ने ले ली। इस तरह ईरान ने एक ही रात में वर्ष 1355 हिजरी शस्मी से 2535 शाही वर्ष में छलांग लगायी। रस्ताख़ेज़ पार्टी के कार्यकर्ता महिलाओं को विद्यालयों में इस्लामी आवरण छोड़ने के लिए उकसाते थे, विशेष निरीक्षकों को धार्मिक वक़्फ़ संपत्तियों की समीक्षा के लिए भेजते थे। इस पार्टी ने एलान किया था कि सिर्फ़ वक़्फ़ बोर्ड को धार्मिक किताबों के प्रकाशन का अधिकार है और तेहरान युनिवर्सिटी के धर्मशास्त्र के संकाय को प्रेरित किया कि वह नवगठित सिपाहे दीन को विस्तृत करे और सच्चे इस्लाम के प्रशिक्षण के लिए ख़ास तौर पर ग्रामवासियों के लिए ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को गांव भेजे। वास्तव में यह पहलवी शासन की धर्म विरोधी नीति का कुछ भाग है जिसका यर्वान्द आब्राहामियान ने अपनी किताब "ईरान दो क्रान्तियों के बीच" में वर्णन किया है और इन नीतियों को इस्लामी क्रान्ति के गठित होने का अहम कारण बताया।

 

यर्वान्द आब्राहामियान अपनी किताब में इस्लामी क्रान्ति को वजूद देने में इस्लाम की भूमिका के बारे में इशारा करते हुए लिखते हैः "1357 की क्रान्ति में इस्लाम ने जो अहम रोल निभाया वह यह कि उसने इस प्रचलित दृष्टिकोण को ग़लत साबित कर दिया कि आधुनिकीकरण की वजह से धर्म से दूरी, नए वर्गों को मज़बूत बनाने के लिए शहर का विस्तार और पारंपरिक वर्ग कमज़ोर होता है।"

यर्वान्द आब्राहामियान इस्लामी क्रान्ति से पहले वैचारिक रूप से बड़ी हद तक मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे। इसके अलावा यह कि वह पहलवी शासन की धर्म विरोधी नीतियों को इस्लामी क्रान्ति के घटिन होने में महत्वपूर्ण तत्व मानते हैं, इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के नेतृत्व को विशेष रूप से अहमियत देते हैं और यह यर्वान्द आब्राहामियान के विचारों पर इस्लामी क्रान्ति के प्रभाव हैं।

आब्राहामियान इमाम ख़ुमैनी की हस्ती के वर्णन और इस्लामी क्रान्ति के घटित होने में उनकी शख़्सियत के प्रभाव के संबंध में एक अहम बिन्दु की ओर इशारा करते है। हालांकि वह इस्लामी क्रान्ति के घटित होने में इमाम ख़ुमैनी के रोल को सोवियत रूस की क्रान्ति में लेनिन, चीन की क्रान्ति में माओ और क्यूबा की क्रान्ति में कैस्ट्रो के रोल से तुलना करते हुए लिखते हैः "दो तत्वों से आयतुल्लाह ख़ुमैनी की व्यापक लोकप्रियता स्पष्ट होती है। पहला तत्व आयतुल्लाह ख़ुमैनी की शख़्सियत और उनका सादा जीवन तथा शाह के साथ किसी तरह की साठगांठ से दूरी। ऐसा देश जहां ज़्यादातर राजनेता भोग विलास का जीवन बिता रहे हों, आयतुल्लाह ख़ुमैनी का जीवन सूफ़ियों की तरह था। उनके पास भी आम लोगों की तरह भौतिक सुविधा नहीं थी। ऐसा समाज जिसमें राजनेताओं के पल पल चेहरे बदलते हों, साज़िशें रचते हों और भाई भतीजावाद से ग्रस्त हों, आयतुल्लाह ख़ुमैनी किसी भी तरह की साठगांठ को रद्द करते थे। उनका मानना था कि वह अपनी संतान को भी मौत की सज़ा देंगे अगर वह इस तरह की सज़ा के योग्य पाए गए और सदाचारियों की तरह विदित शक्ति के बजाए आध्यात्मिक शक्ति के लिए कर्म करते थे। इसी तरह जिस दशक में राजनेता अपने भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात हों वह ईमानदार, संघर्षशील और दृढ़ संकल्प जैसी विशेषताओं के साथ मैदान में उतरे। कुल मिलाकर यह कि वह ऐसे क्रान्तिकारी नेता के रूप में मैदान में आए जब इस तरह के नेता बहुत कम सुनने में आते थे लेकिन उनकी बहुत ज़रूरत थी।"

इसके अलावा यर्वान्द आब्राहामियान इमाम ख़ुमैनी को बहुत ही बुद्धिमान नेता मानते हैं जिन्होंने शाही शासन के ख़िलाफ़ जनता के असंतोष को इस्तेमाल करते हुए इस्लामी क्रान्ति को वजूद दिया। यर्वान्द आब्राहामियान इस बारे में लिखते हैः "दूसरा तत्व जिससे आयतुल्लाह ख़ुमैनी की विशेष अहमियत का पता चलता है वह उनकी समझदारी ख़ास तौर पर व्यापक राजनैतिक व सामाजिक फ़ोर्सेज़ का नेतृत्व करना था। उन 15 वर्षी के दौरान जब वे देश निकाला का जीवन बिता रहे थे, आम बयानों ख़ास तौर पर ऐसे मामलों के बारे में बयान में जो विरोधी धड़ों के विभिन्न वर्गों के बीच दूरी का कारण बन सकता था, उन्होंने बहुत सावधानी बरती। जैसे भूमि सुधार, धर्म गुरुओं के रोल और पुरुष व महिला के बीच समानता के मामले! इसलिए शासन की आलोचना में ऐसे विषयों को निशाना बनाते थे जिसे लेकर सभी विरोधी धड़ों में असंतोष था। जैसे इस्राईल के साथ गुप्त संबंध या निर्धनों व धनवानों के बीच बढ़ती खायी। आयतुल्लाह ख़ुमैनी ने आम लोगों में असंतोष का पूरी दृढ़ता से समर्थन कर विभिन्न सामाजिक गुटों को अपना बना लिया। ऐसे गुट जो वर्षों से उनके इंतेज़ार में थे कि उन्हें मुक्ति दिलाएं।"

टैग्स