इस्लामी क्रांति और समाज- 15
माइकल एम जे फ़िशर अमरीका के मानवविज्ञानी हैं।
डॉक्टर माइकल फ़िशर जिन दिनों अमरीका की शिकागो यूनिवर्सिटी में डॉक्ट्रेट कर रहे थे उस समय वे अपने डॉक्ट्रेट की थिसेज़ लखने के लिए ईरान आए और यज़्द शहर में रहने वाले पारसियों के बारे में शोध शुरु किया और अपनी थिसेज़ का शीर्षक "पारसी ईरानः मिथक और आदत के बीच" रखा। वह अमरीका की एमआईटी यूनिवर्सिटी में मानवविज्ञान के प्रोफ़ेसर हैं। उन्होंने ईरान में मानव विज्ञान की आर्थिक दृष्टि से समीक्षा की है। उन्होंने ईरान में कृषि, सिनेमा और राजनैतिक मामलों के बारे में शोध किया है। फ़िशर ने 1969 से 1971 के वर्षों में धार्मिक समाज के बारे में, 1974 की ग्रीष्म ऋतु में बाज़ार पर आधारित अर्थव्यवस्था के बारे में, 1975 में ईरान में धार्मिक नेताओं के बारे में, 2005 और 2006 में ईरान में ज्ञान व नैतिकता के बारे में ज़मीनी स्तर पर शोध कार्य किया है।
फ़िशर ने दो किताबें और 20 से ज़्यादा लेख लिखे हैं जो सिनेमा, मानव विज्ञान, ईरान में धर्म व क्रान्ति के बारे में हैं। ईरान की इस्लामी क्रान्ति के बारे में फ़िशर की सबसे अहम किताब का नाम हैः "ईरानः धार्मिक मतभेद से क्रान्ति तक"। यह किताब फ़िशर के ईरान में ज़मीनी स्तर पर किए गए शोध का नतीजा है। इस किताब का मूल विषय ईरान में धार्मिक शिक्षा व्यवस्था की समीक्षा है। वह इस किताब में इस सवाल का जवाब देने की कोशिश में हैं कि किस तरह ईरान में संस्कृति के भीतरी विकास ने, सामाजिक बदलाव लाते हुए इतनी बड़ी इस्लामी क्रान्ति को जन्म दिया।
डॉक्टर माइकल फ़िशर उन विचारकों में हैं कि जिनके क्रान्तियों के बारे में विचार पर ईरान की इस्लामी क्रान्ति का बहुत असर पड़ा है। माइकल फ़िशर ईरान में इस्लामी क्रान्ति की सफलता से पहले तक क्रान्तियों के घटने की समीक्षा में आर्थिक व राजनैतिक तत्वों पर बल देते थे लेकिन इस्लामी क्रान्ति के घटने और उसके बाद धार्मिक संस्कृति के रोल को सबसे ज़्यादा अहमियत देते और इस्लामी क्रान्ति के घटने की कई कारणों से समीक्षा करने पर बल देते हैं।
माइकल फ़िशर की किताबों व लेखों की विशेषता यह है कि उन्होंने पिछली दो शताब्दियों में इस्लामी आंदोलनों का तुलनात्मक अध्ययन किया और ईरान की इस्लामी क्रान्ति की ऐतिहासिक तुलनात्मक दृष्टि से समीक्षा की है। यह विशेषता ईरान की इस्लामी क्रान्ति के बारे में दूसरे विचारकों में नज़र नहीं आती। फ़िशर का मानना है कि ईरान को राजनैतिक व सामाजिक दृष्टि से समझने के लिए कम से कम तीन दृष्टि से देखना होगा। एक मीडिया में प्रस्तुत विचारों की दृष्टि से, दूसरे क्रान्ति के विचारों और ढांचागत सामाजिक बदलाव की दृष्टि से और तीसरे नागरिक समाज व शैक्षिक व्यवस्थाओं के संपर्क के बारे में मौजूद विचारों की नज़र से। फ़िशर कहते हैं कि ईरान की क्रान्ति में इस्लामी जगत की दूसरी क्रान्तियों के विपरीत, धर्मगुरू क्रान्ति के ध्वजवाहक बने न कि सेक्यूलर लोग।
फ़िशर का मानना है कि ईरान का शासक मोहम्मद रज़ा पहलवी प्रजातांत्रिक सरकार और दलीय व पूंजिवादी प्रतिस्पर्धा के बिना केवल एक प्रशासनिक ढांचे के ज़रिए देश को तीसरी दुनिया के देशों की हालत से निकालना चाहता था। ईरान की सरकार क्रान्ति से पहले बड़ी हद तक उभरते हुए पूंजिवादी वर्ग पर निर्भर थी लेकिन इस वर्ग की राजनीति में भागीदारी के संबंध में उसका दृष्टिकोण बहुत सीमित था। फ़िशर क्रान्ति के समय के ईरानी जवानों को ऐसे लोग बताते हैं जो धार्मिक दृष्टि से मज़बूत होने के साथ साथ भविष्य को आधुनिक दृष्टि से देख रहे थे।
फ़िशर अपनी किताब "ईरानः धार्मिक मतभेद से क्रान्ति तक" में लिखते हैः "पहलवी शासन काल में राजनैतिक माहौल के बंद रहने और विभिन्न प्रकार की बहस के दमन की वजह से सिर्फ़ धार्मिक बहस ही प्रतिरोधक बल और सामाजिक बदलाव का ख़ाका खींचने वाली फ़ोर्स के रूप में सामने आयी। सांस्कृतिक प्रक्रिया जिसका नतीजा इस्लामी क्रान्ति के रूप में सामने आया, आशूर की घटना के उस वर्णन का स्थान लेकर कि जिसमें आशूर को सिर्फ़ रोने और शोकसभाओं के आयोजन का प्रतीक समझा जाता था, राजनैतिक प्रतिरोध के रूप में उभरी।"
माइकल फ़िशर ईरान की इस्लामी क्रान्ति के बारे में अपनी समीक्षा में कर्बला की घटना के रोल को बहुत अहम मानते हैं। उनका मानना है कि इस्लामी क्रान्ति वास्तव में एक तरह से कर्बला की घटना का क्रम था। फ़िशर ईरान की संस्कृति में कर्बला की घटना के सक्रिय रोल, ईरान में धार्मिक अनुष्ठानों के पूरे वर्ष कर्बला की घटना को जीवित रखने के रोल और ईरान के सांस्कृतिक प्रतीकों को जिनका शीया संस्कृति से गहरा संपर्क है, अखाड़े से उपमा देते हैं। फ़िशर का कहना हैः "इस्लामी क्रान्ति की प्रक्रिया के दौरान कर्बला इमाम हुसैन की मज़लूमियत पर रोने के बजाए इस इमाम के विचारों के लिए लड़ने का माध्यम बन गयी। इमाम हुसैन कर्बला की जंग में शहीद हुए और उनकी शहादत शियों की पहचान का मूल तत्व है। कर्बला की घटना सृष्टि के संबंध में शिया ट्रैजेडी का मुख्य पैराडाइम है। इस दुनिया में बुराई व अत्याचार, न्याय व भलाई के ख़िलाफ़ हमेशा सक्रिय रहते हैं और मुसलमानों की ज़िम्मेदारी है कि वे न्याय की स्थापना के लिए कोशिश करें।" वास्तव में फ़िशर का मानना है कि ईरान की जनता ने क्रान्ति से पहले इमाम हुसैन की मज़लूमियत पर सिर्फ़ रोने के बजाए, अत्याचार के मुक़ाबले में प्रतिरोध के संबंध में उनके विचार से शाही शासन के ख़िलाफ़ प्रतिरोध में प्रेरणा ली।
माइकल फ़िशर यह तर्क देते हैं कि अक्तूबर 1977 से फ़रवरी 1979 तक ईरानियों की सामूहिक रूप से कार्यवाही राष्ट्रीय स्तर पर एक विशाल नैतिक प्रदर्शन में बदल गयी और इस कार्यवाही का चरम शियों के तीसरे इमाम की शहादत की बरसी पर देखा जा सकता है।
शिया परंपरा यह दर्शाती है कि शहादत अपने आप में फिर से जन्म समझी जाती है। इसलिए क्रान्तिकारी संगठन दो तत्वों के विलय से वजूद में आया। एक प्रचलित बेवफ़ाई की सामाजिक स्तर पर आलोचना के संबंध में वरिष्ठ धर्मगुरुओं की ओर से पेश की गयी शिक्षाएं और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शोकसभाओं की उपयोगिता। क्रान्ति इसलिए घटी क्योंकि आम लोग अपने जीवन की स्थिति को बेहतर करना और अपने समाज में एकजुटता को जारी रखना चाहते थे।
माइकल फ़िशर इस्लामी क्रान्ति की समीक्षा में इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के नेतृत्व को विशेष अहमियत देते हैं। वह अपनी किताब "ईरानः धार्मिक विवाद से इस्लामी क्रान्ति तक" में इमाम ख़ुमैनी के बारे में विभिन्न आयामों से लिखते हैं "इमाम ख़ुमैनी का नेतृत्व मैक्स वेबर के मद्देनज़र करिश्माई नेतृत्व से पूरी तरह अलग है। इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व को उस फ़्रेमवर्क में पहचानने की ज़रूरत है जिसे मुल्ला सद्रा ने नेता के आध्यात्मिक चरण के लिए परिभाषित किया है। मुल्ला सद्रा के विचार में लोगों के साथ नेता के संबंध को उससे होने वाले फ़ायदे के आधार पर परिभाषित होना चाहिए अर्थात वह प्रकाश जो सृष्टि की सच्चाइयों को स्पष्ट करे न कि भावनाओं के समूह के आधार पर जो लोगों के मन में अपने नेता के प्रति उभरती है। ईरान की इस्लामी क्रान्ति के नेता के लिए क्रान्ति सिर्फ़ राजनैतिक व आर्थिक मामले की वजह से नहीं बल्कि नैतिक बदलाव लाने वाली थी जो सरकार और समाज के व्यवहार के रुझान को बदल देती।"
फ़िशर की नज़र में "आयतुल्लाह ख़ुमैनी का जीवन ख़ुद अपने आप में क्रान्तिकारी उपकरण है। उनके जीवन का दर्द और पीड़ा का पहलू उन्हें कर्बला से जोड़ता है। यह विशेषता उनके पिता की रज़ा शाह के कारिन्दों के हाथों हत्या, उनकी मां की न्याय की प्राप्ति के लिए कोशिश, ख़ुद उनका 1964 में इराक़ के लिए निर्वासन और उनके बेटे की सावाक के एजेन्टों के हाथों हत्या के कारण अस्तित्व आई थी। वह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की तरह अत्याचार के ख़िलाफ़ संघर्ष का प्रतीक हैं। हज़रत अली की तरह धार्मिक व राजनैतिक नेतृत्व का प्रीतक हैं। इमामों के सच्चे श्रद्धालुओं की तरह बुद्धि व क्षमता की प्राप्ति और ख़तरों को कन्ट्रोल करने में मददगार हैं। वास्तव में वह कर्बला की घटना का क्रम हैं। इमाम ख़ुमैनी ने साम्राज्यवाद, राजशाही, कूटनीति, आर्थिक असमानता पर निर्भर शक्ति और सांस्कृतिक पतन की वजह से अपनी पहचान खोने की आलोचना की, समाज व शासन के लिए नैतिक दृष्टिकोण पेश की और वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व, क्रान्तिकारी अदालत और संविधान पर नज़र रखने वाली परिषद के गठन के ज़रिए रक्षात्मक रणनीति बनायी।"
फ़िशर कहते हैं कि आयतुल्लाह ख़ुमैनी ने संदेश देने के लिए बहुत से सांकेतिक काम किए और उनके पंद्रह साल के निर्वासन के जीवन ने क्रान्तिकारी कार्यवाही के लिए बहुत बल प्रदान किया। वह अपनी किताब में इस बात को मानते हैः "इमाम ख़ुमैनी 1963 से शाह का विरोध करने वालों के प्रतीक बन गए और इसका चरम कर्बला के शोक समारोह थे कि जिसने इमाम हुसैन के लिए रोने और मानवता के अंतिम मोक्षदाता की प्रतीक्षा को शाही शासन के पतन के लिए संघर्ष का रूप अख़्तियार कर लिया। इमाम हुसैन की शोक सभाओं में वर्षों मोहम्मद रज़ा शाह को यज़ीद कहा जाता था और इमाम ख़ुमैनी पर इमाम हुसैन के प्रतीक के रूप में रोया जाता था। 1978 के मोहर्रम के दौरान धार्मिक नेताओं ने शोक सभाओं के आयोजन के स्थान पर शाही शासन के ख़िलाफ़ प्रदर्शन की अपील की। धार्मिक भावनाओं के चरम पर होने की वजह से ज़्यादातर लोग इमाम ख़ुमैनी को इमाम ख़ुमैनी कहा और उस साल की धार्मिक तारीख़ों में प्रदर्शन अपने चरम पर पहुंचे।"
फ़िशर का मानना है कि इमाम ख़ुमैनी अपनी इन विशेषताओं की वजह से धार्मिक नेतृत्व की पारंपरिक क्षमता को ब्यूरोक्रेटिक संस्था के निर्माण में इस्तेमाल होने वाली शक्ति में बदल दिया। इसलिए उन्हें इस्लामी क्रान्ति के बाद की प्रक्रियाओं में एक सफल नेता कहना चाहिए।