Dec १५, २०१८ १४:०७ Asia/Kolkata

जैसाकि हम पिछले कार्यक्रम में बता चुके हैं कि अलीक़ुली ख़ान का जन्म सफ़र के महीने में सन 1124 में इस्फ़हान में हुआ था।

वे वालेह दाग़िस्तानी के नाम से मशहूर हुए थे।  अलीक़ुली ख़ान के पिता का नाम मुहम्मद अली ख़ान था जो वर्ष 1126 हिजरी में ईरवान के "बीगलर बीगी" के पद पर आसीन हुए। सातवीं से बारहवीं शताब्दी हिजरी में बीगलर बीगी, बड़े राज्यों के वरिष्ठ सैन्य कमांडर को कहा जाता था। यह पद हासिल होने के बाद मुहम्मद अली ख़ान इस्फ़हान से ईरवान चले गए।  उस समय अलीक़ुली की आयु मात्र दो साल की थी जो अपने पिता के साथ ईरवान पहुंचे।  नख़जवान में अलीक़ुली ख़ान के पिता का देहान्त हो गया।  पिता के निधन के बाद दाग़िस्तानी अपने परिवार के साथ इस्फ़हान लौट आए।

वाले दाग़िस्तानी अपने चाचा की बेटी ख़दीजा से प्यार करते थे। वाले ने अपनी जीवनी में इस बात की ओर इशारा किया है।  दाग़िस्तानी, ख़दीजा से प्रेम तो करते थे किंतु वे उसके साथ विवाह नहीं कर सके।  अलीक़ुली की मां ने, ख़दीजा सुल्तान की मां के उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था जिसमें दोनों की शादी सादे ढंग से किये जाने की बात कही गई थी। कुछ दिनों बाद ख़दीजा के घर वालों ने महमूद अफ़ग़ान के दबाव और धमकियों के चलते विवश होकर उसकी शादी महमूद अफ़ग़ान के एक रिश्तेदार से कर दी।  ख़दीजा से विवाह न करने के कारण दाग़िस्तानी बहुत दुखी हुए जिसका वर्णन उन्होंने अपनी कविताओं और ग़ज़लों में बड़े मार्मिक ढंग से किया है।  अलीक़ुली उर्फ़ वाले दाग़िस्तानी, ख़दीजा को खो देने के कारण अत्यधिक दुखी रहने लगे थे।  वे दर-दर घूमते रहते थे।  सन 1144 हिजरी में नादिर शाह के सत्ता में आने के बाद बीस साल की उम्र में दाग़िस्तानी ने देश छोड़ने का फ़ैसला किया। अत्यधिक कठिनाइयां सहन करके वे भारत पहुंचे।  46 वर्ष की आयु में उनका निधन दिल्ली में हो गया था।  उनको वहीं पर दफ़न कर दिया गया।

फ़ारसी भाषा में लिखी जाने वाली जीवनियों में सामान्यतः जिसकी जीवनी लिखी जाती थी उसमें उसकी रचनाओं का भी उल्लेख किया जाता था।  किताब की प्रस्तावना में संकलनकर्ता, किताब को संकलित करने के कारण का उल्लेख करते थे ताकि पढ़ने वाले को इस बारे में कुछ आइडिया रहे।  तज़केरतुश्शोअरा की प्रस्तावना में वालेह दाग़िस्तानी की बातें, बताती हैं कि इस पुस्तक से उनका उद्देश्य, सांस्कृतिक टीका-टिप्पणी करना है।  उनका उद्देश्य केवल पुराने कवियों के नाम और उनसे संबन्धित बातों का उल्लेख नहीं है।  उनका कहना है कि जिसकी जीवनी पेश की जा रही है वह पढ़ने वाले विशेषकर उसके बारे जिज्ञासा रखने वाले को कुछ जानकारियां उपलब्ध करा सके।  इस बात को व्यवहारिक बनाने के लिए उन्होंने चार बातों को दृष्टिगत रखा है।  पहली बात यह है कि शेर या कविता की सांस्कृतिक विशेषताओं का उल्लेख।  कवियों के अच्छे शेरों या कविताओं का उल्लेख।  उस काल की एतिहासिक घटनाओं का उल्लेख।  अंत में उन्होंने कविताओं के मानदंड को भी स्पष्ट किया है।

वालेह ने उस समय अपनी किताब तज़केरतुश्शोअरा का संकलन किया है कि जब भारत में कवियों की जीवनियां लिखने का चलन अपने चरम पर था।  उस काल में आए दिन कवियों की जीवनियां प्रकाशित हुआ करती थीं।  इनमें उचित ढंग से जीवनियों को पेश नहीं किय जाता था अर्थात इससे संबन्धित नियमों को अनेदखा किया जाने लगा था।  जीवनियां लिखने वाले या तो एक-दूसरे की कापी किया करते थे।  यही कारण है कि वालेह ने कविता की बहुत ही गहन आलोचना की है।  उनका मानना था कि इसका मुख्य कारण तत्कालीन समय में कविता के गिरते मेयार को सुधारना था।

वालेह अपने काल के साहित्य के प्रति बहुत ही संवेदनशील थे।  उनका मानना था कि "सुल्तान हुसैन बायक़रा" के काल से साहित्य पतन की ओर उन्मुख हो चुका है।  उनका कहना था कि इस काल के दौरान कवियों के बारे में बहुत अधिक अतश्योक्ति का प्रयोग किया जाने लगा।  कुछ लोग कविता की आरंभिक जानकारी के साथ ही स्वयं को बहुत बड़ा कवि मानने लगे थे।  संभवतः यही कारण था कि उस काल में कविता का पतन होने लगा था।  वालेह ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि उनके काल में स्वयं को कवि कहलाने वालों की संख्या बहुत अधिक हो गई थी जबकि वे साहित्य के ज्ञान से बहुत दूर थे।  इन बातों के बावजूद वालेह ने न्याय का साथ नहीं छोड़ा और उस समय जिन कवियों के शेर अच्छे होते थे उनकी उन्होंने प्रशंसा की है।

वालेह का काल वही काल है जब फ़ारसी कविता की हिंदी शैली अपने चरम पर थी जिसे "तरज़े नौ" के नाम से भी जानते थे।  इस शैली को बाबा फ़ोग़ानी शीराज़ी ने जन्म दिया और साएब तबरेज़ी व बेदिल देहलवी ने इसे उसके शिखर तक पहुंचाया था।  बाद में तरज़े नौ शैली में संतुलन नहीं रखा गया जिसके कारण वह अपने अंत को पहुंची।  वालेह दाग़िस्तानी ने अपनी किताब में "ज़हूरी तुरशीज़ी" की कविताओं को तरज़े नौ के अंत का मुख्य कारण बताया है।  उनके अनुसार तरज़े नौ शैली के अंत में तीन कवियों की मुख्य भूमिका रही है।  वहशी बाफेक़ी, ज़ुहूरी तुरशीज़ी और शौकत बुख़ारी।  उनका कहना है कि इन तीनों कवियों ने ऐसे मार्ग पर चलना आरंभ किया जिसपर आगे बढ़ने की उनके भीतर क्षमता नहीं थी जिसके कारण वे दिगभ्रमित हो गए।  कहते हैं कि इन तीनों कवियों ने रास्ता तो सही अपनाया किंतु उनके बाद उनके अनुयाई निर्थक बातों में लग गए जो शैली के विनाश का कारण सिद्ध हुआ।

वालेह ने अपनी पुस्तक में शायरी के लिए कुछ मानदंड निर्धारित किये हैं।  वे तथाकथित शायरों से बड़े दुखी थे इसीलिए वालेह का प्रयास था कि शायर के लिए एसे मानदंड स्थापित किये जाएं जिससे सच्चे और तथाकथित शायर को पहचानना आसान हो जाए।  जब वालेह ने शायरी का मादंड पेश किया तो फिर उसके आधार पर बहुत बड़ी संख्या में कवि उसपर खरे नहीं उतर पाए।  इस प्रकार तथाकथित और वास्तविक शायरों को पहचानना आसान हो गया।  वालेह दाग़िस्तानी ने शायरी के लिए जो मानदंड पेश किये थे उनमें से एक यह था कि वास्तविक कवि वह है जिसको मुहावरे वाली भाषा पर पूरा अधिकार हो, किसी अच्छे कवि का शिष्य रह चुका हो और उसके भीतर शेर करने की योग्यता पाई जाती हो।  उनका कहना है कि शायरी एसी चीज़ है जो हर एक को नहीं मिल पाती बल्कि यह ईश्वरीय देन है।

वालेह की किताब रेयाज़ुश्शोअरा में कविता के बारे में उनके गूढ़ दृष्टिकोणों को देखा जा सकता है जिससे उनके विस्तृत ज्ञान का आभास होता है।  उदाहरण स्वरूप वालेह ने विख्यात कवि सादी शीराज़ी की कविताओं की व्याख्या में फ़ारसी ग़जल के इतिहास की चर्चा की है।  साहित्यिक आलोचकों का कहना है कि उस काल में इस संबन्ध में इतनी अधिक जानकारी, वास्तव में वालेही के ज्ञान को दर्शाती है।  वालेही का मानना है कि सादी, ग़ज़ल के बहुत पुराने उस्ताद हैं।  उन्होंने बहुत ही सुन्दरता से ग़ज़लें कही हैं।  उनका कहना है कि सादी से पहले ग़ज़ल वास्तव में ग़ज़ल नहीं होती थी बल्कि एक प्रकार का क़सीदा हुआ करती थी जिसे ग़ज़ल कहा जाने लगा था।  इस प्रकार की बातें, फ़ारसी भाषा में लिखी जाने वाली जीवनियों में इससे पहले बहुत कम ही दिखाई देती हैं।  वालेही का मानना है कि कविता या शायरी में विकास पाया जाता है जो आगे की ओर बढ़ती है।  वह कहते हैं कि यह बात समीक्षा से समझ में आती है।