Dec १५, २०१८ १६:५२ Asia/Kolkata

इस कार्यक्रम में हम ईरान के एक बहुत महान और विख्यात विद्धान, दर्शनशास्त्री और चिंतक से अवगत करवाएंगे।

वे ईरानी ही नहीं बल्कि पूरे संसार में दर्शनशास्त्र में बहुत मशहूर हुए।  उन्होंने मुल्ला सद्रा के नाम से ख्याति पाई।  उनका पूरा नाम "मुहम्मद बिन इब्राहीम क़वामी शीराज़ी" था।  उनकी उपाधि, सद्रुल मुतअलल्लेहीन और मुल्ला सद्रा थी।  मुल्ला सद्रा का जन्म ईरान के शीराज़ में नवीं जमादिल अव्वल सन 980 हिजरी क़मरी को हुआ था।  उनकी आंरभिक शिक्षा घर पर हुई जहां वे विशेष शिक्षकों से पढ़ते थे। 

जब मुल्ला सद्रा का परिवार शीराज़ से क़ज़वीन पलायन कर गया तो उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई क़ज़वीन में की।  उन्होंने बहुत ही कम समय में अधिक ज्ञान अर्जित किया।  मुल्ला सद्रा बहुत ही मेधावी छात्र थे।  सफ़वी शासनकाल में जब राजधानी को क़ज़वीन से इस्फ़हान बदला गया तो वे भी इस्फ़हान चले गए।  वहां पर उन्होंने उस्ताद "मीर फ़ंदरस्की" से पढ़ना आरंभ किया जो उस काल के जाने माने गुरुओं में गिने जाते थे।  कुछ ही समय में उनके गुरूओं ने उन्हें पढ़ाने की अनुमति दे दी।  मुल्ला सद्रा ने उसी काल से लेखन और संकलन का काम आरंभ कर दिया।  उन्होंने अपने दृष्टिगत दर्शनशास्त्र के बारे में लिखना शुरू कर दिया।

उनका यह काल अधिक समय तक नहीं चल सका क्योंकि उस समय के बहुत से विद्धान उनके दर्शन के विरोधी थे।  एसे लोगों के दबाव के कारण मुल्ला सद्रा को इस्फ़हान छोड़ना पड़ा।  वहां से वे "कहक" नामक गांव चले गए जो क़ुम नगर के निकट था।  इस गांव में उनका निवास 5 वर्षों से 15 वर्षों तक रहा।  बाद में मुल्ला सद्रा वहां से शीराज़ चले गए।  इस दौरान उन्होंने बहुत सी किताबें लिखीं।  सन 1050 हिजरी क़मरी बराबर 1640 ईसवी में हज की यात्रा के दौरान इराक़ के बसरा नगर में मुल्ला सद्रा का निधन हो गया।  यह मुल्ला सद्रा का सातवां हज था।  "मुहम्मद बिन इब्राहीम क़वामी शीराज़ी" या सद्रुल मुतअलल्लेहीन और मुल्ला सद्रा की क़ब्र इराक़ के नजफ़ नगर में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के मज़ार में उस जगह पर है जहां पर अधिकांश शिया विद्धानों की क़ब्रें हैं।

 

मुल्ला सद्रा ने दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में बहुत काम किया है।  उन्होंने फ़लसफ़े या दर्शनशास्त्र के बारे में जो कुछ लिखा है वह बहुत ही साधारण भाषा में लिखा है।  विद्वानों का कहना है कि लेखन की दृष्टि से विगत में शिया मुसलमानों में दो विद्वानों को बहुत महत्व प्राप्त है।  पहले शहीदे सानी या "ज़ैनुद्दीन जबले आमेली" जिन्होंने फ़िक़्ह या धर्मशास्त्र के बारे में लिखा है और दूसरे मुल्ला सद्रा हैं जिन्होंने दर्शनशास्त्र के बारे में लिखा है।

मुल्ला सद्रा ने चालीस से अधिक रचनाएं अपने पीछे छोड़ी हैं।  जानकारों का कहना है कि मुल्ला सद्रा की रचनाएं, बहुत ही अद्वितीय हैं।  मुल्ला सद्रा की अधिकांश रचनाएं अरबी भाषा में हैं।  इसका मुख्य कारण यह है कि उस काल की सरकारी भाषा अरबी हुआ करती थी।  विशेषज्ञों का कहना है कि मुल्ला सद्रा ने दर्शनशास्त्र को बहुत ही सरल भाषा में लिखा है जिसके कारण दर्शनशास्त्र के छात्रों को पढने में बहुत आसानी हुई है।  मुल्ला सद्रा बहुत बड़े ज्ञानी थे।  वे लगभग ज्ञान के हर क्षेत्र में दक्ष थे।  दर्शनशास्त्र के सभी मतों के वे विशेषज्ञ थे।  इसी के साथ वे अरबी भाषा और फ़ारसी भाषा का साहित्य भी पढ़ाते थे।  उनको गणित का बहुत अच्छा ज्ञान था।  अपने काल में प्रचलित चिकित्सा विज्ञान से मुल्ला सद्रा भलिभांति अवगत थे।  वे एक खगोलशास्त्री भी थे।  मुल्ला सद्रा को भौतिक शास्त्र का ही ज्ञान था।

मुल्ला सद्रा बहुत ही सक्रिय दर्शनशास्त्री थे।  कुछ समय तक उन्होंने एकांतवास में जीवन व्यतीत किया किंतु उस समय वे अधिकतर उपासना में व्यस्त रहे और लेखन का काम कम ही किया।  उसके बाद का अधिकतर उन्होंने पढ़ाने में गुज़ारा।  बाद में लेखन में उनकी रुचि इतनी अधिक हो गई कि लिखने के लिए अगर उनको कोई अवसर मिल जाता तो उससे वे पूरा लाभ उठाते थे।

मुल्ला सद्रा की कुछ किताबें, दर्शनशास्त्र के छात्रों के लिए बहुत उपयुक्त हैं।  उनकी कुछ किताबें दर्शनशास्त्र का आरंभिक अध्धयन करने वालों के लिए उपयुक्त हैं जबकि दूसरी उनके लिए लाभदायक है जो इस क्षेत्र में दक्षता हासिल करना चाहते हैं।  मुल्ला सद्रा की कुछ किताबें, नैतिक शास्त्र के बारे में हैं।  उन्होंने पवित्र क़ुरआन की व्याख्या भी की है।  पवित्र क़ुरआन की उनकी व्याख्या दर्शनशास्त्र की दृष्टि से है।  हालांकि उनकी आयु ने उन्हें अनुमति नहीं दी कि वे पूरे क़ुरआन की व्याख्या करें किंतु मुल्ला सद्रा ने जहां तक क़ुरआन की व्याख्या की है वह दर्शनशास्त्र के हिसाब से अद्वितीय है।  मुल्ला सद्रा को पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके पवित्र परिजनों के कथनों की गहरी जानकारी थी।  उन्होंने इस बारे में मश्हूर किताब अलकाफ़ी की व्याख्या की है।  वे इस पूरी किताब की व्याख्या नहीं कर सके क्योंकि इसी दौरान उनका देहान्त हो गया।

मुल्ला सद्रा ने दार्शनिक रचनाओं के अतरिक्त फ़ारसी भाषा में शेर भी कहे हैं जो आज भी मौजूद हैं।  मुल्ला सद्रा की रचनाओं में वैज्ञानिक तथा साहित्यक रचनाएं भी शामिल हैं।  अपनी जवानी के दौर में मुल्ला सद्रा अधिकतर दर्शनशास्त्र का ही अध्ययन किया करते थे।  उनको साहित्य से भी लगाव था।  उन्होंने युवाकाल से ही शेरों और धर्मगुरूओं के प्रमुख वाक्यों के बारे में नोट लिखने शुरू कर दिये थे।  इस प्रकार की चीज़ें दूसरों के लिए जानकारी का एक बहुत बड़ा भण्डार हैं। इनको दो भागों में बांटा गया है।

मुल्ला सद्रा की पुस्तकों के बारे में जिस बात पर बहस की जाती है वह यह है कि उन्होंने यह रचनाएं कब और कहां कीं? मुल्ला सद्रा की कुछ किताबें के बारे में तो यह कहा जा सकता है कि उन्हें निश्चित रूप में "कहक" या "शीराज़" मे लिखा गया है किंतु उनकी अधिकांश किताबों पर लिखने की तारीख अंकित नहीं है।  इस संबन्ध में यह कहा जा सकता है कि या तो वे स्वयं ही किताब लिखने की तारीख़ भूल गए या फिर जिस कातिब ने उन्हें लिखा वह उनपर तारीख़ लिखना भूल गया। मुल्ला सद्रा के जीवन पर शोध करने वालों का कहना है कि यह जानने के लिए कि उन्होंने अपनी रचनाएं कहा लिखीं हमको उनके जीवन के बारे में यह ज़रूरी है कि वे कब कहां रहे।  मुल्ला सद्रा सन 1040 हिजरी क़मरी को क़ुम से शीराज़ गए थे।  इससे पहले लगभग 1015 हिजरी क़मरी तक वे शीराज़ और क़ुम के निकटवर्ती क्षेत्र में रहे।  इस आधार पर सन 1040 से पहले उन्होंने जो किताबें या रचनाएं लिखीं वे क़ुम तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्र में।  इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि उन्होंने अपनी कुछ रचनाएं लंबी यात्राओं के दौरान भी कीं।