Dec १६, २०१८ १५:४१ Asia/Kolkata

इस कार्यक्रम में हम ईरान के महान और विख्यात विद्धवान, दर्शनशास्त्री और चिंतक मुल्ला सद्रा के बारे में ही बात को आगे बढ़ाएंगे।

वे ईरान ही नहीं बल्कि पूरे संसार में दर्शनशास्त्र में बहुत मश्हूर हुए।  उन्होंने मुल्ला सद्रा के नाम से ख्याति पाई।  उनका पूरा नाम "मुहम्मद बिन इब्राहीम क़वामी शीराज़ी" था।  मुहम्मद बिन इब्राहीम क़ेवामी शीराज़ी की उपाधि, सद्रुल मुतअलल्लेहीन और मुल्ला सद्रा थी।  मुल्ला सद्रा का जन्म ईरान के शीराज़ नगर में नवीं जमादिल अव्वल सन 980 हिजरी क़मरी को हुआ था।  उनकी आंरभिक शिक्षा घर पर हुई जहां वे विशेष शिक्षकों से पढ़ते थे। 

जब मुल्ला सद्रा का परिवार शीराज़ से क़ज़वीन पलायन कर गया तो उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई क़ज़वीन में की।  उन्होंने बहुत ही कम समय में अधिक ज्ञान अर्जित किया।  मुल्ला सद्रा बहुत ही मेधावी छात्र थे।  सफ़वी शासनकाल में जब राजधानी को क़ज़वीन से इस्फ़हान बदला गया तो वे भी इस्फ़हान चले गए।  वहां पर उन्होंने उस्ताद "मीर फ़ेंद्रेस्की" से पढ़ना आरंभ किया जो उस काल के जाने माने गुरुओं में गिने जाते थे।  कुछ ही समय में उनके गुरूओं ने उन्हें पढ़ाने की अनुमति दे दी।  मुल्ला सद्रा ने उसी काल से लेखन और संकलन का काम आरंभ कर दिया।  उन्होंने अपने दृष्टिगत दर्शनशास्त्र के बारे में लिखना शुरू कर दिया।

उनका यह काल अधिक समय तक नहीं चल सका क्योंकि उस समय के बहुत से विद्धवान उनके दर्शन के विरोधी थे।  ऐसे लोगों के दबाव के कारण मुल्ला सद्रा को इस्फ़हान छोड़ना पड़ा।  वहां से वे "कहक" नामक गांव चले गए जो क़ुम नगर के निकट था।  इस गांव में उनका निवास 5 वर्षों से 15 वर्षों तक रहा।  बाद में मुल्ला सद्रा वहां से शीराज़ चले गए।  इस दौरान उन्होंने बहुत सी किताबें लिखीं।

सन 1050 हिजरी क़मरी बराबर 1640 ईसवी में हज की यात्रा के दौरान इराक़ के बसरा नगर में मुल्ला सद्रा का निधन हो गया।  यह मुल्ला सद्रा का सातवां हज था।  "मुहम्मद बिन इब्राहीम क़वामी शीराज़ी" या सद्रुल मुतअलल्लेहीन और मुल्ला सद्रा की क़ब्र इराक़ के नजफ़ नगर में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के मज़ार में उस जगह पर है जहां पर अधिकांश शिया विद्धवानों की क़ब्रें हैं।  मुल्ला सद्रा ने दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में बहुत काम किया है।  उन्होंने फ़लसफ़े या दर्शनशास्त्र के बारे में जो कुछ लिखा है वह बहुत ही साधारण भाषा में लिखा है।

आज भी मुल्ला सद्रा की गणना, इस्लामी जगत के महान दर्शनशास्त्रियों में होती है।  उनकी विचारधारा और दृष्टिकोणों ने पश्चिम के विचारकों और दर्शनशास्त्रियों को प्रभावित किया।  इस्लामी दर्शनशास्त्र की जानकारी पश्चिम को ग्यारहवीं ईसवी में दर्शनशास्त्र की इस्लामी किताबों के अनुवाद से हुई।  सामान्यतः यह जानकारी उन्हें इब्ने रुश्द, इब्ने सीना और ग़ज़ाली कि किताबे पढ़ने से हुई।  शोधकर्ताओं का कहना है कि एक समय में पश्चिम में इब्ने सीना की किताबों को बहुत महत्व दिया जाता था।  वे यह भी कहते हैं कि "सेंट आगुस्टीन" विचारधारा के अधिकांश अनुयाई, इस्लामी दर्शन के समर्थक थे।  यही कारण है कि पश्चिम में इस्लामी दर्शन ने अपना प्रभाव बनाया।  यह प्रभाव दो हिसाब से समीक्षा के योग्य है।

एक तो यह है कि इस्लामी दर्शनशास्त्र को एक ऐसे पुल के रूप में देखा जाता था जिसके माध्यम से यूनानी दर्शनशास्त्र तक पहुंचा जा सकता है।  दूसरी बात यह है कि मुसलमान दर्शनशास्त्रियों ने नए दृष्टिकोण पेश करके संसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।  यही कारण है कि इब्ने सीना, इब्ने रुश्द और ग़ज़ाली जैसे दर्शनशास्त्रियों ने यूरोप के स्तर पर दार्शनिक प्रक्रियाएं आरंभ कीं।  पश्चिम में "रेने देकार्त" के माध्यम से नवीन दर्शन के प्रचलन के साथ ही मुल्ला सद्रा की रचनाएं भी सार्वजनिक हुईं।  पश्चिम में आधुनिक दर्शन के चलन के साथ ही पश्चिम ने स्वयं को पूरब से त्रेस्ट समझना शुरू कर दिया।  उन्होंने पूरब को ओरियेन्टलिस्टों की दृष्टि से ही देखा।  ऐसे में पश्चिम ने स्वयं को इस्लामी विचारधारा एवं इस्लामी दर्शन से अलग समझा।

यही कारण है कि तीन शताब्दियों तक पश्चिम में मुल्ला सद्रा के दर्शन के प्रति कोई आकर्षण नहीं था।  बाद में पूरब के दर्शन की ओर पश्चिम के बढ़ने के कई कारक हुए।  पश्चिम में वैचारिक एवं आध्यात्मिक संकट के शुरू होने के साथ आधुनिक युग के आरंभ और धरती पर स्वर्ग बनाने के विचार की विफलता के बाद से उनकी दृष्टि पूरब की ओर हुई।  पूरब में अध्यात्म विशेष रूप में इस्लामी अध्यात्म की ओर पश्चिम का झुकाव, दो महायुद्धों अर्थात प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अधिक बढ़ा।  इसके ध्वजवाहकों के रूप में फ़्रांसीसी दर्शनशास्त्री "रेने ग्वेनन" को माना जाता है।

बीसवीं और इक्कीसवी शताब्दी में मुल्ला सद्रा के दर्शनशास्त्र को पश्चिम में प्रचलित करने वालों को तीन पीढ़ियों में बांटा जा सकता है।  पहली पीढ़ी उन लोगों की है जिनमें हैनरी कोर्बिन, फ़ज़लुर्रहमान मलिक, सैयद हुसैन नस्र, मेहदी हाएरी, मेहदी मुहक़क़िक़, जवाद फलातूरी और तूशीहीको ईज़ोत्सो Toshihiko Izutsu आदि।  हेनरी कोर्बिन के अतिरिक्त यह लोग वे ओरियेन्टलिस्ट हैं जो पश्चिम गए और वहां पर उन्होंने मुल्ला सद्रा के दर्शनशास्त्र को एकेडमिक ढंग से पढ़ाया।  इसके अतिरिक्त उन्होंने पश्चिम में रहकर इस बारे में लेख लिखे और मुल्ला सद्रा की रचनाओं से वहां वालों को अवगत करवाया।

 

दूसरी पीढी, वह है जिसने सामान्यतः पहली पीढ़ी से प्रशिक्षण पाया।  इनमें से अधिकांश लोग या ईरानी थे या फिर वे थे जो पहले ईरान आए और वहां पर मुल्ला सद्रा के विचारों से परिचित हुए और ईरानी गुरूओं से प्रशिक्षण लिया।  दूसरी पीढ़ी के लोगों में जान कूपर, विलयम चेटिक, जेम्स मोरिस, हेरमन और अलयूर लेमन आदि का नाम लिया जा सकता है।

अमरीका, कनाडा और यूरोप में इस्लामी दर्शनशास्त्र को पहचनवाने वाले अधिकतर वे लोग हैं जिन्होंने प्रोफेसर नस्र और ईरानी गुरूओं से ज्ञान हासिल किया था।  तीसरी पीढ़ी के जानकारों के बारे में समीक्षा करने में महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि इन सबका मूल स्रोत "अल्लामा सैयद मुहम्मद हुसैन तबातबाई" हैं।  फ़्रांस में इस्लामी दर्शनशास्त्र के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका हेनरी कोर्बिन की है।  फ़्रांस में हेनरी कार्बेन तथा उनके शिष्यों के प्रभाव के कारण ही फ़्रांस के दर्शनशास्त्र में इस्लामी दर्शनशास्त्र का प्रवेश हुआ।  दूसरे पश्चिमी देशों में भी हेनरी कोर्बिन, एज़ोस्टो, फ़ज़्लुर्रहमान, सैयद हुसैन नस्र ने ही इस्लामी दर्शन को फैलाने में भूमिका निभाई।  वर्तमान समय में मुल्ला सद्रा की दार्शनिक विचारधारा या उनके दर्शन को अमरीका की जार्ज वाशिग्टन यूनिवर्सिटी, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, शिकागो यूनिवर्सिटी और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटियों में पढ़ाया जाता है।  इसके अतिरिक्त ब्रिटेन तथा कनाडा में भी मुल्ला सद्रा के दर्शन को पढ़ाया जाता है।  फ़्रांस में भी ऐसे कई स्कॉलर हैं जिन्होंने इस्लामी दर्शनशास्त्र को वहां पर फैलाया है जैसे क्रिस्टियन बोनो, क्रिस्टियन जांबो और आन्तवान फोर आदि।

इस्लाम और पश्चिम के बीच वार्ता के लिए ईरानी दार्शनिक मुल्ला सद्रा के दर्शन विशेष रूप से पुल का काम करते हैं।  वर्तमान समय में पश्चिम में उन लोगों के साथ मुल्ला सद्रा की विचारधारा की सहायता से शास्त्रार्थ किया जा सकता है जो नास्तिक हैं।  मुल्ला सद्रा की तार्किक बातों से पश्चिम की खोखली मैटिरियलिस्टिक विचारधारा को ग़लत सिद्ध किया जा सकता है।  मुल्ला सद्रा के दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व, मृत्यु के बाद के जीवन, नैतिकता की आवश्यकता और इसी प्रकार के बहुत से विषयों को बहुत ही अच्छे ढंग से समझाया गया है।  वे लोग जो अधर्मी हैं उनसे सीधे-सीधे क़ुरआन के माध्यम से शास्त्रार्थ नहीं किया जा सकता क्योंकि वे उसे स्वीकार ही नहीं करते हैं।  बुद्धि की भाषा ही संसार की संयुक्त भाषा है अतः इस्लामी दर्शनशास्त्र पर भरोसा करके अन्य लोगों विशेषकर पश्चिमवासियों को इस्लामी शिक्षाओं से अवगत करवाया जा सकता है।

मुल्ला सद्रा के बारे में पश्चिमी देशों में बहुत से लेख, किताबें, पत्रिकाएं और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं।  खेद की बात यह है कि पश्चिमी भाषाओं में मुल्ला सद्रा की रचनाओं का बहुत कम ही अनुवाद किया गया है।  अबतक मुल्ला सद्रा की जिन किताबों का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया जा चुका हैं वे हैं मशाएर, अर्शिये, एक्सीरुल आरेफ़ीन तथा अस्फ़ार का आठवॉं और नवॉं खंडो।  इसी प्रकार पिछले कुछ वर्षों के दौरान सैयद हुसैन नस्र और मेहदी अमीन के सहयोग से पांच खंडो में एक किताब प्रकाशित की गई है जिसका शीर्षक है, "ज़रतुश्त से लेकर आजतक इस्लामी तथा ईरानी विचारधारा की प्रस्तुति"।

यह वास्तव में बहुत मेहनत वाला प्रयास है।  इसमें जाने माने दार्शनिकों को उनके महत्वपूर्ण विचरों के साथ पेश किया गया है।  इस किताब के चौथे खंडो में सोहरवर्दी के दर्शन के बारे मे जबकि पांचवें खण्ड में शीराज, इस्फ़हान और तेहरान के दार्शनिकों के मतों और विचारों के बारे में चर्चा की गई है।  इसी खण्ड में मुल्ला सद्रा के विचारों के अस्तित्व में आने के कारणों की समीक्षा के साथ ही उनके दर्शन के बारे में भी बताया गया है।  मुल्ला सद्रा के व्यक्तित्व और उनके दर्शन पर प्रकाश डालने के बाद इस किताब में क़ाजारी काल तक के दार्शनिकों के बारे में बताया गया है।