Dec २५, २०१८ १४:४५ Asia/Kolkata

मस्जिद वह स्थान है जहां पर मनुष्य नमाज़ पढ़ता है और ईश्वर की उपासना करता है। 

मस्जिद का शाब्दिक अर्थ होता है सजदा करने का स्थान।  सजदा वह अवस्था है जिसमें नमाज़ी पूर्ण रूप से ईश्वर के सामने नतमस्तक रहता है।  मस्जिद लोगों के प्रशिक्षण का भी स्थल है।  यहां पर नैतिकता का पाठ दिया जाता है।  मस्जिद में उपस्थित होकर मनुष्य अपने भीतर नैतिक विशेषताओं को अधिक सुदृढ़ कर सकता है।  मस्जिद को आग की एसी भट्टी की संज्ञा दी गई है जहां पर मनुष्य सोने की भांति तपकर शुद्ध हो जाता है।  मस्जिद के माध्यम से आंतिरिक इच्छाओं पर सरलता से नियंत्रण किया जा सकता है।  कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मनुष्य को मस्जिद से बहुत लाभ हैं यदि वह उसका प्रयोग करे।

 

इस्लामी समाज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस समाज में परस्पर सहयोग किया जाता है।  इसका एक कारण यह भी है कि लोगों की आवश्यकताएं एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं।  मस्जिद में एकत्रित होकर नमाज़ पढ़ने का अर्थ ही यह है कि लोग, एक-दूसरे की समस्याओं से अवगत हों और उनके समाधान के बारे में प्रयास करें।  इस्लामी समाज को एक महापरिवार के रूप में बताया गया है जिसके हर सदस्य का कर्तव्य बनता है कि वह अन्य सदस्यों का हर हिसाब से पूरा ध्यान रखे।  इस नियम के अनुसार इस्लामी समाज के सदस्यों का दायित्व बनता है कि वे इस परिवार को एकजुट बनाए रखें और सदस्यों की हर प्रकार की समस्या के समाधान के लिए प्रयासरत रहें।

मस्जिद की महत्वपूर्ण उपयोगिता यह है कि वहां से वंचितों की परेशानियां दूर की जाएं।  मस्जिद में मौजूद लोगों की मानसिकता यह हो जाती है कि लोगों की अधिक से अधिक सहायता की जाए।  इस्लाम के आंरभिक काल से ही मस्जिद, वंचितों की समस्याओं का केन्द्र रही है।  उस काल में जब भी कोई व्यक्ति आर्थिक रूप से परेशान होता था तो वह मस्जिद आकर अपनी समस्या पेश करता था जिसका समाधान वहीं पर कर दिया जाता था।  इस प्रकार प्राचीन काल से ही मस्जिदें समस्याओं के निवारण का केन्द्र रही हैं।

 

इसका एक उदारहण मस्जिद में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का दान है।  एक बार हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने नमाज़ की हालत में मस्जिद में एक फ़क़ीर को अपनी अंगूठी दे दी थी जिसका उल्लेख ईश्वर ने पवित्र क़ुरआन के सूरे माएदा की आयत संख्या 55 में किया है।  इस्लाम में दान-दक्षिणा, परोपकार, दूसरों की सहायता और इसी प्रकार की विशेषताओं का बहुत उल्लेख करते हुए इन कामों के लिए लोगों को प्रेरित किया गया है।  इसका मुख्य कारण यह है कि मुसलमानों को एक-दूसरे की सहायता के लिए तैयार किया जाए।  आज भी दुनिया की बहुत सी मस्जिदों से ग़रीबों की मदद की जाती है।  उदाहरण स्वरूप जब कहीं कोई भूकंप आता है या बाढ़ आ जाती है तो लोग मस्जिदों के माध्यम से बाढ प्रभावितों या भूकंप प्रभावितों की दिल खोलकर सहायता करते हैं।  एसा इस्लामी देशों में बहुत अधिक होता है।

 

हेरात की जामा मस्जिद को अफ़ग़ानिस्तान में कला, इतिहास और संस्कृति का अदभु उदाहरण माना जाता है।  अति प्राचीनकाल में यह एक उपासना स्थल था।  बाद में पारसियों ने इसे अग्निकुण्ड बना दिया।  कुछ समय तक यह स्थान अग्निकुंड के रूप में रहा।  हेरात के लोगों के इस्लाम स्वीकार करने के बाद सन 29 हिजरी क़मरी में इसे मस्जिद का रूप दे दिया गया।

हेरात की जामा मस्जिद, अफ़ग़ानिस्तान में वास्तुकला का ऐसा नमूना है जिसे राष्ट्रीय गौरव कहा जा सकता है।  इस मस्जिद में एक लाख से अधिक लोगों के नमाज़ पढ़ने की जगह है।  हेरात की जामा मस्जिद वास्तव में काफ़ी बड़ी है।  इसमें 460 गुंबद, 130 छोटे-बड़े हाल, लगभग 444 स्तंभ और 12 गुलदस्ते हैं।  इस मस्जिद में चार बड़े हाल, चार दरवाज़े और चार बड़े शिलालेख हैं जिनपर पवित्र क़ुरआन की आयतें और कुछ तत्वदर्शियों की कविताएं लिखी हुई हैं।  हेरात की जामा मस्जिद में पत्थर का एक बड़ा सा मिंबर और पुस्तकालय भी है।  इस पुस्तकालय में चार हज़ार से अधिक किताबें मौजूद हैं।  इस मस्जिद से लगा एक मदरसा भी है जिसको कूफ़ी, सुल्स और नस्तालीक़ लीपि में बहुत ही सुन्दर ढंग से सुसज्जित किया गया है।  हेरात की जामा मस्जिद पर की गई चित्रकारी अफ़ग़ानिस्तान की जनता की आस्था और उसके विश्वास की गाथा सुनाती है।  हेरात की जामा मस्जिद की एक विशेषता यह है कि इसकी वास्तुकला किसी एक काल से विशेष नहीं है बल्कि इस में कई शासन कालों की वास्तुकला शैली को एक ही स्थान पर देखा जा सकता है।  इस मस्जिद पर की गई चित्रकारी, दर्शक को जहां एक ओर उसकी विदित सुन्दरता की ओर आकृष्ट करती है वहीं पर दूसरी ओर यह उसे इस चित्रकारी में छिपे सांस्कृतिक एवं धार्मिक रहस्यों की ओर आकृष्ट करती है।

 

हेरात की जामा मस्जिद ने अपने काल में भांति-भांति के उतार-चढ़ाव की साक्षी रही है।  विभिन्न शासन कालों में इसको नुक़सान भी पहुंचाया गया और इसका  पूनर निर्माण भी किया गया।  सन 414 में हेरात की जामा मस्जिद आग में जल गई।  उस समय की मस्जिद लकड़ी की बनी थी जिसपर पेंटिंग की गई थी।  बाद में हेरात के शासक "ख्वाजा मुहम्मद ताकी" के प्रयासों और जनता के सहयोग से मस्जिद का निर्माण कराया गया।  इस घटना के लगभग दो शताब्दियों के बाद "शेख़ुल इस्लाम फ़ख़रूद्दीन राज़ी" के सुझाव और "ग़ेयासुद्दीन ग़ौरी" के आदेश पर हेरात की जामा मस्जिद को पक्की ईंटों, टाइलों और रंगारंग डिज़ाइनों से सजाया गया।

 

चंगेज़ख़ान के हमले में हेरात की जामा मस्जिद को बहुत नुक़सान पहुंचा था।  सन 707 हिजरी क़मरी में "सुल्तान ग़ेयासुद्दीन" के आदेश पर मस्जिद के क्षतिग्रस्त भाग की मरम्मत कराई गई।  साथ ही मस्जिद के उत्तरी भाग में एक मदरसे का निर्माण काराया गया जिसका नाम "ग़ेयासिया" रखा गया।  मस्जिद के लिए कांसे की एक बड़ी डेग वक़्फ़ की गई है।  हेरात की जामा मस्जिद के आंगन के एक कोने में पीतल की एक बहुत बड़ी डेग़ रखी हुई है जिसे कला की दृष्टि से आश्चर्य चकित करने वाली वस्तु माना जाता है।  प्राचीन काल में शुभ अवसरों पर धार्मिक आयोजनों में इसमें शर्बत बनाकर लोगों में बांटा जाता था।  चौथी शताब्दी हिजरी क़मरी में बनाई जाने वाली यह डेग़ साढ़े चार मीटर ऊंजी और डेढ मीटर गहरी है।  इस मस्जिद में अज़ान देने के लिए जो विशेष स्थान बनाया गया है वह 17 से 36 मीटर ऊंचा है जिसका व्यास सात से दस मीटर है।

हम जैसाकि आपको बता चुके हैं कि हेरात की जामा मस्जिद की कई बार और कई कालों में मरम्मत कराई जा चुकी है।  दसवीं शताब्दी हिजरी शमसी में "हुसैन बायक़रा" के शासन काल में उनके वज़ीर "अमीर अली शीरनेवाई" के कहने पर मस्जिद के हाल की पुनः मरम्मत कराई गई और इसकी दीवारों तथा स्तंभों को सुन्दर पत्थरों से सुसज्जित कराया गया था।

 

सन 1322 हिजरी में अफ़ग़ानिस्तान के अंतिम राजा "मुहम्मद ज़ाहिर शाह" के काल में "अब्दुल्लाह ख़ान मलिकयार" के प्रयास से हेरात की जामा मस्जिद की मरम्मत का काम करवाया गया।  इस काम के लिए मलिकयार ने पहले उन वास्तुकारों का चयन किया जो प्राचीनकाल की वास्तुकला में दक्ष थे। बाद में इन्ही दक्ष वास्तुकारों की सहायता से मस्जिद की मरम्मत का काम कराया गया।  हेरात की जामा मस्जिद की दीवारों पर सुलेखन का काम, दीवार पर सुलेखन के तत्कालीन विशेषज्ञ "उस्ताद मुल्ला मुहम्मद अली अत्तारी हेरवी" ने किया था।

 

रोचक बात यह है कि हेरात की जामा मस्जिद में प्राचीनकाल से मरम्मत का कोई न कोई काम होता चला आया है।  इसी बात के दृष्टिगत हेरात के लोगों में यह बात प्रचलित हो चुकी है कि इस मस्जिद में काम हमेशा से चलता आया है और आगे भी चलता रहेगा।  जिस दिन भी हेरात की जामा मस्जिद का काम पूरी तरह से रुक जाएगा उसी दिन क़यामत आ जाएगी।

 

हेरात की जामा मस्जिद के बारे में अंन्तिम बिंदु यह है कि संसार की अन्य मस्जिदों की ही भांति यह मस्जिद, केवल उपासना तक ही सीमित नहीं है अर्थात यहां पर केवल नमाज़ नहीं पढ़ी जाती बल्कि लंबे समय तक हेरात की जामा मस्जिद अफ़ग़ानिस्तान में शिक्षा के सबसे बड़े केन्द्र के रूप में जानी जाती रही है।  इतिहास के विभिन्न कालों में यहां से महान धर्मगुरू, विचारक, तत्वदर्शी और दार्शनिक पैदा हुए हैं जिन्होंने विश्व ख्याति अर्जित की है।  इन्हीं में से एक "ख्वाजा अब्दुल्लाह अंसारी" हैं जिन्हें "पीरे हेरात" के नाम से जाना जाता है।

 

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