Dec ३१, २०१८ १३:०३ Asia/Kolkata

लैला इशक़ी ईरानी मूल की एक फ़्रांसीसी शोधकर्ता हैं। 

लैला इश्क़ी, दर्शनशास्त्र की अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की सदस्य हैं।  लैला इश्क़ी ऐसी शोधकर्ता हैं जो ईरान की इस्लामी क्रांति से बहुत प्रभावित रही हैं।  उन्होंने फ़ार्सी भाषा में इस्लामी क्रांति के बारे में  एक किताब भी लिखी है।  उनकी इस किताब का अनुवाद अब फ़ार्सी में हो चुका है।  किताब में वे इस्लामी क्रांति, इमाम, और शिया जैसे विषयों की समीक्षा करती हैं।

लैला इश्क़ी कहती हैं कि इस किताब में मैंने क्रांति की गाथा को जिस प्रकार से सुना है उसे उसी प्रकार से दूसरों विशेषकर पश्चिम वासियों को सुनाने का प्रयास किया है।  लैला इश्क़ी का प्रयास है कि वह इस्लामी क्रांति को आध्यात्मिक रूप में पेश करे। 

इश्क़ी कहती हैं कि इस किताब में मैंने क्रांति की गाथा को अपने शब्दों में पेश करने का प्रयास किया है।  वे कहती हैं कि ईरान की इस्लामी क्रांति मात्र एक ऐतिहासिक घटना नहीं थी।  वे क्रांतिकारियों की मानसिकता को बताने के लिए शिया संस्कृति का सहारा लेती हैं।  इमामत और विलायत के बारे में ईरानियों की जो मानसिकता है वे इसके माध्यम से इस्लामी क्रांति की सफलता को समझाती हैं।  बाद में आगे चलकर वे राजनीति और शिया मत के बारे में बताती हैं।

उनका मानना है कि शिया मत और ईरानी संस्कृति दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।  लैला इश्क़ी लिखती हैं कि ईरानी कभी भी शियों के मुक़ाबले में नहीं उठ खड़े हुए।  अगर कोई विरोध हुआ भी है तो वह ख़िलाफ़त के विरुद्ध हुआ हैं शियों के विरुद्ध नहीं हुआ।  ईरान और शियों के बीच जो एकता है वह कुछ इस प्रकार की है कि वे दर्शनशास्त्री और शोधकर्ता जिन्होंने प्राचीन ईरान के बारे में शोध किये हैं उन्हें शियाइज़्म से जोड़ दिया गया।  लैला इश्क़ी लिखती हैं कि ईरान में शिया मत को आधिकारिक रूप में मान्यता मिलना वास्वत में उस प्रक्रिया का परिणाम था जो शताब्दियों से आरंभ हो चुकी थी।  लैला इश्क़ी ने इस्लामी क्रांति के वर्णन में पहलवी परिवार के भ्रष्टाचार और ईरान पर पश्चिम की यलग़ार का भी उल्लेख किया है।  उन्होंने इन विषयों की राष्ट्रीय क्रांति के रूप में समीक्षा की है।

इश्क़ी ने अपनी किताब का केन्द्र बिंदु इमाम ख़ुमैनी को बनाया है।  उनका मानना है कि इमाम ख़ुमैनी को समझे बिना ईरान की इस्लामी क्रांति को समझना संभव नहीं है।  इमाम ख़ुमैनी का सबसे बड़ा कारनामा, अपने काल की प्रचलित बुराइयों को समाप्त करना था।  उन्होंने उस काल की ऐसी बहुत सी कुरीतियों को समाप्त किया जिनका विरोध किया जाता था।  वे कहती हैं कि स्वर्गीय इमाम खुमैनी ने इमाम अर्थात एक राजनेता और धर्मगुरू के रूप में शियों की दबी हुई भावनाओं को उभारा।   इश्क़ी का कहना है कि इमाम ख़ुमैनी से लोग दिल की गहराइयों से प्रेम करते थे।

वे इमाम ख़ुमैनी के स्वर्गवास और उनके अन्तिम संस्कार का उल्लेख करते हुए बताती हैं कि बहिश्ते ज़हरा नामक तेहरान के क़ब्रिस्तान में इमाम ख़ुमैनी का अंतिम संस्कार एक एतिहासिक घटना बना जिसने यह  सिद्ध कर दिया कि लोग इमाम को दिल की गहराइयों से चाहते थे हालांकि यह बात पश्चिम वाले समझ नहीं पाएंगे।

लैला इश्क़ी, अपनी किताब में बहुत ही स्पष्ट शब्दों में ईरान की इस्लामी क्रांति पर करबला के आन्दोलन और उसके प्रभाव का उल्लेख करती हैं।  उनका मानना है कि ईरान की इस्लामी क्रांति और करबला के आन्दोलन में एक विशेष प्रकार का जुड़ाव पाया जाता है।  वे लिखती हैं कि ईरान की इस्लामी क्रांति अपने भीतर बहुत सी धार्मिक निशानियों को लिये हुए है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण करबला है।  तलवार पर ख़ून की विजय जैसे नारे करबला और इस्लामी क्रांति के बीच अटूट बंधन को दर्शाते हैं।  इसी प्रकार ईरान की इस्लामी क्रांति के दौरान एक अन्य नारा भी बहुत प्रचलित रहा है कि "हर दिन आशूर है और हर स्थान करबला है"।

करबला वास्तव में ऐसी घटना थी जो हर काल से ऊपर है।  करबला की घटना में हरएक अपने प्राणों की आहूति देने के लिए व्याकुल था।  वहां पर लोगों को जान देने से रोका जा रहा था और वे जान देने के लिए व्याकुल थे।  वे कहती हैं कि इस हिसाब से ईरान की इस्लामी क्रांति भी करबला की घटना से बहुत निकटता रखती है।  लैला इश्क़ी लिखती हैं कि हालांकि करबना की घटना और ईरान में आने वाली इस्लामी क्रांति के बीच शताब्दियों का अंतराल पाया जाता है किंतु दोनों में बहुत अधिक समानताएं मौजूद हैं।

ईरान के लोगों ने शाह के मुक़ाबले में प्रतिरोध का मार्ग अपनाया था जिसे उन्होंने करबला के आन्दोलन से लिया था।  शाह ने अपने सत्ताकाल में लोगों का बुरी तरह दमन कर दिया था।  उसने घुटन भरा वातावरण पैदा किया था जिसके कारण लोग स्वेच्छा से शहीद होने को तैयार थे।  शाह यह सोचता था कि स्वतंत्रता या फिर इस प्रकार के दूसरे अन्य काम, क्रांति को पलट सकते हैं।  दूसरी ओर क्रांतिकारियों का मानना था कि जो क्रांति के मार्ग में शहीद हो गए उन्होंने हुसैनी काम किया और जो लोग बाक़ी बचे हैं उनको ज़ैनबी काम करना चाहिए।  लैला इश्क़ी कहती हैं कि शाह की सबसे बड़ी ग़लती यह थी कि उसने सही बात को समझा नहीं था।  वह प्राचीन ईरान के उत्थान के लिए प्रयासरत था जबकि लोग करबला के आन्दोलन के पीछे जा रहे थे।

 

वे कहती हैं कि क्रांति के दौरान जो महत्व रखता था वह वर्तमान परिस्थितियों के प्रति चिंता थी न कि वर्तमान परिस्थितियों को नकारना।  लैला इश्क़ी ने कहा कि शाह अपनी ईरानी पहचान खो बैठा था जबकि यज़ीद भी इस्लामी समाज में मुंह दिखाने के लाएक़ नहीं रह गया था।  शाह के काल में ईरानी अपने ही घरों में अकेलेपन और उदासी का आभास करते थे।  अपने दुष्कर्मों से शाह ने ईरानियों को उनके ही घरों में क़ैद कर रखा था। शाह स्वयं को पश्चिमी इम्पीरियलिज़्म के हाथों बेच बैठा था।  वह पश्चिमी आदर्शों का पिछलग्गू था।  लोग पश्चिमी आदर्श से थक चुके थे और उससे मुक्ति पाना चाहते थे।  ईरानी जनता इस्लामी क्रांति से जिस चीज़ की आशा रखती थी वह थी स्वयं की ओर वापसी।  वे पश्चिम से मुक्ति के साथ आत्म सम्मान के इच्छुक थे।  क्रांति वास्तव में उस प्रकाश को अपने घर पहुंचाने के अर्थ में थी जो पश्चिमी मूल्यों के कारण अपना महत्व खोता जा रहा था।  लैला इश्क़ी, ईरान की इस्लामी क्रांति के कारणों और इमाम ख़ुमैनी के व्यक्तित्व का उल्लेख करते हुए कहती हैं कि लोगों ने व्यर्थ में क्रांति के लिए प्रयास नहीं किये थे बल्कि वे शुद्ध इस्लाम के लिए क्रांति लाए थे।

वे इस्लामी क्रांति में आम लोगों की भूमिका के बारे में कहती हैं कि लोगों ने वीरता को करबला से सीखा था।  इश्क़ी के हिसाब से शाह के मुक़ाबले में जो लोग थे वे वास्तव में उच्च स्थान के स्वामी थे अन्यथा वे मुक़ाबले न कर पाते।  वे कहती हैं कि वे लोग जो हज़ारों की संख्या में सड़कों पर निकल आते थे वे कौन लोग होते थे जो मरने के लिए हमेशा तैयार रहते थे।  वे न तो गोलियों से डरते थे, न टैंको से, न गोलों से, न हथियारों से।  वे सशस्त्र सैनिकों से बिल्कुल नहीं डरते थे बल्कि निहत्थे उनके मुक़ाबले में आ जाते थे।

लैला इश्क़ी कहती हैं कि ईरान की इस्लामी क्रांति का रहस्य, जनता की उपस्थिति है।  इस बारे में वे शाह के एक जनरल की स्वीकारोक्ति की ओर संकेत करते हुए लिखती हैं कि शाह का एक जनरल क्रांति के दौरान जनता की उपस्थिति के संबन्ध में कहता है कि अब कुछ नहीं किया जा सकता।  लोग मरने के लिए तैयार हैं।  उनको इस बात की चिंता नहीं है कि हम मारे जाएंगे।  आज इस प्रकार के लोग हमारे सामने डट गए हैं।  इनको देखकर ऐसा लगता है कि वे पागल हो गए हैं।  हमारे पास सबकुछ है लेकिन हम इनका कुछ नहीं कर पा रहे हैं।  हम लगातार कहते आए हैं कि विदेशियों का हाथ है लेकिन यह जनता है जो सबकुछ कर सकती है।  वह कहता है कि मैंने शाह से कहा था कि हमारे पास जो सेना है वह सबकुछ करने में सक्षम है लेकिन तेहरान में कुछ नहीं कर पा रही है।

अन्तिम बिंदु यह है कि इश्क़ी, ईरान की इस्लामी क्रांति को जनान्दोलन बताती हैं।  वे कहती हैं कि यह किसी एक गुट से विशेष नहीं है।  वे लिखती हैं कि सद्दाम का हमला और उसके मुक़ाबले में ईरानी राष्ट्र के कड़े प्रतिरोध ने ईरान की इस्लामी क्रांति के राष्ट्रीय आयाम को प्रदर्शित किया।

 

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