अल्लाह के ख़ास बन्दे-55
जैसाकि आप जानते हैं कि हम पैग़म्बरे इस्लाम (स) के एक पौत्र इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जीवन पर चर्चा कर रहे थे।
जब इमाम रज़ा (अ) ने मामून की ओर से उसके उत्तराधिकारी बनने के प्रस्ताव को रद्द कर दिया तो मामून ने इस काम के लिए उनपर दबाव डालना बढ़ा दिया। मामून ने धूर्ततापूर्वर्ण राजनीति को अपने पिता हारून और अन्य परिवार के सदस्यों से सीखा था। इमाम ने जब मामून के बढ़ते दबाव को देखा तो उन्होंने देखा कि वर्तमान परिस्थितियों में उसके प्रस्ताव को मानना ही उचित है। इसी के साथ उन्होंने इस काम के लिए एक शर्त रखी। इमाम रज़ा ने मामून से कहा कि मैं तुम्हारा उत्तराधिकारी बनने के प्रस्ताव को इस शर्त के साथ स्वीकार करूंगा कि किसी भी सरकारी काम में हस्तक्षेप नहीं करूंगा। इस प्रकार से इमाम ने अपने इस व्यवहार से बता दिया कि यह प्रस्ताव ज़बरदस्ती वाला है जिससे मामून की अवैध सत्ता के बारे में सवाल खड़े हुए।
संभवतः यहां पर कुछ लोगों के मन में यह सवाल पैदा हो कि इमाम रज़ा ने शहादत के डर से मामून के उत्तराधिकारी का प्रस्ताव स्वीकार किया था। इस सवाल के कई प्रकार से जवाब दिये जा सकते हैं। पहली बात तो यह है कि जब इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम, मदीने से मर्व के लिए निकले तो उन्होंने अपने साथ अपने परिवार के किसी भी सदस्य को नहीं लिया क्योंकि उनको भलि भांति ज्ञात था कि उनकी यह यात्रा एसी है जिसमें उनकी वापसी नहीं होगी और निश्चित रूप में यह मौत पर समाप्त होगी। दूसरी बात यह है कि इस्लाम में शहादत को विशेष महत्व प्राप्त है। ईश्वर के विशेष दास सदैव ही शहादत की कामना करते रहे हैं और करते हैं। एसे में यह कैसे संभव है कि एसा व्यक्ति जिसके पूर्वजों ने बड़ी-बड़ी क़ुर्बानियां दी हों और जो अल्लाह की राह में शहीद हो चुके हों उनकी संतान का कोई इंसान शहादत से घबराए। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का प्रशिक्षण एसे लोगों के बीच हुआ था जो ईश्वर के मार्ग में शहादत की इच्छा करते हुए उसपर गर्व किया करते थे। तीसरी बात यह है कि शहादत उस समय दी जाती है कि जब उसका कोई परिणाम सामने आए या न्याय की स्थापना हो रही हो तथा अत्याचार को दूर किया जाए।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम अगर चाहते तो जिस समय वे मर्व पहुंचे थे उस समय वे शहादत देने पर बल दे सकते थे। एसे में मामून अपनी धमकी पर अमल करते हुए इमाम रज़ा को शहीद कर सकता था। इस स्थिति में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम, किसी उच्च लक्ष्य को प्राप्त किये बिना शहीद हो जाते। इस प्रकार वे हाथ आए बहुत से अवसरों को गंवा देते। ऐसी स्थिति में तार्किक बात यह थी कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम, सुनियोजित कार्यक्रम के अन्तर्गत कोई काम करते क्योंकि उस समय उन्हें जहां एक ओर मामून से ख़तरा था वहीं पर उनको अपने पिता इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के तीन प्रतिनिधियों से भी जान का ख़तरा था जिन्होंने इमाम मूसा काज़िम (अ) की शहादत के बाद अपने पास मौजूद ख़ुम्स अर्थात इस्लामी टैक्स की रक़म हड़प ली थी। इन तीन लोगों में से दो इराक़ में थे, "अली बिन हम्ज़ा बताई" और ज़्याद बिन मरवान क़ंदी तथा मिस्र में "उस्मान बिन ईसा रवासी"। उस समय शियों के ख़ुम्स का सारा पैसा इन तीनों के पास मौजूद था।
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद यह तीनों लोग अपने पास मौजूद पैसे की लालच में आ गए और उन्होंने आपस में सांठगांठ करके उसे अपने नियंत्रण में ले लिया। फिर इन तीनों ने यह अफ़वाह फैलाई कि इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अधिकतर जेल में थे और अपनी शहादत से पहले उन्होंने अपना कोई उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया। इन्होंने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को बिल्कुल ही अनदेखा कर दिया। बाद में उन्होंने एक नया फ़िरक़ा या पंथ बनाया जिसका नाम था, "वाक़ेफ़िया"। वाक़ेफ़िया फ़िरक़े के माध्यम से इस झूठ को फैलाया गया कि इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ही हज़रत मेहदी थे जो बहुत ही जल्दी वापस आएंगे। इस प्रकार से इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम ने मर्व में अब्बासी शासकों विशेषकर मामून की वास्तविकता को उजागर किया दूसरी ओर वाक़ेफ़िया पंथ की ओर से फैलाई जा रही कुरीतियों का मुक़ाबला किया। इसके लिए उन्होंने लोगों के प्रश्नों के उत्तर दिये और शास्त्रार्थ किये।
यहां पर इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि अगर इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम इन बातों को अनदेखा करके मामून के प्रस्ताव को ठुकराते हुए शहीद हो जाते तो फिर तत्कालीन शासन के क्रियाकलापों और वाक़ेफ़िया पंथ के दुष्प्रचारों के कारण इमामत का सिलसिला सातवें इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम पर ही समाप्त हो जाता। इमाम रज़ा की नीति ने जहां एक ओर मामून के षडयंत्रों को विफल बनाया वहीं पर वाक़ेफ़िया फ़िरक़े को भी परास्त किया। इस प्रकार से आपने इमामत के उस क्रम को सुरक्षित रखा जिसे बारह इमामों तक पहुंचना था।
अपनी समस्त चालों के विफल हो जाने के बाद सन 202 हिजरी क़मरी में मामून ने अपनी छवि सुधारने के लिए इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को एक प्रस्ताव दिया था। उसने इमाम से अनुरोध किया कि वे ईद की नमाज़ पढ़ाएं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम उसकी चाल से भलिभांति अवगत थे इसलिए उन्होंने प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। मामून ने फिर अनुरोध करते हुए कहा कि जनहित में यही उचित है कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ही ईद की नमाज़ पढ़ाएं। आठवें इमाम ने यह सोचते हुए कि मामून इसका दुरूपयोग न करे कहा कि मैं उसी तरह से ईद की नमाज़ पढ़ाऊंगा जिस तरह से पैग़म्बरे इस्लाम (स) पढ़ाया करते थे। मामून ने इमाम रज़ा की यह बात मान ली। मामून यह सोच रहा था कि इस नमाज़ में अधिकतर सरकारी लोग उपस्थित होंगे और जनता में से कुछ लोग भी पहुंचेंगे। इस प्रकार से लोगों में यह संदेश जाएगा कि वह अच्छा शासक है।
इन्ही बातों के दृष्टिगत मामून ने इमाम रज़ा के लिए सजे हुए घोड़े और सिपाही भेजे जिनके साथ-साथ सरकारी अधिकारी भी थे। मामून यह सोचता था कि जब इमाम रज़ा सजे-धजे घोड़ों पर सवार होकर सैनिकों तथा सरकारी अधिकारियों के साथ नमाज़ पढ़ने पहुंचेंगे तो इसका लाभ उसे मिलेगा और जनता में उसका मान-सम्मान अधिक हो जाएगा। मामून की इच्छा के विरुद्ध इमाम अली रज़ा ने घोड़े पर सवार न होकर पैदल नंगे पैर मस्जिद जाने का फैसला किया और वे सादे कपड़ों में नमाज़ के लिए निकले। इमाम को चाहने वाले भी उनके साथ हो लिए और साथ ही बहुत बड़ा जनसमूह भी इमाम के साथ नमाज़ के लिए जाने लगा। इमाम रास्ते में तेज़ आवाज़ में अल्लाहो अकबर कहते जा रहे थे। जितने लोग उनके साथ चल रहे थे वे भी एक आवाज़ में अल्लाहों अकबर कहते जा रहे थे। ऐसे में पूरा वातावरण अल्लाहो अकबर के नारों से गूंज रहा था। इधर लोगों की संख्या में लगातार बहुत तेज़ी से वृद्धि होती जा रही थी। इसी बीच मामून के जासूसों ने उसे चेतावनी दी कि अगर इमाम रज़ा लोगों के साथ इसी प्रकार आगे बढ़ते रहे और नमाज़ के लिए मस्जिद तक पहुंच गए तो फिर यह तुम्हारे लिए हानिकारक सिद्ध होगा।
अपने जासूसों की इन रिपोर्टों को सुनकर मामून भयभीत हो गया और उसने तुरंत ही इमाम रज़ा को एक पत्र भेजा। पत्र में लिखा था कि अगर इसी प्रकार से आप आगे बढ़ते रहे तो यह आपके थकने का कारण बनेगा। ऐसे में मेरा मानना है कि आप स्वयं को परेशानी में न डालें कोई दूसरा ही नमाज़ पढ़ा सकता है।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को मालूम था कि मामून ने जनता को धोखा देने के लिए नमाज़ का आदेश दिया है जबकि वह दिल से एसा नहीं चाहता है। मामून का पत्र जिस समय इमाम की सेवा में पहुंचा उस समय वे लोगों के बीच वे उपस्थित थे और बहुत बड़ी संख्या में लोग उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो चुके थे। लेकिन उनको बीच रास्ते से वापस जाना पड़ा। इमाम की वापसी ने मामून की असलियत को लोगों के सामने खोल कर रख दिया। लोगों को यह पता चल गया कि मामून को धर्म और धार्मिक मूल्यों से कोई लगाव नहीं है। वह केवल उस समय तक धर्म का समर्थन करता है जबतक धर्म से उसके हित पूरे होते हैं।
इस घटना के बाद लोगों के बीच मामून का विरोध बढ़ गया। जनता के बीच कुछ गुट बन गए जो मामून का खुलकर विरोध करने लगे। यह गुट उसी प्रकार के थे जिस प्रकार से इमाम अली के काल में ख़वारिज गुट था। यह लोग मामून, फ़ज़ल बिन सहल और इमाम रज़ा की हत्या करना चाहते थे। मामून को जब इस बात का पता चला तो उसने स्वयं को उनसे सुरक्षित कर लिया। बाद में उसने यह फ़ैसला किया कि इमाम रज़ा को अपने रास्ते से हटाए क्योंकि वे उसके मार्ग की बहुत बड़ी बाधा हैं। मामून ने बहुत ही चालाकी से इमाम रज़ा की हत्या की योजना बनाई ताकि लोगों को इस बात का आभास ही न हो सके के उनकी हत्या के पीछे किसका हाथ है। उसने एक समारोह में इमाम रज़ा को निमंत्रित किया। उस समारोह में इमाम रज़ा के सामने जो फल रखा गया था उसमें ज़हर भर दिया गया था जिसे खाने से इमाम की शहादत हुई। इस प्रकार 29 सफ़र सन 203 हिज़री क़मरी को इमाम रज़ा की शहादत हुई। इमाम की शहादत के बाद मामून ने आदेश दिया कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को मश्हद में उसके पिता हारून रशीद की क़ब्र के पास दफ़न किया जाए।