Jan २६, २०१९ १७:१६ Asia/Kolkata

मंसूर मोअद्दिल एक ईरानी विशलेषक हैं जो राजनीति, धर्म तथा सत्ता के बारे में अपने दृष्टिकोण पेश करते हैं।

ईरान की इस्लामी क्रांति के बारे में उनकी कई रचनाएं मौजूद हैं।  उनकी एक किताब का नाम है, "ईरान की क्रांति में वर्ग, राजनीति और दृष्टिकोण"।  मंसूर मोअद्दिल की इस किताब में ईरान की इस्लामी क्रांति के कारणों के बारे में चर्चा की गई है।  वे अमरीका के मैरीलैण्ड विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर हैं।  हालांकि मंसूर मोअद्दिल के विचार ईरान की इस्लामी क्रांति से प्रभावित रहे हैं किंतु उनके विचारों में मार्कसिज़्म की ओर झुकाव पाया जाता है।  यही कारण है कि मंसूर मोअद्दिल ने ईरान की इस्लामी क्रांति की समीक्षा करते हुए जो विचार पेश किये हैं उनमें से कुछ इस क्रांति की वास्तविकता से मेल नहीं खाते हैं।

ईरान की इस्लामी क्रांति के बारे में वे लिखते हैं कि सन 1977 से 1979 के बीच ईरान की इस्लामी क्रांति इतनी तेज़ी से आगे बढ़ी कि इसने न केवल यह कि विदेशी पर्यवेक्षकों एवं टीकाकारों को अचंभित कर दिया बल्कि इस क्रांति ने क्रांतिकारियों को भी आश्चर्य में डाल दिया।  मंसूर कहते हैं कि ईरान की इस्लामी क्रांति ने समाज शास्त्रियों को भी आशचर्यचकित कर डाला।  उनका मानना है कि क्रांति के लिए चलाए जाने वाले आन्दोलन ने जो गति पकड़ी वह भी बहुत ध्यानयोग्य बात थी।

मैरीलैण्ड विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के प्रोफेसर मंसूर मोअद्दिल कहते हैं कि कुछ विचारकों का मानना है कि ईरान की इस्लामी क्रांति दो अलग अलग गुटों के समन्वय का परिणाम थी।  एक व्यापारियों तथा पश्चिम पर निर्भर पूंजीपतियों के गठजोड़ और दूसरे 1970 के दशक के आर्थिक संकट से उत्पन्न होने वाले मज़दूरों तथा पूंजीपतियों के मतभेद से।  हालांकि इस बात को रद्द करते हुए कहा गया है कि इस प्रकार के मतभेद किसी भी स्थिति में ईरान की इस्लामी क्रांति की सफलता का कारण नहीं बने।  ईरान की इस्लामी क्रांति विरोधी मोर्चे की विचारधारा के रूप में शिया आइडियालोजी का परिणाम है।  वास्तव में शिया आइडियालोजी के विस्तार ने 70 के दशक की सामाजिक अप्रसन्नता को क्रांति की भूमिका के रूप में बदल दिया।  उसके प्रतीकात्मक ढांचे तथा धार्मिक झुकाव ने तत्कालीन सरकार के विरुद्ध लोगों को एकजुट होने का अवसर प्रदान किया।  यह चीज़ क्रांति में भाग लेने वालों के बीच प्रभावी संपर्क का कारण बनी।  इसी प्रकार शिया क्रांतिकारी विचारधारा ने क्रांति के बाद समाज के विभिन्न वर्गों में मतभेद को दूर करके समरसता का मार्ग प्रशस्त किया।  मंसूर का मानना है कि क्रांतियों के बीच उनकी शैली तथा भूमिका की दृष्टि से अंतर पाया जाता है।  उनका मानना है कि कुछ विचारकों के हिसाब से ईरान की इस्लामी क्रांति दो विपरीत घटकों के एकजुट होने का परिणाम थी।  वे कहते हैं क इस्लामी क्रांति, विरोधी मोर्चे की विचारधारा के मुक़ाबले में शिया क्रांति की वार्ता के रूप में सामने आई। 

शिया क्रांतिकारी आइडियालाजी के बारे में मंसूर मोअद्दिल का दृष्टिकोण सही है किंतु उनकी इस बात की आलोचना की जा सकती है कि इस्लामी क्रांति से पहले ईरान में कभी भी गंभीर राजनैतिक संकट नहीं आया।  डाक्टर मुहम्मद रहीम ऐवज़ी, उनके इस कथन की प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं कि यदि ऐसा नहीं था तो फिर इस्लामी क्रांति से पहले राजनैतिक बंदियों का दमन तथा "हिज़्बे रस्ताख़ीज़" नामक दल की सदस्यता के लिए क्यों बाध्य किया जाता था?

मंसूर मोअद्दिल, पहलवी शासन का तख्ता पलटने में इस्लाम की भूमिका पर बल देते हैं।  वे कहते हैं कि क्रांति की मुख्य विशेषता, उसका दृष्टिकोण होता है।  शिया विचारधारा की भूमिका के बिना 1979 की ईरान की इस्लामी क्रांति, के आने और उसके बाक़ी रहने की कल्पना भी कठिन है।  मंसूर कहते हैं कि इस्लामी क्रांति की प्रमुख विशेषता, क्रांति के आन्दोलन पर धर्म का प्रभाव है।  उदाहरण स्वरूप क्रांति के दौरान जेहाद, शहादत, त्याग, बलिदान, आशूर, हुसैनी आन्दोलन और इसी प्रकार के शब्दों का प्रयोग इसके धार्मिक स्वरूप को बताता है।  इसके अतिरिक्त शाह के विरुद्ध जन प्रदर्शन सामान्यतः पवित्र महीनों में शुरू हुए जो मस्जिदों से आरंभ हुए थे।  अन्य दलों की तुलना में इस्लामी दलों की निर्णायक भूमिका के बारे में मंसूर अपनी किताब "ईरान की क्रांति में वर्ग, राजनीति और दृष्टिकोण" में लिखते हैं कि सन 1978 के प्रदर्शनों ने धार्मिक एवं सैक्यूलर शक्तियों के बीच संपर्क को मज़बूत किया।  इसी बीच इमाम ख़ुमैनी और उनके समर्थकों ने अन्य दलों पर वरीयता प्राप्त कर ली।  बाद में सैक्यूलर दलों विशेषकर वामपंथियों ने इस बात को स्वीकार किया और उनमें से अधिकांश ने शाह के विरुद्ध लोगों को एकजुट करने के लिए धार्मिक शैली को अपनाया।  उनकी यह बात एक दृष्टि से सही है जबकि एक अन्य दृष्टि से इसकी आलोचना की जा सकती है।  उनकी यह बात इस दृष्टि से सही है कि इसमें क्रांति पर धर्म के प्रभाव को स्वीकार किया गया है यहां तक कि उस समय के सैक्यूलरों ने भी इस बात को माना है।  मंसूर का कथन इस दृष्टि से आलोचना योग्य है कि केवल सैक्यूलरों ने ही क्रांति के दौरान इस्लामी दलों के साथ समन्वय किया था बल्कि राष्ट्रवादी दल भी इस्लामी गुटों से जा मिले।  इस प्रकार के गुट क्रांति की सफलता के पूर्व से लेकर उसकी सफलता तक दिखाई दिये और इसका स्पष्ट उदाहरण मोहंदिस बाज़रगान का ईरान की सत्ता के शीर्ष तक पहुंचना है।

इस्लामी क्रांति आने के संदर्भ में मंसूर मोअद्दिल अपना एक अन्य दृष्टिकोण पेश करते हुए कहते हैं कि क्रांति का संकट उस समय आरंभ हुआ जब इस्लामी विचारधारा के विरोधियों की आइडियोलाजी, शाह की विचारधारा पर भारी पड़ गई।  यह दोनों विचारधाराएं एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत थीं।  जब लोगों की अप्रसन्नता इस्लामी विचारधारा के रूप में सामने आई तो क्रांति का आन्दोलन हर प्रकार के मतभेदों से ऊपर उठकर जन विरोध में बदल गया।  इस प्रकार क्रांतिकारी इस्लाम, आर्थिक समस्याओं को बदलते हुए स्वतंत्र रूप में इस्लामी क्रांति की सफलता की भूमिका बन गया।

इस्लामी क्रांति में आइडियालाजी की भूमिका की समीक्षा में मंसूर, नई विचारधारा पेश करते हैं।  इस विचारधारा को वे Scene discourse के नाम से पेश करते हैं।  उनके अनुसार यह Reductionism का माडल था जो उसके स्वावलंबन को क्रांति की प्रक्रिया में अनदेखा करता है।  हालांकि उनके मतानुसार आईडियालोजी ऐसा प्रमुख कारक होता है जो क्रांति को लाने में सीधी भूमिका निभाता है।

मंसूर कहते हैं कि इस्लामी क्रांति में शिया मत की विचारधारा ने दर्शा दिया है कि क्रांति को लाने और उसे आगे बढ़ाने की प्रक्रिया में आइडियालोजी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।  वे लिखते हैं कि क्रांति का व्यवहार विचारधारा के माध्यम से रूप धारण करता है और आर्थिक एवं राजनैतिक कारकों की भूमिका दूसरे नंबर पर आती है।  हालांकि क्रांति में स्रोतों का अस्तित्व अहम होता है।  जिस प्रकार से इस्लामी क्रांति ने दर्शा दिया कि क्रांति के दौरान वे गुट ही सफल होते हैं जिनकी प्रतिक्रिया विचारधारा के अनुकूल हुआ करती है।  इससे पता चलता है कि मंसूर भी विचारधारा को क्रांति के मूल कारक के रूप में मानते हैं।

इस्लामी क्रांति के बारे में मंसूर मोअद्दिल के कुछ विचारों की आलोचना भी की गई है।  उदाहरण स्वरूप वे कहते हैं कि ईरान की इस्लामी क्रांति, क्रांति के बारे में पाए जाने वाले दृष्टिकोणों के लिए एक प्रकार का गतिरोध या अव्यवस्था पैदा करती है।  ईरान की इस्लामी क्रांति, उससे पहले आई जब कोई सरकार गिरती या उसका तख्ता पलटता।  यह उससे पहले आई कि जब कोई गंभीर आर्थिक या राजनीतिक संकट उत्पन्न होता।  यहां तक कि किसी संगठित गुट के सहयोग के बिना।  इस बारे में डाक्टर मुहम्मद रहीम ऐवज़ी लिखते हैं कि मंसूर का यह दृष्टिकोण राजनीतिक समाशास्त्र की दृष्टि से कमज़ोर है क्योंकि क्रांति का अर्थ है किसी व्यवस्था की समाप्ति।  क्रांति के आने से सामाजिक व्यवस्था भी उथल-पुथल का शिकार हो जाती है जो अपने भीतर राजनीतिक व्यवस्था को लिए होती है।  इस प्रकार सरकारों का गिरना, क्रांतियों की सफलता का परिचायक है।

 

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