शौर्य गाथा-4
शीत युद्ध के दौरान जब विश्व दो महाशक्तियों के बीच बंटा हुआ था उस काल में सद्दाम की ओर से ईरान पर हमले जैसी कोई घटना नहीं मिलती जिसके समर्थन में परस्पर टकराव रखने वाली महाशक्तियां भी एकजुट हो गई हों।
ईरान की इस्लामी क्रांति से पहले वाले ईरान में शाह, मध्यपूर्व में अमरीकी कठपुतली के रूप में वाइट हाउस की नीतियों को लागू कर रहा था।
इस्लामी क्रांति के आने से ईरान में राजशाही शासन व्यवस्था का समाप्त हो जाना, अमरीका के लिए बहुत हानिकारक था। इसका मुख्य कारण यह था कि उस समय कोई एसा देश नहीं था जो मध्यपूर्व में ईरान की भूमिका निभाए। यही कारण है कि ईरान की इस्लामी क्रांति से अमरीका की शत्रुता बहुत ही गहरी और पुरानी है। ईराना की इस्लामी क्रांति की सफलता के समय से वाइट हाउस की मुख्य रणनीति, ईरान की इस्लामी शासन व्यवस्था को गिराना रही है।
जूलाई सन 1980 में अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बेरज़ेन्सकी के साथ इराक़ से लगने वाली जार्डन की सीमा पर सोवियत संघ के घटक सद्दाम की मुलाक़ात के बाद से इराक़ और अमरीका के बीच संबन्धों का नया अध्याय आरंभ हुआ। इस मुलाक़ात के बाद अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने इराक़ को पांच बोईंग यात्री विमान बेचने की अनुमति देदी। सद्दाम द्वारा ईरान पर हमला करने से कुछ ही दिन पहले इराक़ से जनरल मोटर बेचने का प्रतिबंध भी हटा लिया। उस समय इराक़ और अमरीका के पाई जाने वाली भ्रातियों और दोनो देशों के बीच अविश्वास के वातावरण के बावजूद वाइट हाउस को इस बात का भरोसा था कि सद्दाम ही ईरान की नव गठित सरकार से भिड़ सकता है।
सद्दाम ने मौके का फाएदा उठाते हुए स्वयं को क्षेत्र का भाग्यविधाता बनाने के लिए क़दम आगे बढ़ाया। वह अरब जगत का अगुआ बनने का इच्छुक था बल्कि वह स्वयं को ऐसी ही समझता था। सद्दाम ने सऊदी अरब के साथ मैत्रीपूर्ण संबन्ध बनाने आरंभ कर दिये। उसने स्वयं को रियाज़ के अतिवादी शत्रुओं के मुक़ाबले में ढाल के रूप में पेश किया। सददाम, अमरीका से अधिक निकट होने और पूर्व सोवियत संघ के मोर्चे में बने रहने के उद्देश्य से कैंप डेविड समझौते से निकल गया। ईरान और अमरीका के बीच संबन्धों के विच्छेद होने के अगले ही दिन सद्दमा ने एलान किया कि इराक़, अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए पूरी तरह से तैयार है। सद्दाम ने यह एलान अमरीका के इरादों को भांपने के बाद किया था।
बाद में अमरीका ने सऊदी अरब के माध्यम से ईरान की सैनिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति की छोटी से छोटी बात से भी अवगत करवा दिया था। इन सूचनाओं को हासिल करके सद्दाम को बहुत हिम्मत मिली। साप्ताहिक पत्रिका Jean Afrika ने 9 जून 1982 के अपने संस्करण में लिखा था कि ईरान-इराक़ युद्ध आरंभ होने से ठीक एक महीने पहले सऊदी अरब के अधिकारियों ने सद्दाम का स्वागत करते हुए सद्दाम को एक उपहार भेंट किया था। यह उपहार अमरीका की गुप्तचर सेवाओं की ओर से ईरान में बारे में एकत्रित की गई जानकारियां थीं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि ईरान की सेना, उसकी सैन्य क्षमता, सैनिकों की संख्या और उसके पास पाए जाने वाले हथियारों एवं उपकरणों की पूरी सूचि भी सद्दाम के हवाले कर दी गई थी।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि ईरान के बारे में छोटी से छोटी जानकारी भी सद्दाम को उपलब्ध करा दी गई थी। ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता से पहले तक इस देश की सेना पूर्ण रूप से अमरीका पर निर्भर थी। उस समय ईरान के सैनिक उच्च स्तरीय प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए अमरीका जाया करते थे। यही कारण है कि ईरान के संबन्ध में अमरीका की ओर से उपलब्ध कराई गई जानकारी सद्दाम के लिए बहुत ही महत्व रखती थी। इन जानकारियों को हासिल करने के बाद सद्दाम का यह मानना था कि मात्र तीन दिनों के भीतर वह ईरान के ख़ुज़िस्तान प्रांत पर बड़ी सरलता से नियंत्रण प्राप्त कर लेगा। इस संदर्भ में श्पैगल का लिखना है कि एसे बहुत से प्रमाण पाए जाते थे जिनसे एसा लगता था कि ईरान की तत्कालीन सेना इराक़ के साथ क्लासिकल युद्ध में हार जाएगी। इसका मुख्य कारण यह था कि इराक़ के पास संगठिन और प्रशिक्षित सेना थी। इस विषय की समीक्षा करते हुए ट्रिब्यून हेराल्ड लिखता है कि उस समय के अमरीकी विशलेषकों का पूरा विश्वास था कि ईरान की सेना अपनी सीमाओं की सुरक्षा करने में सक्षम नहीं है एसे में एक कठिन युद्ध में वह कुछ ही दिनों में या कुछ सप्ताहों में पूर्ण रूप में पराजित हो जाएगी।
जिस समय सद्दाम ने ईरान पर हमला किया था उस समय ईरान में अधिकारियों के बीच कोई समन्वय नहीं था। कुछ क्रांतिकारी लोग अपने प्रयासों के कारण पदों पर आसीन हो चुके थे किंतु उनके बीच कुछ एसे लोग भी थे जो इस्लामी क्रांति के शत्रुओं के लिए जासूसी किया करते थे। उनमें से एक बनी सद्र भी था जो ईरान का पहला राष्ट्रपति बना था। राष्ट्रपति होने के साथ ही साथ वह ईरान की सशस्त्र सेनाओं का प्रमुख भी था। इस बारे में अलहवादिस पत्रिका ने लिखा है कि बनी सद्र को यह भलिभांति पता था कि देश की सेना किसी भी देश की सेना के साथ युद्ध करने में सक्षम नहीं है।
दूसरी बात यह थी कि सेना के बड़े-बड़े अधिकारी या तो देश छोड़कर भाग गए थे या उनमें से कुछ को फांसी देदी गई थी। इसी बीच सेना के टेक्नीशियनों को निकाला जा चुका था। एसे में बनीसद्र को पता था कि अगर इराक़ की सेना ईरान पर हमला करती है तो क्या होगा। इसी बीच बनीसद्र ने अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिए सद्दाम के हमले को अपने लिए अच्छा अवसर समझा। उधर युद्ध के मोर्चे पर जो आम लोग जा रहे थे उनको सेना से कोई सहयोग नहीं मिल रहा था।
उल्लेखनीय है कि तबस में पराजित होने के बाद अमरीकियों ने युद्ध और सैन्य विद्रोह की गहन समीक्षा की। बाद में उन्होंने युद्ध के मुक़ाबले में सैन्य विद्रोह को वरीयता दी। सैन्य विद्रोह करने वालों में से एक का कहना है कि चर्चा इस बात थी कि युद्ध और सैन्य विद्रोह में से किसे चुना जाए? सैन्य विद्रोह की पराजय की स्थिति में युद्ध आरंभ किया जाए।
सैन्य विद्रोह के आरंभ होने के साथ ही पता चला कि इराक़ ने सीमा के बीस क्षेत्रों में झडपें आरंभ कर दी हैं। इससे लक्ष्य यह था कि सबका ध्यान देश के भीतर न रहकर सीमा की ओर मुड़ जाए। इस बात के दृष्टिगत कि सद्दाम द्वारा ईरान पर हमले की भूमिका महाशक्तियों ने बनाई थी, साक्ष्यों से पता चलता है कि इराक़ और कुछ क्षेत्रीय देशों को विद्रोहियों का पूरा समर्थन प्राप्त था। अमरीकी मांगों को मनवाने के लिए सैन्य विद्रोह की विफलता के बाद युद्ध की भूमिका समतल की गई और सद्दाम ने सैन्य विद्रोह की विफलता के तुरंत बाद सीमा पर सैनिकों को भिजवाने की भूमिका तेज़ कर दी।