Feb ०२, २०१९ १७:०० Asia/Kolkata

हम यह बता चुके हैं कि सद्दाम ने किन परिस्थितियों में और किन लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से ईरान पर हमला किया था। 

इसी वार्ता को ही आगे बढ़ा रहे हैं।  अमरीकी अधिकारियों के साथ विस्तृत वार्ता और उनके माध्यम से प्राप्त ईरान की सैनिक, आर्थिक एवं राजनैतिक जानकारियों की गहन समीक्षा के उपरांत सद्दाम ने 22 सितंबर 1980 को ईरान के विरुद्ध हमला शुरू किया।  यह हमला जल, थल और वायु तीनों क्षेत्रों में किया गया था।

इराक़ के तानाशाह सद्दाम ने ईरान पर हमले से पहले 17 सितंबर 1980 को एक प्रतीकात्मक आयोजन में "अल्जीरिया प्रस्ताव-1975" को रद्द करने का एलान किया था।  यह एलान उसने एक टीवी कार्यक्रम के दौरान किया।  साथ ही उसने "अरवंद रूद" नामक नदी पर इराक के पूर्ण नियंत्रण का भी दावा कर डाला।  इससे पहले सन 1975 में सद्दाम ने ईरान तथा इराक़ के बीच सीमा संबन्धी विवाद के हल होने की बात स्वीकार करते हुए अल्जीरिया समझौते पर हस्ताक्षर किये थे।  इस हस्ताक्षर के ठीक पांच वर्षों के बाद सद्दाम ने स्वयं ही इस समझौते को फाड़ दिया।  सद्दाम का सोचना यह था कि सैन्य संतुलन अब पूर्ण रूप से इराक़ के हित में परिवर्तित हो चुका है और वह क्षेत्र की एक शक्ति बन गया है।

सद्दाम ने ईरान पर 800 तोपों, 5400 टैंकों, 400 एंटी एयरक्राफ्ट, 366 विमानों और 400 हैलिकाप्टरों की सहायता से हमला किया था।  इस हिसाब से वह हमले के समय सैन्य दृष्टि से बहुत अच्छी स्थिति में था।  सद्दाम का यह मानना था कि अमरीका के साथ सहयोग करके वह ईरान में आई इस्लामी क्रांति और शाह की सरकार के गिरने के बाद उत्पन्न हुए शून्य की भरपाई बड़ी सरलता से कर सकता है।  ईरान पर हमले से सद्दाम के कई लक्ष्य थे एक तो सीमा संबन्धी विवाद को अपने हित में मोड़ना, दूसरे ईरान के ख़ुज़िस्तान प्रांत को अलग करना और तीसरा नवगठित इस्लामी व्यवस्था को धराशाई करना।

अरवंद रूद नामक नदी पर इराक़ के पूर्ण नियंत्रण के दावे और अल्जीरिया समझौते को फ़ाड़ने से सद्दाम का लक्ष्य यह था कि ईरान को टुकड़ों में बांटा जाए।  उसका मानना था कि अल्जीरिया समझौते को निरस्त करके इराक़ द्वारा फ़ार्स की खाड़ी के उत्तरी क्षेत्र के जल तक उसकी पहुंच बन जाएगी लेकिन इसके लिए उसके हिसाब से हमला बहुत ज़रूरी था।  सद्दाम सोच रहा था कि ईरान पर हमला करके ख़ुज़िस्तान प्रांत को उससे अलग करने के बाद बड़ी सरलता से फ़ार्स की खाड़ी तक पहुंच बनाई जा सकती है।

ईरान का ख़ुज़िस्तान प्रांत अपनी स्ट्रैटेजिक स्थिति के कारण सद्दाम की मनोकामना को पूरा करने वाला बन सकता था।  उसकी सोच थी कि ईरान की नवगठित सरकार को गिराकर ख़ूज़िस्तान प्रांत पर नियंत्रण करेंगे और फिर फ़ार्स की खाड़ी के उत्तरी क्षेत्र का प्रयोग अपनी इच्छानुसार करेंगे।  इस प्रकार से क्षेत्र में उसका वर्चस्व स्थापित हो जाएगा।

इस्लामी गणतंत्र ईरान पर हमला करके सद्दाम जिस लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते थे उसके लिए उसने अपने सबसे शक्तिशाली ब्रिगेड का सहारा लिया था और वह था ईरान का तेल से मालामाल प्रांत ख़ुज़िस्तान।  उसने इराक़ी सेना की 9वीं बटालियन को ख़ुज़िस्तान प्रांत के केन्द्रीय नगर अहवाज़ पर कब्ज़ा करने के लिए तैनात किया था।  इसके अतिरिक्त इराक़ी सेना की पहली और पांचवी बटालियनों को भी सहायता के लिए भेजा गया था।  इसके अतिरिक्त इराक़ी सेना की तीसरी बटालियन की विशेष टुकड़ी को इस काम के लिए तैयार रखा गया था कि तटीय नगर ख़ुर्मशहर का परिवेष्टन करने के बाद कारून नदी को पार करते हुए अबादान नगर का पूरी तरह से परिवेष्टन कर लिया जाए।  इस पूरी योजनाबंदी के बाद ईरान पर हमला शुरू किया गया।  अमरीका से मिली गोपनीय सूचनाओं के आधार पर सद्दाम को पूरा विश्वास था कि बहुत जल्द ही वह ईरान के दक्षिणी क्षेत्र पर नियंत्रण कर लेगा और उसके बाद जैसी उसकी इच्छा होगी वह वैसा करेगा।

 

दूसरी ओर इराक़ी सैनिकों के मुक़ाबले में ख़ुज़िस्तान प्रांत में जनता ने कड़ा प्रतिरोध किया।  इसी बीच ख़ुज़िस्तान में मौजूद ईरानी सैनिकों ने इराक़ी सेना की प्रगति को रोकने और फिर उन्हें खदेड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  सैनिकों तथा जनता के कड़े प्रतिरोध के कारण अहवाज़ नगर पर सद्दाम के सैनिकों का नियंत्रण नहीं हो सका।  इराक़ी सेना अहवाज़ नगर से 15 किलोमीटर की दूरी तक पहुंच चुकी थी और अबादान नगर का किसी सीमा तक परिवेष्टन कर लिया था किंतु ईरानी जियालों ने उस समय जो प्रतिरोध किया उसने इराक़ी सैनिकों के दांत खट्टे कर दिये।  ईरान के हर क्षेत्र से युवा देश की रक्षा के लिए आगे आने लगे।  हज़ारों ईरानी जवान बहुत ही कम हथियारों के साथ ख़ुज़िस्तान के मोर्चों की ओर बढ़ने लगे।  उधर ख़ुर्रमशहर के जवानों ने इराक़ी सैनिकों के मुक़ाबले में जो प्रतिरोध किया वह आठ वर्षीय प्रतिरक्षा के इतिहास में अमिट हो गया।  ख़ुर्रमशहर के युवाओं, महिलाओं और पुरूषों सबने मिलकर 35 दिनों तक जो कड़ा प्रतिरोध किया वह वास्तव में उल्लेखनीय था।  उन्होंने शत्रु को घुसने नहीं दिया।

इराक़ी सेना के एक कमांडर ने, जो ख़ुर्रमशहर पर हमले के दौरान इराक़ी सैनिकों का नेतृत्व कर रहा था, जब ईरानी जियालों का प्रतिरोध देखा और इस नगर पर क़ब्ज़ा करने का फैसला त्याग चुका तो उसने कहा था कि युद्ध के आरंभ में ईरानियों की ओर से कोई विशेष प्रतिरोध नहीं दिखाई दे रहा था।  इसी बीच हमारे सैनिकों ने तेज़ी से आगे बढ़ने का प्रयास किया।  इसके जवाब में ईरानियों का प्रतिरोध इतना अधिक बढ़ गया था कि हम जीतते हुए भी हार गए और हमें पीछे हटना पड़ा।  उधर इराक़ की सेना की तीसरी बटालियन ने भी आगे बढ़ने में अपनी अक्षमता को स्वीकार किया।