शौर्य गाथा- 8
आजके कार्यक्रम में सद्दाम की सेना के मुक़ाबले में ख़ुर्रमशहर के प्रतिरोधकर्ताओं के बीच बहनाम मुहम्मदी और मुहम्मद हुसैन फ़हमीदे जैसे दो किशोर प्रतिरोधकर्ताओं की भूमिका की चर्चा की जाएगी।
पिछले कार्यक्रम में न्यूतम सैन्य संभावनाओं के साथ ईरानी किशोरों व युवाओं द्वारा अपने देश की रक्षा के लिए किए जाने वाले प्रतिरोध के बारे में बात की थी। इस प्रतिरोध को एक स्वर्णिम और साथ ही दुखद अध्याय ईरान के दक्षिण में और इराक़ की सीमा के निकट स्थित तटवर्ती नगर ख़ुर्रमशहर की रक्षा के लिए युवाओं का बलिदान है। ख़ुर्रमशहर के वीर सपूतों ने इराक़ की कई सैन्य टुकड़ियों को 34 दिन तक इस शहर के बाहर रोके रखा था। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षण तक दुश्मन से युद्ध किया और अपने प्रतिरोध, बलिदान और साहस एक क्रांतिकारी शौर्य गाथा लिखी।
एसोशिएटेड प्रेस के पत्रकार एलेक्स एफ़नाए ने उन दिनों ख़ुर्रमशहर की स्थिति के बारे में लिखा हैः "ईरानी वीरों ने अक्तूबर सन 1980 में इतने कड़े प्रतिरोध का प्रदर्शन किया कि ख़ुर्रमशहर पर इराक़ी सेना के क़ब्ज़े के बाद उसका नाम ख़ूनींशहर अर्थात रक्तरंजित नगर पड़ गया। ख़ुर्रमशहर में बड़ी मुश्किल से कोई ऐसा घर मिलेगा जिसकी दीवारों पर गोलियों या मार्टर गोलों के निशान न हों। यह इस बात का प्रमाण है कि ईरानी जवानों ने किस प्रकार एक एक घर करके इस शहर की रक्षा की थी। इराक़ के एक वरिष्ठ कमांडर ने उस समय कहा था कि ईरानियों ने, जिनमें से अधिकतर युवा व अनुभवहीन थे, अपनी अंतिम सांस तक ख़ुर्रमशहर की रक्षा के लिए प्रतिरोध किया।"
ख़ुर्रमशहर की शौर्य गाथा लिखने वालों में बहनाम मुहम्मदी नामक एक तेरह वर्षीय विद्यार्थी भी है। बहनाम का जन्म वर्ष 1967 में ख़ुर्रमशहर में अपने दादा के घर हुआ। सितम्बर सन 1980 में ख़ुर्रमशहर पर इराक़ियों के हमले की अफ़वाहें मज़बूत होने लगी थीं। बहनाम को विश्वास नहीं हो रहा था कि ख़ुर्रमशहर, इराक़ियों के क़ब्ज़े में जा सकता है लेकिन युद्ध वास्तव में शुरू हो गया था। बहनाम ने ख़ुर्रमशहर में ही रुकने का फ़ैसला किया। जब बमबारी होती थी तब तेरह वर्षीय बहनाम दौड़ता हुआ जाता और घायलों की मदद करता था। नगर की रक्षा करने वाले बहुत मामूली से हथियारों के साथ इराक़ियों के मुक़ाबले में डटे हुए थे।
बहनाम शत्रु के मोर्चों की पहचान के लिए जाया करता था। उसने कई बार कहा था कि मैं अपनी मां को ढूंढ रहा हूं, वह कहीं खो गई है। इराक़ के सैनिक, जो यह सोच भी नहीं सकते थे कि वह 13 वर्षीय बच्चा जासूसी कर रहा है, उसे छोड़ दिया करते थे। शहर पर इराक़ियों का क़ब्ज़ा होता जा रहा था। बहुत से घरों में कई कई इराक़ी सैनिक छिपे हुए होते थे या आराम कर रहे होते थे। बहनाम अपने शरीर पर मिट्टी डाल लेता था, बाल बिखरा लेता था और रोते हुए उन घरों का पता लगाता था जिनमें इराक़ी होते थे। इराक़ी सैनिकों को भी मिट्टी में अटे हुए एक बच्चे से कोई लेना-देना नहीं था।
इसके बाद बहनाम जा कर इराक़ी सैनिकों के एकत्र होने के ठिकानों के बारे में ख़ुर्रमशहर के वीरों को सूचना दे देते थे। मार्टर गोलों की आवाज़ें कान फाड़े दे रही थीं और आरश नामक सड़क पर भीषण झड़पें हो रही थीं। हमेशा की तरह बहनाम वहां पहुंच गया। थोड़ी ही देर बाद शहर के रक्षकों ने देखा कि बहनाम एक किनारे गिरे पड़े हैं और उनके सिर व सीने से ख़ून उबल रहा है। उनकी नीली शर्ट ख़ून से सन गई थी। ख़ुर्रमशहर के पूरी तरह दुश्मन के हाथ में जाने से कुछ ही दिन पहले इस शहर का वीर व साहसी किशोर अंततः शहीद हो गया था।
बहनाम ने अपनी कम आयु के बावजूद एक वसीयत लिखी थी। उनकी वसीयत में लिखा थाः मैं वसीयत करना चाहता हूं ... मैं हर क्षण शहादत की प्रतीक्षा में हूं ... मैं दोस्तों से निवेदन करता हूं कि इमाम (ख़ुमैनी) को अकेला न छोड़ें और ईश्वर को न भूलें। केवल ईश्वर पर भरोसा करें। माताओ! पिताओ! अपने बच्चों का इस प्रकार प्रशिक्षण कीजिए कि वे ईश्वर के मार्ग में जेहाद से प्रेम करें।
अपनी धरती पर हमला करने वाले अतिक्रमणकारियों के मुक़ाबले में ईरान के वीर युवाओं की आठ वर्षीय पवित्र प्रतिरक्षा की एक विशेषता, ईश्वर पर उनकी गहरी आस्था थी। ईश्वर पर ईमान ही था जिसने युद्ध के मोर्चों पर एक विशेष आध्यात्मिक माहौल पैदा कर दिया था। उन वीरों के शब्दकोष में पराजय नाम का शब्द ही नहीं था। मौत से न डरने की उनकी विशेषता ही थी जिसके कारण वे न्यूतनम संभावनाओं के बावजूद इराक़ की सिर से पैर तक हथियारों से लैस बासी सेना के मुक़ाबले में डटे रहे। इराक़ की सेना को तत्कालीन संसार के पूर्वी व पश्चिमी ब्लाकों के पिट्ठू 58 देशों का आर्थिक, सामरिक, रणनैतिक, गुप्तचर व राजनैतिक समर्थन प्राप्त था लेकिन इसके बावजूद वह उन सभी क्षेत्रों से पीछे हटने पर विवश हो गई जिन पर उसने अवैध ढंग से क़ब्ज़ा कर रखा था।
ख़ुर्रमशहर के वीर समूतों में एक अन्य मशहूर नाम मुहम्मद हुसैन फ़हमीदे का है। वे भी बहनाम मुहम्मदी की तरह 13 साल के किशोर थे। बहनाम मुहम्मदी के विपरीत उनका जन्म केंद्रीय ईरान के क़ुम नगर में हुआ था। इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद वर्ष 1979 में इमाम ख़ुमैनी के आदेश पर स्वयं सेवी सेना के गठन के बाद फ़हमीदे इस सेना में शामिल हो गए। सद्दाम की सेना द्वारा ईरान के ख़िलाफ़ युद्ध आरंभ किए जाने के बाद यह छोटा नायक इराक़ की सीमा पर देश के दक्षिणी मोर्चों पर पहुंच गया। उन्हें इस्लामी क्रांति के नेता इमाम ख़ुमैनी से गहरी श्रद्धा और लगाव था। जब कम आयु के कारण उन्हें कई बार मोर्चों से लौटा दिया गया तो उन्होंने कहा कि अपने आपको कष्ट न दीजिए, अगर इमाम ख़ुमैनी कहेंगे तो मैं जहां भी रहूंगा वहीं से जाने के लिए तैयार हूं। मुझे अपने देश की सेवा करनी है, मैं वापसी का वादा नहीं कर सकता।
विरोध के बावजूद वे एक बार फिर दक्षिणी ईरान में युद्ध के मोर्चों पर पहुंच गए। अग्रिम मोर्चों पर वे अपने मित्र मुहम्मद रज़ा शम्स के साथ मौजूद थे। मुहम्मद रज़ा घायल हो गए जिसके बाद फ़हमीदे ने बड़ी मुश्किल से उन्हें पीछे पहुंचाया और फिर अपने स्थान पर लौट आए। उन्होंने देखा कि कई इराक़ी टैंक हमले के लिए आगे बढ़ रहे हैं। मुहम्मद हुसैन फ़हमीदे के पास कुछ हथगोले थे जिनमें से उन्होंने कुछ को कमर में बांधा और कुछ को हाथ में लेकर टैंकों की तरफ़ बढ़ने लगे। उसी समय उनके पैर में एक गोली लगी और वे घायल हो गए लेकिन इससे उनके फ़ौलादी इरादे में कोई परिवर्तन नहीं आया। उन्होंने बिना डगमगाए अपने संकल्प को व्यवहारिक बनाया और चारों ओर से बरस रही गोलियों की परवाह किए बिना अपने आपको दुश्मन के टैंकों तक पहुंचा दिया और हथगोलों से सबसे आगे वाले टैंक को उड़ा दिया। ख़ुद उनके भी टुकड़े टुकड़े हो गए। जब अगला टैंक धमाके से उड़ गया तो इराक़ी हमलावरों को लगा कि सामने से हमला हुआ है और वे हिम्मत हार बैठे और टैंकों को छोड़ कर भाग खड़े हुए। इसके परिणाम स्वरूप ख़ुर्रमशहर की घेराबंदी ढीली हो गई और कुछ समय बाद देश के ताज़ा दम सैनिक भी पहुंच गए।
इस्लामी क्रांति की सफलता की दूसरी वर्षगांठ पर इमाम ख़ुमैनी ने अपने संदेश में कहा थाः हमारा नेता वह 13 वर्षीय बच्चा है, जिसने अपने नन्हे से दिल के साथ जिसका मूल्य सैकड़ों ज़बानों और क़लमों से अधिक है, हथगोले के साथ अपने आपको दुश्मन के टैंक के नीचे पहुंचाया और उसे ध्वस्त कर दिया और साथ ही स्वयं भी शहादत पाई। इमाम ख़ुमैनी के इन शब्दों से मुहम्मद हुसैन फ़हमीदे और उनका बलिदान ईरान के वैभवपूर्ण इतिहास के गौरवपूर्ण पन्नों में अमर हो गया। आज हर ईरानी युवा, फ़हमीदे को अमर मानता है जो हर ईरानी के लिए गर्व का कारण बन चुके हैं। मुहम्मद हुसैन फ़हमीदे के शरीर के टुकड़ों को तेहरान के बहिश्ते ज़हरा नामक क़ब्रस्तान में दफ़्न किया गया है। (HN)