Mar ०४, २०१९ १३:३१ Asia/Kolkata

आज की कड़ी में हम ईरान में तीसरी शताब्दी हिजरी क़मरी के मशहूर सूफ़ी हुसैन बिन मंसूर हल्लाज के बारे में बताने जा रहे हैं जिन्होंने अपने जीवन, अपनी बातों यहां तक कि अपनी मौत से दुनिया में बड़ी हलचल पैदा कर दी और शताब्दियों का समय बीत जाने के बावजूद आज भी ईरानी व पश्चिमी शोधकर्ता उनके बारे में लिख रहे हैं।

ईश्वर की याद में लीन रहने वाली इस हस्ती ने ईरान, भारत, तत्कालीन तुर्किस्तान, चीन और माचीन के शहरों में बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित किया।

प्राचीन फ़ारसी में मौजूदा चीन के सिन कियांग राज्य के अलावा क्षेत्रों को माचीन कहते थे।

पिछले कार्यक्रम में हमने कहा कि पश्चिम एशिया के विशेषज्ञों सहित दूसरे विशेषज्ञों ने हुसैन बिन मंसूर हल्लाज को पहचनवाने के लिए काफी प्रयास किया परंतु उसके बावजूद अभी भी उनकी वास्तविक शख़्सियत के बहुत से आयाम अब भी स्पष्ट नहीं है।

हल्लाज का अस्ली नाम हुसैन और उनके पिता का नाम मंसूर था। प्राचीन किताबों व स्रोतों में हल्लाज की पैदाइश का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इस्लामी इनसाइक्लोपीडिया में उनके जन्म का साल 244 हिजरी क़मरी बराबर 858 ईसवी बताया गया है। फ़्रांस के तीन पूर्व विद लुईस मासिन्यून ने अपनी किताब "हल्लाज की मुसीबतें" हेनरी कॉर्बेन ने इस्लामी दर्शनशास्त्र के इतिहास में और रोजे ऑर्नल्ड ने हल्लाज का मत नामक किताब में हल्लाज के जन्म का साल 244 या इसके आस- पास माना है परंतु इनमें से किसी भी किताब में इस दावे की सच्चाई में कोई दस्तावेज़ पेश नहीं किए गये हैं। ऐसा लगता है कि हल्लाज के जन्म का साल अनुमान पर आधारित है जिसके ज़रिए शोधकर्ताओं ने हल्लाज के जीवन की घटनाओं का अनुमान लगाया है। कुछ स्रोतों जैसे जामी की नफ़हातुल उन्स किताब और हल्लाज के बारे में की गयी शायरी में हल्लाज के जन्म का साल 248 हिजरी क़मरी बताया गया है।

                                                       

हल्लाज का जन्म फ़ार्स प्रांत के बैज़ा शहर के उपनगरीय भाग में स्थित तूर नामक गांव में हुआ था। वह बचपन में ही अपने परिवार के साथ इराक़ के वासित नगर पलायन कर गए। हल्लाज शब्द का अर्थ रूई को बीज से अलग करने या रूई धुनने के हैं। शुरु में उनकी यही उपाधि थी और धीरे- धीरे उनका अस्ल नाम उनकी उपाधि के सामने दब गया।

हल्लाज ने ज्ञान अर्जित करने के लिए युवाकाल से ही यात्रा आरंभ की और सहल बिन अब्दुल्लाह तुस्तरी, अम्र बिन उसमान मक्की और प्रख्यात ईरानी परिज्ञानी जुनैद नेहावंदी जैसे अपने समय के बड़ी गुरूओं की शिष्यता ग्रहण की और उन सब के निकट एक होनहार शिष्य के रूप में विशेष स्थान प्राप्त किया। उनके बारे में कहा गया है कि वह जहां भी जाते थे बहुत अधिक लोग उनके अनुयाई हो जाते थे और ये चीज़ बगदाद के धर्मशास्त्रियों और शासकों के भय का कारण बनी और अंततः बग़दाद के तत्कालीन शासकों और धर्मशास्त्रियों ने हल्लाज पर विभिन्न आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया।

हल्लाज के जीवन के अंतिम आठ वर्ष विभिन्न जेलों में बीते। इन वर्षों में हल्लाज का सेवक और उनका साला भी विभिन्न जेलों में उनके साथ था। हल्लाज पर मुकद्दमा चलाये जाने के दौरान बगदाद के सूफियों ने उनके प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई। आखिरी बार जब हल्लाज पर मुकद्दमा चलाया गया और उन पर काफिर होने का दोष लगा और उनकी हत्या का आदेश दिया गया तो बगदाद के सूफियों में से केवल इब्ने अता आदमी थे जिनहोंने हल्लाज और उनके अनुयाइयों के प्रति सहानुभूति दर्शायी थी।

ज्ञात रहे कि बगदाद का सूफी इब्ने अता आदमी अबूल अब्बास के नाम से मशहूर है।

अबूल अब्बास अहमद बिन अता आमुल का रहने वाला था और उसे सुन्नी सूफी समझा जाता था। जब हल्लाज पर आखिरी बार मुकद्दमा चल रहा था तो बगदाद का एकमात्र सूफी इब्ने अता आदमी था जिसने हल्लाज का बचाव किया और उसके बचाव के कारण बाद में हल्लाज विरोधियों के बहुत से आरोपों से बरी हो गये।

जब आठ वर्षों तक हल्लाज कारावास में थे तो उस दौरान नस्र क़शूरी, हाजिब ख़लीफ़ा अलमुकतदिर अब्बासी, खलीफा और उसकी मां सैयदा शुग़ब हल्लाज से श्रृद्धा रखते थे परंतु वे धर्मशास्त्रियों के मुकाबले में अपनी श्रृद्धा व प्रेम को प्रकट नहीं कर सकते थे। ये लोग केवल यह कर सके कि हल्लाज को "दारुस्सुलतान" के निकट जेल में बंद कर दिया गया ताकि वे आराम से हल्लाज से संपर्क कर सकें किन्तु एक घटना घटी जो हल्लाज पर मुकद्दमा तेज़ चलने का कारण बनी। इसी प्रकार तत्कालीन मंत्री हामिद बिन अब्बास ने हल्लाज की हत्या कर दिये जाने पर आग्रह किया।

कहा गया है कि दिनेवर क्षेत्र में ऐसे आदमी को गिरफ्तार किया गया जिसके पास से हल्लाज का विचित्र पत्र मिला। उस पत्र में लिखा था “रहमान और रहीम की तरफ से फलां इब्ने फंला के नाम अर्थात कृपालु व दयालु की ओर से अमुक व्यक्ति के नाम। इस पत्र को बगदाद भेजा गया। जब इस पत्र को हल्लाज को दिखाया गया तो उन्होंने इस पत्र की पुष्टि की और कहा की हां यह पत्र मैंने ही लिखा है। हल्लाज से पूछा कि तूने खुदाई का दावा कर दिया है? हल्लाज ने कहा नहीं।

कहा जाता है कि हामिद बिन अब्बास ने हल्लाज से कहा कि वह इस संबंध में अपनी आस्था को लिखें। तो हल्लाज ने लिखा। हल्लाज के पत्र को अबू मोहम्मद जरीरी और अबू बक्र शिब्ली के लिए पढ़ा गया। पत्र पढ़ने वालों ने पहले तो यह प्रयास किया कि वे इस मामले में नहीं पड़ेंगे परंतु ऐसा नहीं हो पाया। जब हल्लाज की बातों के बारे में अबू मोहम्मद जरीरी से पूछा तो उसने कहा यह आदमी काफिर व नास्तिक है और इसे मार दिया जाना चाहिये। शिब्ली से जब हल्लाज की बातों के बारे में पूछा गया तो उसने थोड़ा नर्म जवाब दिया और कहा कि जिसकी भी इस प्रकार की आस्था हो उसे इस प्रकार की आस्था से रोका जाना चाहिये। इसी प्रकार जब हल्लाज की आस्था को धर्मशास्त्रियों के सामने पेश किया गया तो सबने उसे रद्द कर दिया किन्तु इस बीच केवल सूफी इब्ने अता आदमी थे जिन्होंने हल्लाज की आस्था व बातों को रद्द नहीं किया। कहा गया है कि जब हल्लाज की बातों को हामिद बिन अब्बास के सामने पेश किया गया और इस संबंध में उसकी राय मांगी गयी तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा कि मेरी भी यही आस्था है और इससे हटकर जिसकी आस्था हो वह काफिर है। हामिद बिन अब्बास के आदेश से इब्ने अता आदमी को उसके दरबार में लाया गया और उससे काफी बात की और इब्ने अता ने भी मंत्री से झगड़ा किया और उसने हल्लाज का बचाव किया और उसने मंत्री से तेज़ी और दुस्साहस के साथ बात की। इसके बदले में मंत्री ने इब्ने अता को दंडित करने का आदेश दिया। इब्ने अता को इतना दंडित किया गया कि कुछ ही दिनों के बाद उन्की मृत्यु हो गयी।

   

                        

हल्लाज से जो लंबी पूछताछ हो रही थी वह यथावत जारी रही। हामिद बिन अब्बास प्रतिदिन उसे अपनी सभा में लाता था और धर्मशास्त्रियों व विद्वानों की उपस्थिति में उससे पूछताछ करता था और दोबारा उसे बंदीगृह भेज दिया जाता था। इतनी लंबी जो पूछताछ होती थी उसकी वजह यह थी कि हल्लाज से जो बातचीत होती थी शायद उसके दौरान उसकी हत्या के लिए आवश्यक बहाना मिल जाये। हल्लाज पर जादूगर होने और खुदाई का दावा करने जैसे आरोप थे जिसके कारण उन पर मुकद्दमा चलाया जा रहा था और इसी कारण उन्हें काफिर कहा जाता था। इसी प्रकार हल्लाज पर “अनल हक़  अर्थात मैं हक़” होने का आरोप था। यह वह बात थी जो परिज्ञान में मौजूद थी और वह एक अस्तित्व की ओर इशारा होने के अलावा कुछ नहीं है। इस वाक्य का अर्थ यह है कि न केवल मैं हक़ हूं बल्कि सारी चीज़ें हक हैं। परिज्ञानियों की दृष्टि से हर चीज़ के भीतर ईश्वर है और वे ईश्वर का प्रतिबिंबन हैं। हल्लाज ने कोई असामान्य और अवास्तविक बात नहीं कही थी परंतु उनके समय में और उनके विरोधी उनकी बात मानने के लिए तैयार नहीं थे।

हल्लाज पर जब भी मुकद्दमा शुरू होता था वह इस प्रकार बात करते थे जिससे हर प्रकार का संदेह दूर हो जाता था और हर बार वह शहादतैन पढ़ते थे यानी ईश्वर के एक होने और हज़रत मुहम्मद के उसके दूत होने की गवाही देते थे। इसी प्रकार वह जेल में अधिकतर रोज़ा रखते थे, नमाज़ पढ़ते थे और ईश्वर की उपासना में लीन रहते थे। वह खुदाई या इमाम महदी होने का दावा करने के संबंध में लगाये गये आरोप का खंडन करते थे। इसके बावजूद हामिद बिन अब्बास धर्मशास्त्रियों और न्यायधीशों का आह्वान करता था कि वे हल्लाज की मौत का आदेश दें। हल्लाज पर मुकद्दमा चलाने वाले न तो हल्लाज की भाषा और न ही उनकी बात की गहराई समझ सके।

जब आखिरी बार हल्लाज पर मुकद्दमा चलाया गया तो वह सात महीनों तक लंबा खिंचा। इस दौरान किसी को उनसे मिलने की या तो अनुमति नहीं थी या थी तो बहुत कठिन थी। इतनी कठिन परिस्थिति के बावजूद जो थोड़े से लोग जेल में हल्लाज से मिल सके उनमें से एक इब्ने अता आदमी थे और एक अबू अब्दुल्लाह ख़फ़ीफ़ नाम का शीराज़ का जवान सूफी था। उन्होंने हल्लाज के बारे में जो बातें बयान की हैं उनका उल्लेख सूफी किताबों में किया गया है।  

बहरहाल जब अंतिम बार हल्लाज पर मुकद्दमा चलाया गया तो उन्होंने पूरी शक्ति के साथ अपना बचाव किया और इस्लाम और सुन्नी धर्म के प्रति अपनी आस्था पर बल दिया और हल्लाज की मौत के सिलसिले में जो फतवा दिया गया वह तत्कालीन मंत्री हामिद बिन अब्बास के प्रयासों का परिणाम था और उसकी पुष्टि ख़लीफ़ा ने भी की। इस फतवे को क्रियान्वित होने से रोकने के लिए ख़लीफ़ा हाजिब, नस्र कुशूरी और ख़लीफ़ा की मां सैयदा शुग़ब की ओर से जो प्रयास किये गये वे भी परिणामहीन रहे।

बहरहाल 23 ज़ीलहीज्जा 309 हिजरी कमरी को हल्लाज की मौत के संबंध में दिये गये आदेश को क्रियान्वित कर दिया गया। जब से हल्लाज की मौत का आदेश दिया गया था तभी से सुरक्षा बल और सरकारी जासूस नगर पर पैनी नज़र रखे हुए थे और अपने जीवन की अंतिम रात बिताने के लिए हुसैन बिन मंसूर हल्लाज को सरकारी कारावास में स्थानांतरित कर दिया गया था जबकि शहर के बहुत से लोग हल्लाज की  स्थिति से अवगत ही नहीं थे।