Mar १८, २०१९ १७:१४ Asia/Kolkata

मस्जिद इस्लामी संस्कृति व सभ्यता में सबसे अहम इमारत के रूप में अहमियत रखती है।

पिछली 14 शताब्दियों के दौरान इसकी वास्तुकला कलात्मक व औद्योगिक महारत के साथ आध्यात्मिक आयाम से भी समृद्ध रही है। इस्लामी जगत की ज़्यादातर मस्जिदों में यह आयाम नज़र आता है। इस्लामी जगत में बहुत से शहर हैं जहां सैकड़ों की संख्या में मस्जिदें मौजूद हैं जो अपनी वास्तुकला की विविधता के लिए जानी जाती हैं। इन मस्जिदों में एक समानता इनमें आंगन का वजूद है। वह जगह जो अपनी स्थिति की वजह से साल के ज़्यादातर मौसम में इस्तेमाल योग्य होती है। मस्जिद के आंगन में फ़व्वारों से संपन्न हौज़ बहुत अहमियत रखता है। मस्जिद में पानी की व्यवस्था हमेशा रहती है। हौज़ के पानी में नीले आसमान का प्रतिबिंबन बहुत ही सुंदर लगता है दूसरी ओर हौज़ की वजह से मस्जिद के आंगन में मौसम ठंडा रहता है।

मशहूर पर्यटक व इतिहासकार इबने बतूता ने एक मस्जिद की इमारत को चित्रित करते हुए कहा कि उसके आंगन में बहते हुए पानी की नाली के दोनों ओर जासमीन के फूल और अंगूर की बेलें लगी हुयी हैं जिनसे आंगन स्वर्ग की तरह सुंदर लगता है। उन्होंने इस्फ़हान के निकट अश्तरजान जामा मस्जिद को इस तरह की सुंदर मस्जिद का नमूना बताया है।

मुसलमानों के लिए बाग़ भी अहमियत है। बाग़ भौतिक फ़ायदे के साथ साथ मानसिक सुकून का साधन भी है। इसलिए मस्जिद के निर्माण के लिए उप्युक्त जगहों में से एक बाग़ भी है। इतिहास में ऐसे बाग़ के बहुत से नमूने मिलते हैं जिनमें सुंदर मस्जिद बनी हुयी है। इसका सबसे पुराना नमूना मदीना शहर में स्थित मस्जिद है जिसे मस्जिदुन नबी कहते हैं। जिस ज़मीन पर यह मस्जिद बनी थी उसमें खजूर के पेड़ होने की वजह से इसे अरबी में हदीक़ा कहते थे जिसका अर्थ बाग़ है। इतिहास में मिलता है कि इस मस्जिद में आरंभिक वर्षों में खजूर के पेड़ो की छांव में नमाज़ पढ़ी जाती थी।  मोरक्को की क़ीरवान मस्जिद, यज़्द की अबर आबाद मस्जिद और दमिश्क़ की जामा मस्जिद उन मस्जिदों में हैं जो सुंदर बाग़ के बीच में बनी हैं। इस तरह की मस्जिदें भी बहुत हैं जिनके निर्माण के बाद उनके आंगन में पेड़ पौधे लगाए गए हैं।        

मस्जिद के संबंध में एक अहम बिन्दु का उल्लेख बहुत ज़रूरी है कि इस्लाम में उपासना स्थलों विशेष कर मस्जिद में किसी की प्रतिमा नहीं लग सकती। इसी तरह मस्जिद में इंसान या किसी प्राणी की तस्वीर नहीं हो सकती। अलबत्ता मस्जिद में वनस्पति की डिज़ाइन बनायी जा सकती है। इस तरह की मस्जिद के सबसे पुराने नमूने दमिश्क़ या फ़िलिस्तीन की मस्जिदों में नज़र आते हैं। जहां मस्जिदों में प्राकृतिक आकृतियां, ज्योमितीय लाइन और वनस्पतियों के चित्र मौजूद हैं। इन मस्जिदों की बाहरी और भीतरी दीवारों पर खजूर, अनार और ज़ैतून के पेड़ तथा अंगूर की बेल की आकृति बनी हुयी है। अलबत्ता मस्जिदों में वनस्पतियों की डिज़ाइनें, स्वर्ग के बारे में पवित्र क़ुरआन में वर्णन से प्रेरित लगती हैं।

ईरान में मस्जिदों में पेड़, ईरानी बाग़ की शैली में लगाए जाते हैं। इसी तरह टाइलों पर पेड़ के बने चित्र ईरानी बाग़ से प्रेरित हैं। मस्जिद में नीले रंग की टाइलों और दूसरी कलाकृतियों पर नीले रंग का इस्तेमाल पूर्वी लोगों के लिए अमरता का प्रतीक है। आसमानी नीले रंग की पृष्ठिभूमि में मस्जिद के फ़िरोज़ई रंग के गुंबद, हर देखने वाले को अपनी ओर सम्मोहित करते हैं।      

तबरीज़ की कबूद मस्जिद ईरानी संस्कृति व वास्तुकला का बेहतरीन संगम है और इस्लामी जगत में इस्लाम के फ़िरोज़े के नाम से मशहूर है। इस मस्जिद का निर्माण क़रा क़ूयूनलू शासन श्रंख्ला के सबसे शक्तिशाली शासक जहानशाह की बीवी ने कराया था। यह मस्जिद 870 हिजरी क़मरी बराबर 1465 ईसवी में बनी। जहानशाह और उनके संबंधियों व निकटवर्ती लोगों की क़ब्र इस मस्जिद के तहख़ाने में है। इस मस्जिद में टाइल के विविधतापूर्ण बारीक काम और रंगों में समन्वय की वजह से यह मस्जिद फ़ीरोज़े या कबूद के नाम से मशहूर हुयी। इसमें टाइल का काम सिर्फ़ आसमानी नीले रंग का है और शष्टकोणीय टुकड़े इस्तेमाल हुए हैं। मस्जिद की छत पर प्राकृतिक चित्र सोने के पानी से बने हैं। इस मस्जिद का बड़ा भाग 1192 हिजरी क़मरी बराबर 1778 ईसवी में आए भूकंप से ख़राब हो गया था, लेकिन बाद में इस मस्जिद की मरम्मत हुयी। मस्जिदे कबूद के मुख्य द्वार पर मुज़ैइक टाइल का रिंग बिरंगा सुंदर काम आज भी ईरानी वास्तुकला में रूचि रखने वालों को सम्मोहित करता है।

इतिहास की किताबों में मस्जिदे कबूद को मुज़फ़्फ़रिया इमारत भी कहा गया है। पांचवे क़ाजारी शासक मुज़फ़्फ़रूद्दीन शाह से इसका संबंध बताया गया है। 12वीं हिजरी क़मरी बराबर 17वीं ईसवी में तुर्क भुगोलवेत्ता व इतिहासकार कातिब चलबी ने अपनी किताब "जहान नुमा" में लिखा हैः मस्जिद का दरवाज़ा कसरा के ताक़ से अधिक ऊंचा है। मस्जिद की इमारत बहुत ही अच्छी बनी है। इसे सुंदर टाइल से सजाया गया है। इसका गुंबद बहुत ऊंचा है। जो भी इसमें दाख़िल हो, वह बाहर निकलना नहीं चाहेगा। तबरीज़ की मस्जिदे कबूद में सारी टाइलों पर अलीयुन वलीयुल्लाह सहित पैग़म्बरे इस्लाम के अन्य उत्तराधिकारियों के नाम विभिन्न डिज़ाइन में लिखे हुए हैं मस्जिद का बाह्य रूप ईंट का है जबकि उसके फ़र्श पर चमकती हुयी टाइल बिछी हुयी है।         

एक और मस्जिद जो सुंदर टाइल के काम और वनस्पति की सुंदर डीज़ाइन के लिए मशहूर है वह मशहद शहर में स्थित मस्जिद गौहरशाद नामी मस्जिद है। यह मस्जिद इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के रौज़े के दक्षिणी छोर पर स्थित है। गौहरशाद मस्जिद वास्तुकला के बारीक काम और सुंदर इंटीरियर डिज़ाइन की वजह से तैमूरी शासन काल की वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना समझी जाती है। इस इमारत की डिज़ाइन पूरी तरह ईरानी है और इसमें 4 ऐवान हैं। ऐवान इमारत के उस छतदार भाग को कहते हैं जो सामने से खुला होता है, उसमें दरवाज़ा और खिड़की नहीं होती और उसके सामने आंगन होता है। इस मस्जिद के मीनार 43 मीटर ऊंचे हैं और पूरे मीनार पर टाइल लगी हुयी है। मस्जिद के गुंबद की ऊंचाई लगभग 41 मीटर है और गुंबद के दोनों खोल के बीच 10 मीटर ख़ाली जगह है। मस्जिद का मेहराब संगे मरमर के एक टुकड़े से बना है जिसके बीचो बीच में एक सुंदर शिलालेख लगा है।

गौहरशाद मस्जिद का क्षेत्रफल लगभग 10 हज़ार वर्ग मीटर है। इसमें 8 शबिस्तान हैं। शबिस्तान मस्जिद के उस छतदार भाग को कहते हैं जिसमें एक दूसरे के समानांतर एक जैसे आकार के खंबे होते हैं और उसके एक तरफ़ से मस्जिद के प्रांगण में रास्ता होता है। मस्जिद के आंगन की दीवारों पर 20 मीटर की ऊंचाई तक गहरे रंग के पत्थर लगे हैं और बाक़ी हिस्से पर इस्लीमी अर्थात एरबेस्क शैली में टाइल का काम हुआ है। ये टाइल नीले, सफ़ेद, हरे, पीले और आबनूस की लकड़ी की तरह काले रंग की हैं।

गौहरशाद मस्जिद तैमूरी शासक शाहरुख़ की बीवी गौहरशाद के आदेश से 821 हिजरी क़मरी बराबर 1418 ईसवी में बनी। इस मस्जिद के वास्तुकार क़ेवामुद्दीन शीराज़ी थे। गौहरशाद का नाम रंगीन और मोज़ैइक टाइलों पर लिखा हुआ है और उन्हें अच्छे नाम से याद किया गया है। वह बुद्धिमान व कलाप्रेमी महिला थीं। वह भलाई व उपकार के लिए मशहूर थीं। तैमूरी शासन काल में उन्होंने सामाजिक सेवा और कला की दृष्टि से बहुत काम किए। उन्हें, उन्हीं की वसीयत के अनुसार, अफ़ग़ानिस्तान के हेरात शहर में एक मस्जिद में दफ़्न किया गया। हेरात की जिस मस्जिद में गौहरशाद दफ़्न हैं उसकी वास्तुकला भी मशहद की गौहरशाद मस्जिद की वास्तुकला के अनुसार है।         

गौहरशाद मस्जिद समकालीन इतिहास में राजनैतिक घटनाक्रमों की वजह से अधिक मशहूर रही है। जैसे 1935 ईसवी में तत्कालीन तानाशाही शासक रज़ाख़ान ने मुसलमान औरतों को हेजाब उतारने का आदेश दिया और वह इसे ज़बरदस्ती लागू करवाना चाहता था। लेकिन ईरान की मुसलमान जनता ने उसके इस इस्लाम विरोधी आदेश के ख़िलाफ़ प्रतिक्रिया दिखायी और उस समय के जागरुक धर्मगुरुओं ने एतेराज़ किया। मस्जिद में धर्मगुरुओं के जोशीले भाषण का जनता ने भरपूर स्वागत किया। रज़ा ख़ान के सैनिकों ने गौहरशाद मस्जिद पर हमला कर दिया जिसमें लोग उसकी इस्लाम विरोधी नीति के ख़िलाफ़ धरने पर बैठे थे। रज़ा ख़ान के सैनिकों की फ़ायरिंग में बड़ी संख्या में लोग शहीद व घायल हुए। इस जनसंहार के बाद भी लोग ख़ामोश नहीं बैठे बल्कि इसके विपरीत जन विरोध का दायरा बढ़ता गया।

हर साल ईरानी कैलेन्डर के चौथे महीने में गौहरशाद मस्जिद के शहीदों की याद मनायी जाती है।

 

 

 

 

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