Apr ०९, २०१९ १५:११ Asia/Kolkata

डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिका का राष्ट्रपति बने हुए दो साल से अधिक का समय गुजर रहा है।

   

इस अवधि में उन्होंने बहुत से ऐसे काम किये और नीतियां अपनाई हैं जिनका अमेरिका के भीतर और बाहर बहुत अधिक असर पड़ा है। ट्रंप को डेमोक्रेटों के विरोध के कारण देश के भीतर विभिन्न चुनौतियों का सामना है। इसी  प्रकार ट्रंप के क्रिया- कलापों का देश के बाहर भी बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय मामलों व समस्याओं के संबंध में एकपक्षीय नीति अपना रखी है। ट्रंप द्वारा एक पक्षीय नीति पर आग्रह करने के कारण अंतरराष्ट्रीय संबंधों में बहुपक्षवाद खतरे में पड़ गया है। इस समय अमेरिका रूस और चीन जैसी अंतरराष्ट्रीय शक्तियों और उत्तर कोरिया और ईरान जैसे देशों से न केवल दुश्मनी कर रहा है बल्कि ट्रंप की कार्यवाहियां व नीतियां अटलांटिक महासागर के दोनों ओर मतभेद का कारण बनी हैं। फ्रांसीसी अध्ययनकर्ता मेरी सेसाइल नेव्ज़ का मानना है कि ट्रंप की नीतियों का आधार ज़ोर ज़बरदस्ती है और यह उनकी विशेषता है।

ट्रंप प्रशासन की एक महत्वपूर्ण विशेषता अंतरराष्ट्रीय संगठनों व संस्थाओं और इसी प्रकार क्षेत्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय समझौतों के संबंध में नकारात्मक रवइया है। ट्रंप बहुत से अंतराष्ट्रीय समझौतों से एक पक्षीय रूप से निकल चुके हैं। ट्रंप सरकार इस समय पेरिस के जलवायु समझौते, ईरान के साथ होने वाले परमाणु समझौते, प्रशांत महासागर के दोनों ओर से होने वाले मुक्त व्यापार समझौते, राष्ट्र संघ की मानवाधिकार परिषद और यूनेस्को से निकल चुकी है। इसी प्रकार ट्रंप सरकार ने नार्थ अमेरिकन फ्री ट्रेड एग्रीमेन्ट (नफ्टा) समझौते पर आपत्ति जताकर उसके संबंध में दोबारा वार्ता का आह्वान किया है और अंततः कनाडा और मैक्सिको के दबाव में उसने इन देशों के साथ नये व्यापारिक समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये हैं। अटलांटिक महासागर के दोनों ओर मुक्त व्यापार के संबंध में जो समझौता है उसके संदर्भ में अमेरिका और यूरोप के मध्य होने वाली वार्ता को ट्रंप ने बंद करने का आदेश दिया है। डोनाल्ड ट्रंप ने इसी प्रकार अपनी व्यापारिक नीति के परिप्रेक्ष्य में चीन जैसे कुछ देशों के साथ व्यापारिक युद्ध की धमकी देते हुए कहा है कि वह विश्व व्यापार संगठन से भी निकल जायेंगे। अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के पूर्व सदस्य राबर्ट माली कहते हैं कि ट्रंप की एकपक्षीय नीति के कारण यह देश विश्व में अलग- थलग हो गया है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का एक कार्य अंतरराष्ट्रीय समझौतों की उपेक्षा और ईरान के साथ होने वाले परमाणु समझौते से निकल जाना है। ट्रंप 8 मई 2018 को इस समझौते से एक पक्षीय रूप से निकल गये। ट्रंप के इस कदम से गुट 5+1 के दूसरे सदस्य नाराज़ हो गये। जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन ने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की                 है कि वे परमाणु समझौते के बाकी रहने के प्रति कटिबद्ध हैं। जिन विषयों को लेकर अमेरिका और यूरोप के मध्य मतभेद हैं उनमें से एक ईरान के साथ होने वाला परमाणु समझौता है। यूरोप ईरान के साथ होने वाले परमाणु समझौते को 13 वर्षों के कूटनयिक प्रयासों का परिणाम मानता है। इसी प्रकार वह इस बात का संतोष व विश्वास हासिल करने के लिए परमाणु समझौते को एक महत्वपूर्ण उपलब्धि  समझता है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है। परमाणु समझौते से अमेरिका का निकल जाना इस बात का कारण बना कि अमेरिका और इस समझोते के दूसरे पक्ष एक दूसरे के आमने सामने हो जाएं। यूरोपीय संघ का मानना है कि परमाणु समझौता ईरान की  परमाणु गतिविधियों को नियंत्रित करने का बेहतरीन समझौता है जबकि ट्रंप का मानना है कि इस समझौते को न केवल ईरान परमाणु गतिविधियों को नियंत्रित करने वाला होना चाहिये बल्कि मिसाइल कार्यक्रम, क्षेत्र में ईरान की भूमिका और इसी प्रकार ईरान में मानवाधिकार की स्थिति के बारे में अमेरिकी चिंताओं को दूर करने वाला भी होना चाहिये।

                        

राजनीतिक विशेषज्ञ कर्ट डॉबरोव कहते हैं कि यूरोपीय ईरान के साथ होने वाले परमाणु समझौते के प्रति कटिबद्ध रहना चाहते हैं और उन्हें इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि अमेरिका क्या चाहता है। यद्यपि कुछ यूरोपीय राजनेता भी अमेरिका की भांति यह कहते हैं कि उन्हें ईरान के मिसाइल कार्यक्रम और क्षेत्र में तेहरान की भूमिका के संबंध में चिंता हैं परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि वे परमाणु समझौते की अनदेखी कर देंगे। साथ ही इस समय यूरोप की प्राथमिकता विश्व के विभिन्न देशों व क्षेत्रों के साथ व्यापारिक संबंधों को विस्तृत करना है। इस प्रकार की परिस्थिति में स्वाभाविक है कि यूरोप ईरान के साथ भी अपने संबंधों को विस्तृत व प्रगाढ़ बनायेगा क्योंकि राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से ईरान को विशेष स्थान प्राप्त है और यही चीज़ इस बात का कारण बनी है कि यूरोप ईरान के साथ अपने संबंधों को बनाये हुए है और साथ ही इसे विस्तृत व प्रगाढ़ बनाने के प्रयास में है।

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा पेरिस जलवायु समझौते के असली समर्थक थे परंतु अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बारमबार इस समझौते की आलोचना की है और उसे अपने आर्थिक कार्यक्रमों के बेहतर होने की दिशा की रुकावट बताया है। पेरिस जलवायु समझौते के संबंध में ट्रंप का दृष्टिकोण और उससे निकलने के लिए उनका आदेश न केवल औद्योगिक देशों के नेताओं और आर्थिक क्षेत्र में उभरती शक्तियों की अप्रसन्नता का कारण बना बल्कि जर्मन चांसलर अंगेला मर्केल ने वर्ष 2018 में कनाडा में गुट-7 की बैठक में भाग लिया और इसे एक के विरुद्ध ग्रुप- 6 की बैठक का नाम दिया। उनका इशारा अमेरिका के खिलाफ 6 देशों की एकता की ओर था। जर्मन चांसलर अंगेला मर्केल ने इसी प्रकार पेरिस जलवायु समझौते से निकलने हेतु ट्रंप के निर्णय की प्रतिक्रिया में बल देकर कहा कि पेरिस जलवायु समझौते के संबंध में फिर से कोई वार्ता नहीं होगी जबकि ट्रंप का मानना है कि ज़मीन के गर्म होने और जलवायु के परिवर्तित होने की कोई वास्तविकता नहीं है और यह एक धोखा है जिसे चीनियों ने गढ़ा है।

रूसी राष्ट्रपति के सलाहकार अन्ड्रे बेलिसोफ़ ने कहा है कि यह पूरी तरह स्पष्ट है कि पर्यावरण के संबंध में अमेरिका की सम्मिलिति के बिना पेरिस जलवायु समझौते का कोई विशेष प्रभाव नहीं होगा। क्योंकि विश्व में ग्रीन हाउस गैसों का सबसे अधिक उत्सर्जन अमेरिका करता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका के निकल जाने से अगले कुछ वर्षों में ज़मीन की गर्मी ख़तरनाक सीमा के निकट पहुंच जायेगी क्योंकि ज़मीन का तापमान अधिक करने में अमेरिका की मुख्य भूमिका है।

 

अंतरराष्ट्रीय संगठनों से ट्रंप के निकलने की कार्यवाहियां विशेषकर फिलिस्तीन के संबंध में स्पष्ट हैं। ट्रंप इस्राईल के समर्थन में फिलिस्तिनियों के अधिकारों की बात करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठनों से प्रतिशोध लेने के लिए अब तक काफी कार्यवाहियां की है। राष्ट्रसंघ की मानवाधिकार परिषद और फिलिस्तीनियों को सहायता पंहुचाने वाली संस्था अनरवा से अमेरिका के निकल जाने और पीएलओ के कार्यालय को बंद कर देने और पिछले वर्ष अमेरिका से फिलिस्तीनी राजदूत को निकाल दिये जाने आदि को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।  

इसी तरह अमेरिका राष्ट्रसंघ की सांस्कृतिक संस्था यूनिस्को से निकल गया जिस पर पहली जनवरी 2019 से अमल शुरू हो गया। अमेरिका ने यूनिस्को से निकलने की घोषणा अक्तूबर 2017 में ही कर दी थी। यूनिस्को से अमेरिका के निकलने का कारण फिलिस्तीन समस्या के संबंध में यूनिस्को और अमेरिकी दृष्टिकोणों में मतभेद को बताया गया है। यद्यपि अमेरिका अब भी यूनिस्को में बना रहेगा पर अब वह एक पर्यवेक्षक देश के रूप में रहेगा और अब वह अपना कोई भी फैसला यूनिस्को पर थोप नहीं सकता और न ही यूनिस्को की सदस्यता का पैसा देगा।

यूनिस्को में रूसी प्रतिनिधि एलेक्ज़ेन्डर कोज़ोन्तसोफ़ कहते हैं” यूनिस्को से अमेरिका के निकल जाने से इस संस्था की मानवता प्रेमी सहकारिता को आघात पहुंच रहा है। अमेरिका ने अपने इस कार्य का औचित्य पेश करने के लिए इस संबंध में कुछ बहाने पेश किये हैं। इस संबंध में उसने एक दावा यह किया है कि वह संयुक्त राष्ट्रसंघ और यूनिस्को जैसी संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़ी संस्थाओं व संगठनों में बदलाव चाहता है किन्तु यह मात्र कहने की बात है और वास्तिक कारण यह है कि यूनेस्को ने फिलिस्तीनियों के समर्थन में जो दृष्टिकोण अपनाया है और उसने यूनिस्को में फिलिस्तीन की सदस्यता स्वीकार की थी और कई बार उसने अतिक्रमणकारी जायोनी शासन की कार्यवाहियों की भर्त्सना भी की थी और यह बात अमेरिका को बिल्कुल पसंद नहीं आयी।

अमेरिका के तत्कालीन विदेशमंत्रालय की प्रवक्ता हेदर नाउर्ट ने कहा था कि यूनेस्को में दिन -प्रतिदिन इस्राईली विरोध में वृद्धि एक विषय है जो अमेरिकी चिंता का कारण है और वह यूनिस्को से अमेरिका के निकलने की एक वजह है। इस प्रकार की कार्यवाही और इस्राईल के प्रति अमेरिका का व्यापक समर्थन भी इस दिशा में बाधा न बन सका कि                             अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस्राईल की भर्त्सना न की जाये और वह अलग थलग न पड़े।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय समझौतों से निकलने की जो शैली अपना रखी है अब वह नये और बहुत खतरनाक चरण में प्रविष्ट हो चुकी है। ट्रंप सरकार ने अब परमाणु हथियारों को खत्म और कम करने के समझौते को लक्ष्य बना लिया है और अब वह इस समझौते से निकलने के लिए प्रयास कर रही है। वास्तव में परमाणु हथियारों को कम करने का विषय अमेरिका और रूस के बीच मतभेद और तनाव का एक कारण है। अमेरिकी सरकार ट्रंप के शासन काल में कई समझौतों से बाहर निकल चुकी है इस बात को ध्यान में रखते हुए इस संभावना में वृद्धि हो गयी है कि अमेरिकी सरकार रूस के साथ परमाणु हथियारों को कम करने के समझौते से भी बाहर निकल जायेगी। ट्रंप ने अमेरिका की परमाणु क्षमता को मज़बूत करने और रूस की परमाणु क्षमता को कमज़ोर करने के लक्ष्य से रूस पर आरोप लगाया है कि उसने परमाणु हथियारों को कम करने की संधि का उल्लंघन किया है। अलबत्ता परमाणु हथियार संधि आईएनएफ INF के बारे में मास्को और वाशिंग्टन के मध्य मतभेद बराक ओबामा के काल में भी थे परंतु अब ट्रंप के सत्ता काल में इन मतभेदों में वृद्धि हो गयी है और अब ये मतभेद स्टार्ट- 3 संधि तक पहुंच गये हैं।

रूस के उप विदेशमंत्री सरगेई रियाबकोफ़ ने INF संधि के प्रति मास्को के कटिबद्ध रहने की घोषणा के साथ कहा है कि मास्को का मानना है कि अमेरिका की पुरानी मनोकामना रूस का पूरी तरह निरस्त्रीकरण है और इस संबंध में वह रूसी मिसाइल को विस्तृत होने से रोकने के लिए विभिन्न प्रकार के दबाव का इच्छुक है।

ट्रंप ने एक ओर यह दावा किया है कि रूस ने INF संधि का उल्लंघन किया है और दूसरी ओर उन्होंने यह कहा है कि यह संधि अमेरिका को चीनी मिसाइलों का मुकाबला करने से रोक रही है इसलिए वह महत्वपूर्ण संधि INF से भी निकलने के प्रयास में है। ट्रंप के कथनानुसार नेटो में जो उनके घटक हैं वे INF संधि से अमेरिका के निकलने के निर्णय का समर्थन कर रहे हैं। क्योंकि उनके अनुसार रूस द्वारा INF संधि का उल्लंघन करने के परिणाम में जो ख़तरा उत्पन्न होगा वह उसे समझते हैं। बहरहाल अमेरिका के विदेशमंत्री माइक पोम्पियो ने घोषणा की है कि वाशिंग्टन दो फरवरी 2019 से 6 महीने के लिए INF संधि के क्रियान्वयन को विलंबित कर रहा है।

ज्ञात रहे कि यह हथियारों को नियंत्रित करने का पहला समझौता है जिसकी ट्रंप अनदेखी कर रहे हैं और उनकी यह कार्यवाही परमाणु हथियारों की नई होड़ आरंभ होने और विश्व में असुरक्षा में वृद्धि का कारण बनेगी।