ईरानी संस्कृति और कला-39
विगत में ईरान जैसे विस्तृत देश में यात्रा करना कोई सरल काम नहीं था।
रास्तों में बिना किसी निशानी के मरूस्थलीय, पर्वतीय और घने जंगलों वाले मार्गों से निकलना या वहां से गुज़रना लगभग असंभव था। इसी समस्या के समाधान के उद्देश्य से ईरानियों ने मुख्य मार्गों पर विशेष प्रकार की निशानियां बनाई थीं जिन्हें आजकी भाषा में मीनार या लाट कहा जाता है। इनको सामान्यतः किसी ऊंचाई पर ही बनाया जाता था। इस प्रकार की मीनारों या लाट को प्राचीन सड़कों के किनारे किसी ऊंचे टीले पर बनाया जाता था।
इस प्रकार की मीनारों और लाट के बारे में "राह तथा रबात" नामक पुस्तक के लेखक मुहम्मद करीम पीरनिया लिखते हैं कि पुराने ज़माने में रात के समय या फिर आसमान में बादल छाए रहने की स्थिति में मीनारों या लाटों पर रोशनी की जाती थी ताकि राहगीर दूर से इस रौशनी को देखकर अपने आगे के मार्ग को निर्धारित कर सकें। इस प्रकार की लाट कुछ क्षेत्रों में अभी भी पाए जाते हैं। घने जंगलों वाले रास्तों या मरूस्थलीय रास्तों में इस प्रकार के चिन्हों का होना बहुत ही ज़रूरी था ताकि राहगीर बिना भटके हुए सरलता से अपने मार्ग का निर्धारण कर सकें।
बहुत से लाट या ऊंची मीनारें ऐसी हैं जो आधुनिक रूप में अपनी उपयोगिता को निभा रही हैं जिनको अब मक़बरों के रूप में भी प्रयोग किया जाने लगा। पहले यह होता था कि मीनार या लाट बनवाने वाले यह वसीयत कर जाया करते थे कि उन्हें उसी मीनार या लाट में ही दफ़्न किया जाए। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि लोग महापुरुषों को भी इसी प्रकार के स्थानों में दफ़्न कर दिया करते थे। इस संबन्ध में "राह तथा रबात" नामक पुस्तक में मिलता है कि हमदान और रेई के प्राचीन मार्ग के किनारे-किनारे कई मीनारें और लाट बनी हुई थीं। यह राहगीरों को मार्ग दिखाने में सहायता करती थीं। ऐसी इमारतें अब मज़ार में बदल चुकी हैं किंतु वर्तमान समय में यह मुसाफ़िरों के शरणस्थल में बदल चुकी हैं। इन पुरानी इमारतों की मरम्मत कराके इन्हें यात्रियों के ठहरने के स्थल में बदल दिया गया है।
इमामज़ादे हाशिम का मक़बरा भी एक ऐसा स्थल है जो मुसाफ़िरों के लिए विगत में मार्गदर्शन स्थल रहा है। यह तेहरान-रश्त मार्ग पर स्थित है। उत्तरी ईरान से जब राजधानी तेहरान की ओर आते हैं तो यह पहला स्थल है जहां पर लोग रुककर पड़ाव डालते हैं। इमामज़ादे हाशिम का मज़ार एक ऊंचे टीले पर बना हुआ है। दूर से यह वैसा ही काम करता है जैसे यात्रियों के लिए कोई मीनार या लाट। इस स्थान पर चारों ओर हरियाली फैली हुई है। इतिहास के हिसाब से यह लगभग आठ शताब्दी पुराना है किंतु इसकी इमारत में कच्ची ईंटों का ढांचा सन 625 हिजरी क़मरी में बनाया गया था। इसको इस क्षेत्र की पहली लाट माना जाता है क्योंकि उस काल में इससे अधिक ऊंचाई पर कोई इमारत नहीं थी इसलिए शताब्दियों से यह मज़ार राहगीरों का मार्गदर्शन करता आ रहा है। यहां पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम के एक पौत्र दफन हैं जिनका नाम हाशिम है।
इमामज़ादे हाशिम के मक़बरे के इर्दगिर्द प्राकृतिक सौन्दर्य बिखरा पड़ा है। यहां चारों ओर हरियाली फैली हुई है। इससे कुछ दूरी पर सफ़ीद रूद नामक नदी का तट है। इसके दक्षिणी भाग में धान के सुन्दर खेत हैं। इसी मक़बरे के पास से राजमार्ग गुज़रता है। यहां की प्रकृति ने इस क्षेत्र को बहुत ही आकर्षक बना दिया है। मक़बरे के मीनार की कई बार मरम्मत की जा चुकी है। इसकी मुख्य दीवार पत्थर की बनी हुई है। इमामज़ादे हाशिम के मक़बरे में एक मस्जिद है और बड़ा सा हाल है। इसपर दो गुंबद बने हुए हैं। यहां पर बने गुंबद बहुत दूर से दिखाई देते हैं। प्राचीनकाल में इन गुंबदों को बहुत दूर से देखकर यात्री अपनी यात्रा का मार्ग निर्धारित किया करते थे। वर्तमान समय में इस इमारत के पास होटल और ठहरने के स्थल बनाए गए हैं जिनमें आधुनिक सुविधाएं मौजूद हैं। इस मार्ग से गुज़रने वाले यहां पर रुककर विश्राम करते हैं।
लाट सामान्यतः एक प्रकार की ऊंची मीनार होती है। यह सामान्यतः 40 मीटर तक ऊंची हुआ करती थीं। इनमें से बहुत सी लाट आज भी मौजूद हैं। इनकी चौड़ाई 3 से 8 मीटर तक की हुआ करती थी। इन मीनारों में अंदर सीढिंया बनी होती थीं जिनके माध्यम से मीनार के ऊपरी हिस्से तक जाया जा सकता था। इन मीनारों की दीवारों पर पत्थर के शिलालेख भी टंगे होते थे जिनपर कुछ लिखा होता था। अधिकतर मीनारों पर कूफी लीपि में मीनार के बनने की तिथि और इसके बनाने वाले का नाम लिखा होता था। इससे यह पता चलता है कि प्राचीनकाल में ऊंची मीनारों को विशेष महत्व प्राप्त रहा है क्योंकि यह एक तरफ़ एक सुन्दर इमारत हैं तो दूसरी ओर पर यात्रियों के लिए मार्गदर्शक का काम करती हैं।
मीनारों को बहुत ही सुन्दर ढंग से बनाया जाता था। इनमें से कुछ आठ कोणीय होती थीं जबकि कुछ 12 या कुछ अन्य 14 कोणींय भी हुआ करती थीं। कुछ मीनारें ऐसी बनाई जाती थीं जो ऊपर से तो गोल होती थीं किंतु उनका नीचे का भाग बहुकोणीय होता था। इनमें से अधिकांश पर गुंबद बना होता था। इन गुंबदों के डिज़ाइनों में इतिहास के विभिन्न चरणों में परिवर्तन देखने में आए जो कभी-कभी एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न थे।
बहुत सी मीनारों को विशेष प्रकार से सजाया जाता था जिनमें से कुछ को फ़िरोज़ी रंग के टाइल्स से सुसज्जित किया जाता था। अख़नगान नामक लाट को नवीं हिजरी क़मरी शताब्दी में बनाया गया था। यह मश्हद के निकट स्थित है। यह लाट 17 मीटर ऊंचा है। इसका गुंबद शंकुआकार है। मीनार के हर हिस्से पर की गई मीनाकारी ने इसे दर्शनीय स्थल में बदल दिया है। कहते हैं कि अख़नगान नामक लाट या मीनार जैसे स्थल, जहां एक ओर यात्रियों के लिए मार्गदर्शक और विश्राम स्थल होते थे वहीं पर खगोल शास्त्र के क्षेत्र में काम करने के लिए भी इनका प्रयोग किया जाता था। रादकान नामक मीनार के भीतर हर महीने के हिसाब से अलग-अलग रोशनदान बने हुए हैं।
रास्तों पर बनाई जाने वाली इमारतों में से एक का नाम "चापहारख़ाने" था। इस प्रकार की इमारतों को सामान्यतः मार्गों के किनारे किंतु कुछ फासले पर बनाया जाता था। इनका मुख्य काम यह था कि यहां पर सरकारी आदेश ले जाने वाले वाहक रुककर आराम करते और विश्राम करके सरकारी आदेश या संदेश को बाद वाले स्थान तक पहुंचाते थे। प्राचीनकाल में राजधानी से सरकारी संदेशों को विभिन्न प्रांतों और नगरों तक पहुंचाने के लिए ईरान में इसी शैली का प्रयोग किया जाता था।
इस्लाम के उदयकाल से पहले से ईरान में "चापहारख़ाने" पाए जाते थे। प्राचीन किताबों में इनका उल्लेख मिलता है। एक यूनानी इतिहासकार "हरूदत" लिखते हैं कि प्राचीनकाल में एसा होता था कि सरकारी कर्मचारी सरकारी आदेशों को तेज़ रफ़तार घोड़ों से दूसरे स्थानों पर पहुंचाया करते थे। एसे में बीच में विश्राम के लिए वे जिस स्थान पर ठहरते थे उसे "चापहारख़ाने" कहा जाता था। इसमें होता यह था कि वह कर्मचारी जो सरकारी संदेश लेकर जाता वह रास्ते में जहां पर थक जाता था उससे आगे जहां पर भी "चापहारख़ाना" होता था वहां पर ठहर जाता था और संदेश को वहां पर मौजूद दूसरे सरकारी कर्मचारी को दे देता था। वह उस संदेश को आगे ले जाता था। इस प्रकार कई हाथों से होता हुआ सरकारी संदेश अपने गंतव्य तक पहुंचता था। एक "चापहारख़ाने" से दूसरे "चापहारख़ाने" की दूरी सामान्यतः चार बराबर 25 किलोमीटर हुआ करती थी। वर्तमान समय में ईरान में यह लगभग समाप्त हो चुके हैं।
"चापहारख़ानों" को कच्ची मिट्टी से बनाया जाता था। इनको बस्तियों के किनारे या फिर कारवानसराओं के निकट बनाया जाता था। इसका कारण यह होता था कि इन स्थानों पर बनने से एक तो यह सुरक्षित रहते थे और दूसरे जिस काम के लिए इन्हें बनाया जाता था उस काम को करने में कारवानसराएं सहायक सिद्ध होती थीं। इनको बहुत ही मज़बूत बनाया जाता था। ईरान में जब से कार का चलन हुआ और लोग वाहनों का प्रयोग करने लगे "चापहारख़ानों" की उपयोगिता कम होती गई। इस प्रकार वे धीरे-धीरे समाप्त होते गए।
वर्तमान समय में ईरान में जो "चापहारख़ाना" है वह यज़्द प्रांत के मैबुद नाम क्षेत्र में मौजूद है। इस समय यह पोस्ट आफिस के संग्रहालय में परिवर्तित हो चुका है। इसमें मरूस्थलीय क्षेत्र की वास्तुकला शैली का प्रयोग किया गया है। इसके पीछे एक अस्तबल भी बना है जहां पर जानवरों को बांधा जाता था। इसमें एक ओर यात्रियों के ठहरने के लिए कमरे बने हुए हैं तो दूसरी ओर पशुओं के लिए भी अलग विश्राम स्थल बनाए गए हैं। इसकी मीनार पत्थर की बनी है और इसके अंदर सीढियां है जिसके माध्यम से मीनार की छोर तक जाया जा सकता है। इस इमारत को 17वीं शताब्दी में बनाया गया था। बाद में क़ाजारी काल में इसकी मरम्मत कराई गई। इस समय मैबुद का "चापहारख़ाना" ईरान के महत्वपूर्ण संग्रहालयों में से एक है।