शौर्य गाथा- 15
हमने इस्लामी गणतंत्र ईरान पर सद्दाम सरकार की ओर से अचानक किये गये हमले के बारे में बात की थी।
यह हमला ऐसी दशा में आरंभ किया गया था कि जब इस्लामी गणतंत्र ईरान, एक ओर, इस्लामी क्रांति के खिलाफ की जाने वाली साज़िशों से बचने का उपाय कर रहा था और दूसरी ओर, शाही व्यवस्था के पतन के बाद देश को आर्थिक , राजनीतिक व सैन्य दृष्टि से मज़बूत करने का प्रयास कर रहा था। इन हालात में जब सद्दाम ने अचानक हमला किया तो इस हमले का मुक़ाबला करने के लिए जनता ने स्वंय ही आगे बढ़ कर समितियों का गठन किया। इस प्रकार की समितियों में एक समिति का गठन अहवाज़ में डाक्टर चमरान ने किया था जिसका उद्देश्य, छापामार युद्ध था। डाक्टर चमरान रक्षा की उच्च परिषद में इमाम खुमैनी के प्रतिनिधि और तेहरान से निर्वाचित होने वाले सांसद थे। इस प्रकार के छापामार गुट के गठन में डॅाक्टर चमरान के साथ, वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई भी सक्रिय थे। उस समय वरिष्ठ नेता भी , तेहरान के सांसद और रक्षा परिषद में इमाम खुमैनी के प्रतिनिधि तथा तेहरान के इमामे जुमा थे। गुरिल्ला युद्ध की इस समिति का काम, इराक़ की सेना के विरुद्ध छापामार युद्ध की योजना तैयार करना, स्वंय सेवी बलों को ट्रेनिंग देना आदि था।
वास्तव में पारंपरिक और हथियारों से लैस एक सेना से मुक़ाबले में यदि संसाधन कम हों तो गुरिल्ला युद्ध ही एकमात्र रास्ता बचता है। सद्दाम ने जिस तरह से अचानक ईरान पर धावा बोला था उसके बाद ईरान के सीमावर्ती क्षेत्रों में हर चीज़ का अभाव हो गया था और लोग अपने घरों में मौजूद शिकारी बंदूकों से इराकी सेना का मुक़ाबला कर रहे थे। इसी लिए डॅाक्टर चमरान ने गुरिल्ला युद्ध की ज़रूरत को महसूस किया और चूंकि उन्हें मिस्र , लेबनान और सीरिया में इस्राईल के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध का अच्छा खासा अनुभव था इस लिए उन्होंने गुरिल्ला युद्ध समिति का गठन किया। यह वह समय था कि जब इराक़ी सैनिक, ख़ोज़िस्तान प्रान्त के सब से बड़े नगर , अहवाज़ के द्वार पर दस्तक दे रहे थे। अहवाज़ पर इराक़ी सेना के क़ब्ज़े से सद्दाम के खिलाफ युद्ध के बहुत से समीकरण बिगड़ जाते और वह पूरे खोज़िस्तान पर क़ब्ज़े के अपने सपने को साकार करने से निकट पहुंच जाते।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता, गुरिल्ला युद्ध की समिति के गठन के आरंभिक दिनों के बारे में कहते हैं कि इराक़ियों के ढाई डिवीजन के मुकाबले हमारे पास केवल एक ब्रिगेड थी। वह भी एेसी ब्रिगेड थी जिसके पास एक टुकड़ी के इतना भी सामान नहीं था। इराक़ी इसी ब्रिगेड के भय से आगे नहीं बढ़ रहे थे। इराक़ी , अहवाज़ से लगभग बीस किलोमीटर दूरी तक पहुंच गये थे। लेकिन उस से आगे क्यों नहीं बढ़े? उन्हें किस चीज़ से डर था? उस ब्रिगेड से जिसने वहां मोर्चे बनाए थे और पहरा दे रही थी। हम जब इस ब्रिगेड को जाकर देखते थे तो हमें बहुत दुख होता था कि हमारे पास सैनिक कितने कम हैं। उसके पास हथियार और साधन भी एक टुकड़ी की भांति थे। अब अगर हम यह बताएं कि इस ब्रिगेड के पास कितने टैंक थे तो हर सुनने वाले को आश्चर्य होगा। हथियारों और संसाधनों से वंचित एक छोटी से ब्रिगेड ने दो डिवीजनों को रोके रखा था।
वरिष्ठ नेता इस संदर्भ में अपनी वार्ता के एक अन्य भाग में कहते हैं कि इसी एक ब्रिगेड के भय से वह आगे नहीं बढ़ रहे थे। उनकी नज़रों में हमारी संख्या बहुत अधिक हो गयी थी। हमारे सैनिक छोटी छोटी टुकड़ियों में बंट जाते अर्थात पचास साठ सदस्यों पर आधारित टुकड़ी बनाते जिनमें आईआरजीसी, स्वंय सेवी और सेना के जवान होते थे। यह लोग जाते थे, दुश्मन की सेना में घुसपैठ करते, दुश्मन के समुद्र में घुस जाते, निश्चित रूप से यह दुश्मनों का सागर था लेकिन हमारे जवान उनके बीच घुस जाते , कार्यवाही करते, कुछ टैंक तबाह कर देते और वापस आ जाते। यह इस लिए था कि हमारे जवान, दुश्मन को छोटा और कमज़ोर समझते थे और इसी लिए उनके मध्य जाकर हमला करते थे।
वरिष्ठ नेता ईरानी सैनिकों के इस अभूतपूर्व साहस को ईश्वरीय मदद का परिणाम कहते हैं। इस संदर्भ में वरिष्ठ नेता कहते हैं कि यह एक प्रकार से ईश्वरीय मदद है इसे मैंने स्वंय देखा है कि किस तरह से हमारे कम संख्या को , इराकी अधिक देखते थे यह वास्तव में एक प्रकार से ईश्वरीय कृपा थी। वैसे मैं इस प्रकार की कृपा को भी अपने सैनिकों की श्रद्धा का परिणाम समझता हूं। उसी समय मैं ने जुमा की नमाज़ में बारम्बार यह कहा था कि जो लोग मोर्चों में टैंकों के पास , रण क्षेत्र में ईश्वर को याद रखते हैं और उससे प्रार्थना करते हैं तो वह वास्तव में ईश्वरीय कृपा का कारण बनता है।

वरिष्ठ नेता ने सद्दाम की सेना के खिलाफ युद्ध में सीधे रूप से भाग लिया और शहीद होते होते बचे थे। वह युद्ध के आरंभिक दिनों के बारे में कहते हैं कि हम शहीद चमरान के साथ क्षेत्र के निरीक्षण के लिए जा रहे थे, उस इलाक़े के " दुब्बे हरदान" कहा जाता है। यह इलाक़ा अहवाज़ के पश्चिम में स्थित है। इस बार हम उत्तर की ओर से जाना चाह रहे थे। हमने इसके लिए सूसनगर्द जाने वाली सड़क का चयन किया क्योंकि इस सड़के के बीच से एक राह निकली थी। हम लोग वहां पहुंचे तो देखा कि हमारे जवान मार्टर लांचर लगा कर इंतेज़ार कर रहे हैं , हमारा काम यह था कि हम दुब्बे हरदान जाएं और यह देखें कि वहां दुश्मन क्या कर रहा है और उसकी गतिविधियों की रिपोर्ट तैयार करें और यह देखें कि वह कहां हैं और उनकी पोज़ीशन क्या है। यह हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण था और इसी महत्व की वजह से स्वंय डाक्टर चमरान भी इस कार्यवाही में भाग ले रहे थे , उनके साथ मैं भी था। कुछ अन्य सैनिक भी हमारे साथ थे। हम एक जगह पहुंच कर एक दूसरे से अलग हो गये। हम कई हिस्सों में बंट गये, कुछ दाहिने तरफ गये कुछ बाएं तरफ। यह इस लिए था ताकि हमें दुश्मन की दोनों तरफ की पोज़ीशन का पता चल सके। कुछ लोग सामने भी गये। जो लोग सामने की तरफ गये थे वह अचानक दौड़ते हुए आए और कहने लगे कि इराक़ियों की कुछ गाड़ियां इस तरफ बढ़ रही हैं, उनके पास भारी हथियार हैं , पता नहीं वह निरीक्षण के लिए आए हैं या फिर उन्हें हमारे बारे में पता चल गया है और वह हमें पकड़ने के लिए आए हैं। इस हालत में हमारे बंदी बनने की आशंका बढ़ गयी थी। डाक्टर चमरान ने देखा कि वहां किसी के पास मार्टर लांचर नहीं है। उन्होंने कुछ लोगों को आरपीजी के साथ आगे भेजा लेकिन फिर स्वंय उन्हें भी चैन नहीं मिला और कहने लगे कि मैं भी जाता हूं। मैं भी उनके साथ जाना चाहता था लेकिन उन्होंने मुझे रोक दिया और कहा कि नहीं आप न जाएं। मैंने बहुत आग्रह किया लेकिन वह नहीं माने और उन्होंने कहा कि आप हमारी वापसी तक यहीं रुके रहें।
वरिष्ठ नेता ने इस अभियान में जो खतरनाक स्थिति पैदा हो गयी थी उसके बारे में बताते हुए कहा कि हम लोग डाक्टर चमरान के इंतेज़ार में बैठ गये, हमारे साथ कुछ दूसरे जवान भी थे। हमारे पास मार्टर लांचर के साथ सैनिक थे और राइफलें भी थीं। हम यह इंतज़ार कर रहे थे कि शायद जो लोग आगे गये हैं उन्हें हमारी मदद की ज़रूरत हो अगर उन्हें ज़रूरत होगी तो हम आगे बढ़ जाएंगे और अगर वह पीछे आए तो हम भी उनके साथ पीछे हट जाएंगे। इसी मध्य हमने देखा कि अचानक ही हमारे चारो ओर गोलाबारी होने लगी। संयोग से हम एक पेड़ के नीचे बैठे थे। अस्ल में गर्मी बहुत ज़्यादा थी इस लिए हम लोग पेड़ की छाया में बैठे थे। लेकिन हम ने देखा कि उसी पेड़ के आस पास गोलाबारी हो रही है क्योंकि वह पेड़ को एक चिन्ह के रूप में देख रहे थे इसी लिए उसके आस पास गोलाबारी कर रहे थे। हम लेट गये और पोज़ीशन ले ली ताकि गोलों से बच सकें। लेकिन गोलाबारी में तेज़ी आ गयी और हमारा वहां ठहरना मुश्किल हो गया इस लिए हमने फैसला किया कि अपनी जगह बदल लें और यह देखें कि जगह बदलने के बाद भी वह गोलाबारी जारी रखते हैं या नहीं ?
वरिष्ठ नेता आगे बताते हैं कि इराक़ियों की गोलाबारी से बचने के लिए और यह जानने के लिए उन्होंने हमें देख लिया है या नहीं हमने अपनी जगह बदलने का फैसला किया और पेड़ के नीचे से पीछे हटने लगे इसी दौरान कई गोले हमारे आस पास गिरे जिसकी वजह से हम लेट गये। मुझे अच्छी तरह से याद है हम बडी खतरनाक पोज़ीशन में थे और बस ईश्वरीय कृपा ही थी जिसकी वजह से हमें कोई गोला नहीं लगा। हम ज़मीन पर लेटे हुए थे और हमारे चारों ओर गोले गिर कर फट रहे थे, गोलों के धमाकों से हमारे कान फटे जा रहे थे। हमारे क़रीब ही एक नहर थी उस में भी गोले गिर रहे थे जिससे अजीब सी आवाज़ निकलती थी , आप कल्पना करें कि पानी में जब गर्म लोहा डाला जाए तो कैसी आवाज़ निकलती है उसी तरह की आवाज़ निकल रही थी। जब वहां से हम दूर निकल गये तो हम ने देखा कि गोलाबारी उसी जगह पर हो रही थी जहां हम बैठे थे यानी उसी पेड़ के आस पास जहां हम आराम कर रहे थे अगर हम वहां रुक गये होते तो निश्चित रूप से हम छे सात लोगों की जान नहीं बचती और हम लोग निश्चित रूप से शहीद हो जाते।