Jul २९, २०१९ ११:५८ Asia/Kolkata

ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने ज़ायोनियों द्वारा फ़िलिस्तीन के अतिग्रहण के बाद दो अप्रैल 1947 को संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्कालीन महासचिव को एक पत्र लिखकर फ़िलिस्तीन की संकटमयी स्थिति पर ध्यान देने की मांग की।

इस प्रकार से विवाद को हल करने के लिए 11 सदस्यीय कमेटी का गठन हुआ और पश्चिमी शक्तियों विशेषकर ब्रिटेन के हस्तक्षेप और सुझाव से फ़िलिस्तीन को यहूदी और अरब दो देशों में विभाजित करने की पुष्टि की गयी।

फ़िलिस्तीन के मुसलमानों और अन्य स्वतंत्रता प्रेमी मुसलमानों ने इस योजना का कड़ा विरोध किया और कहा कि वह हर उस योजना के कड़े विरोधी हैं जो फ़िलिस्तीन के विभाजन का कारण बनेगा। उस समय फ़िलिस्तीन की ऐतिहासिक धरती पर अतिग्रहण के लिए ज़ायोनियों ने क्रूर और भीषण अपराध कर दिए जिससे लगभग दस लाख फ़िलिस्तीनी विस्थापित हो गये। इसीलिए सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव क्रमांक 194 पारित किया। इस महत्वपूर्ण प्रस्ताव में विस्थापितों को हर्जाना देने और उनके स्वदेश वापसी पर बल दिया था किन्तु ज़ायोनी शासन ने यह प्रस्ताव मानने से इनकार कर दिया।

इस्राईली विश्वविद्यालय के सोशल साइंस के प्रोफ़ेसर शोल्मो आवेन्री 2008 में सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव क्रमांक 194 के बारे में स्वीकार करते हैं कि इस प्रस्ताव पर अमल करने का अर्थ, फ़िलिस्तीनियों के वापसी के हक़ को स्वीकार करना है जो किसी भी स्थिति में इस्राईली वार्ताकारों के लिए स्वीकार नहीं है। ज़ायोनी शासन ने गठन के समय से ही सुरक्षा परिषद के किसी भी प्रस्ताव पर अमल न किया। यह विषय ऐसी हालत में है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के बहुत से प्रस्ताव, अमरीका, ब्रिटेन और फ़्रांस द्वारा ज़ायोनी शासन के समर्थन के कारण पास नहीं हो सका।

वर्ष 1967 में इस्राईल और अरबों के बीच छह दिवसीय युद्ध के बाद सुरक्षा परिषद ने बैतुल मुक़द्दस सहित अतिग्रहित क्षेत्रों से वापसी पर आधारित एक प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव को भी ज़ायोनी शासन ने नहीं माना इसीलिए सुरक्षा परिषद ने 2 अक्तूबर 1973 में प्रस्ताव क्रमांक 338 को पारित करके प्रस्ताव क्रमांक 242 लागू करने की मांग की थी।

ज़ायोनी शासन के विस्तारवाद और पश्चिम द्वारा उसके जारी समर्थन की वजह से फ़िलिस्तीनी जनता के बीच प्रतिरोध की भावना मज़बूत हुई, इस प्रकार से कि ज़ायोनी शासन और उसके घटकों के दबाव का हथकंडा भी प्रतिरोध को समाप्त न कर सका। यही कारण है कि बीसवीं शताब्दी के नब्बे के दशक में प्रतिरोध को समाप्त करने के लिए विभिन्न योजनाएं और षड्यंत्र पेश किए गये। फ़िलिस्तीनियों के प्रतिरोध ने ज़ायोनी षड्यंत्रों और साज़िशों को नाकाम बना दिया।

13 सितम्बर 1993 में विश्व की तीन हज़ार हस्तियों की उपस्थिति में ज़ायोनी शासन और फ़िलिस्तीनी प्रशासन के बीच अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के सामने ओस्लो समझौता हुआ। फ़िलिस्तीनी प्रशासन की ओर से समझौते पर हस्ताक्षर यासिर अराफ़ात ने किया जबकि ज़ायोनी शासन की ओर से ज़ायोनी प्रधानमंत्री इस्हाक़ राबिन ने हस्ताक्षर किए।

ओस्लो समझौते से ख़ुश अमरीकी राष्ट्रपति ने अपनी पीठ थपथाते हुए कहा ज़ायोनी प्रधानमंत्री इस्हाक़ राबिन ने भी अपनी ख़ुशी का इज़हार करते हुए जज़बाती लहजे में कह डाला

जब अमरीकी राष्ट्रपति और ज़ायोनी प्रधानमंत्री अपना अपना बयान दे चुके तो यासिर आराफ़ात के पास कहने को कुछ नहीं था तो उन्होंने सिर्फ़ लोगों का आभार व्यक्त किया।

वास्तव में यह समझौता समस्या के समाधान के लिए किया गया जिसमें तय किया गया था कि दोनों पक्ष, एक दूसरे को तथाकथित फ़िलिस्तीनी और इस्राईली सीमाओं की परिधि में जीने के हक़ को आधारिक रूप से स्वीकार करें किन्तु अतिग्रहणकारी ज़ायोनी शासन को भी यह बरदाशत नहीं हुआ और उसने फ़िलिस्तीनियों के साथ संघर्ष विराम का विरोध करते हुए अलख़लील नामक मस्जिद पर हमलाकर के दसियों नमाज़ियों को मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार से ओस्लो समझौते की भी धज्जियां उड़ गयीं।

तेल अवीव सरकार के हित में फ़िलिस्तीन में सांठगांठ करने के लिए अमरीका के निरंतर प्रयासों के बाद, फ़िलिस्तीनी प्रशासन और ज़ायोनी शासन ने बिल क्लिंटन की सीधी निगरान में वाय रिवर नामक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के अंतर्गत ज़ायोनी शासन को जार्डन नदी के पश्चिमी तट के 13 प्रतिशत भाग को छोड़ना था किन्तु नेतनयाहू ने इस समझौते पर हस्ताक्षर के बाद ज़ायोनी बस्तियों के निर्माण में तेज़ी कर दी।

वर्ष 1999 में एहूद बराक के सत्ता में पहुंचने के बाद मिस्र के शहर शरमुश्शैख़ में फ़िलिस्तीनी प्रशासन और ज़ायोनी शासन के बीच वाय रीवर-2 या शरमुश्शैख़ समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इस समझौते में दोनों पक्षों ने एक स्थाई सहमति तक पहुंचने के लिए फिर से वार्ता करने पर सहमति जताई थी।

जहां एक ओर समझौते पर समझौते हो रहे थे वहीं अरब जगत के लोग और मुस्लिम जनता, ज़ायोनी शासन के साथ सांठगांठ का खुलकर विरोध कर रही थी। दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में प्रदर्शनों और अपनी सरकार के विरुद्ध होने वाले प्रदर्शनों ने यह सिद्ध कर दिया कि यदि उनकी सरकारों ने ज़ायोनी शासन के साथ होने वाली सांठगांठ को स्वीकार कर लिया है लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया है।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने ओस्लो समझौते के आरंभ में ही कह दिया था कि यह लोग सांठ गांठ करना चाहते हैं और इस्लाम की नज़र में फ़िलिस्तीन के मद्दे पर सांठगांठ हराम है।

बहरहाल फ़िलिस्तीन के मुद्दे पर होने वाली सांठगांठ प्रक्रिया पर नज़र डालने से यह सिद्ध हो जाता है कि जितने भी समझौते हुए हैं या जितनी भी सांठगांठ हुई है वह सब इस्राईल को मज़बूत करने और फ़िलिस्तीन को कमज़ोर करने के लिए ही हुई है या यूं कहा जाए कि फ़िलिस्तीन के मुद्दे को जड़ से समाप्त करने के लिए ही है। इसीलिए समस्त मुसलमानों विशेषकर फ़िलिस्तीनियों को अमरीका, पश्चिम और ज़ायोनियों के षड्यंत्रों को समझकर अपने धार्मिक दायित्वों पर अमल करते हुए इन षड्यंत्रों को विफल बनाना होगा। (AK)

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