Aug १३, २०१९ १६:४१ Asia/Kolkata

हमने सद्दाम की अत्याचारी सरकार द्वारा अस्सी के दशक में ईरानी राष्ट्र के ख़िलाफ़ किए जाने वाले अतिक्रमण के मुक़ाबले में ईरानी जनता के आठ वर्षीय साहसपूर्ण प्रतिरोध के दौरान, युद्ध शुरू होने के एक वर्ष बाद ईरानी सेना के पहले बड़े सैन्य अभियान के बारे में बात की थी।

आज इस संबंध में एक अन्य अभियान के बारे में बात करेंगे। इस अभियान का नाम पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की एक उपाधि सामिनुल अइम्मा पर रखा गया था। इसका अर्थ होता है, आठवें इमाम। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम शियों के आठवें इमाम हैं।

सितम्बर 1980 से सितम्बर 1981 तक युद्ध का पहला साल ईरान में राजनैतिक व सामरिक परिवर्तनों का साल था। इस एक साल में ऐसे बहुत से लोगों और राजनैतिक धड़ों की वास्तविकता खुल कर सामने आ गई जिन्होंने इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में आने वाली इस्लामी क्रांति के दौरान अपने आपको क्रांतिकारियों की पंक्ति में शामिल कर रखा था। इस्लामी क्रांति से अमरीका की दुश्मनी और सद्दाम द्वारा इस्लामी गणतंत्र ईरान के ख़िलाफ़ अतिक्रमण ने इमाम ख़ुमैनी व इस्लामी क्रांति के लक्ष्यों के प्रति वफ़ादार क्रांतिकारियों और पश्चिम के समर्थक लिबरल लोगों को पूरी तरह एक दूसरे से अलग कर दिया।

इसके परिणाम स्वरूप ईरान के पहले राष्ट्रपति बनी सद्र को अपने पद से अपदस्थ किए जाने के बाद आतंकी गुट एमकेओ के सरग़ना के साथ फ़्रान्स भाग गए। इसके बाद एमकेओ ने सशस्त्र कार्यवाहियां करना आरंभ कर दीं और देश के सैकड़ों राजनैतिक व सामरिक नेताओं तथा आम नागरिकों पर हमले करके उन्हें शहीद कर दिया। इन परिस्थितियों में राजनैतिक व सामरिक नेतृत्व व जनता सभी ने देश के समक्ष सबसे बड़े ख़तरे के रूप में सद्दाम शासन के अतिक्रमण का मुक़ाबला करने को पहली प्राथमिकता क़रार दिया।

सामिनुल अइम्मा सैन्य अभियान अत्यंत अहम शहर आबादान की घेराबंदी तोड़ने के लिए चलाया गया था जो सद्दाम की सेना के क़ब्ज़े में आ चुके क्षेत्रों को स्वतंत्र कराने के लिए आरंभ किया गया पहला बड़ा अभियान था। यह अभियान सद्दाम की सेना के साथ एक साल से जारी युद्ध में हासिल किए गए अनुभवों को दृष्टि में रख कर  आरंभ किया गया था। युद्ध के पहले वर्ष में कई छोटे अभियान किए गए थे लेकिन ईरान की सेना और इस्लामी क्रांति संरक्षक बल के बीच पूरा समन्वय न होने और एक क्लासिक व पारंपरिक सेना से मुक़ाबले की शैली का अनुभव न होने के कारण वे सभी अभियान या तो विफल रहे थे या अपने सभी लक्ष्य हासिल नहीं कर सके थे।

आबादान की भूराजनैतिक स्थिति से इतर इराक़ के लिए उसके रणनैतिक महत्व के वैचारिक कारण भी थे। इराक़, जिसने 48 घंटों में इस्लामी क्रांति को धराशायी करने के बड़े दावे के साथ ईरान पर हमला आरंभ किया था, ईरान की धरती में रोके जाने और दलदल में फंस जाने के बाद अपनी न्यूनतम मांग के पूरा होने पर भी तैयार था और यह न्यूनतम मांग, आबादान पर क़ब्ज़ा था। सद्दाम को आशा थी कि इस माध्यम से वह 1975 के अलीजीरिया समझौते को रद्द घोषित करके अरवंद रूद नामक नदी को इराक़ की धरती में मिला लेगा। इस बात की पूर्ति के लिए हर चीज़ से पहले आबादान पर नियंत्रण और उस पर क़ब्ज़ा करना आवश्यक था। इस आधार पर कहा जा सकता है कि इराक़ियों के मन में आक्रमाण रणनीति की दृष्टि से आबादान का महत्व, ख़ुर्रमशहर से अधिक था।

युद्ध के आरंभिक दिन गुज़रने के बाद कारून नदी के तट का लगभग 13 किलोमीटर का भाग और उसका इतना ही भाग माहशहर-आबादान राजमार्ग के दक्षिण तक सद्दाम की सेना के क़ब्ज़े में था। इस प्रकार से अहवाज़-आबादान और माहशहर-आबादान जैसे दो अहम राजमार्ग भी इराक़ के नियंत्रण में आ गए थे। इराक़ ने इस क्षेत्र में तीन ब्रिगेड, चार पैदल टुकड़िया और पांच तोपख़ाने की इकाइयां तैनात कर रखी थीं जिससे बग़दाद के लिए इस क्षेत्र के रणनैतिक महत्व का भली भांति अनुमान लगाया जा सकता है।

शहीद बाक़ेरी

सद्दाम के लिए आबादान की अहमियत को ईरान में क्रांति के नेता और राजनैतिक व सामरिक अधिकारी समझ चुके थे। युद्ध शुरू होने के दूसरे ही महीने इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने आबादान पर इराक़ के क़ब्ज़े के संबंध में कड़ी चेतावनियां दी थीं जिसकी वजह से अधिकारी सचेत थे अन्यथा इस शहर का अंजाम भी ख़ुर्रमशहर जैसा होता। इमाम ख़ुमैनी ने पांच नवम्बर 1980 को एक संदेश में इस बारे में कहा थाः “मुझे इस बात की प्रतीक्षा है कि आबादान की घेराबंदी समाप्त हो और मैं आईआरजीसी, सैनिकों और सैन्य कमांडरों को सचेत कर रहा हूं कि यह घेराबंदी अवश्य तोड़ी जानी चाहिए, इसमें ढिलाई नहीं होनी चाहिए, घेराबंदी तोड़ी ही जानी चाहिए। इस बात के बारे में न सोचिए कि अगर वे बाहर आ गए तो क्या होगा? हम उन्हें निकाल बाहर करेंगे। उन्हें आबादान के अंदर आने ही नहीं देना चाहिए।“ इमाम ख़ुमैनी ने सैन्य अधिकारियों से बात में पहली बार “होना ही चाहिए” जैसे शब्द का इस्तेमाल किया था जिससे पता चलता है कि उनकी दृष्टि में आबादान की घेराबंदी तोड़े जाने का कितना महत्व था।

सामिनुल अइम्मा सैन्य अभियान के योजनाकार एक 25 वर्षीय युवा, हसन बाक़ेरी थे। अभियान शुरू होने से कई महीने पहले इस्लामी क्रांति संरक्षक बल आईआरजीसी के तत्कालीन उप कमांडर यूसुफ़ कुलाहदूज़ ने प्रतिरक्षा की उच्च परिषद में इस अभियान का ख़ाका पेश किया था। बनी सद्र को सेना के सुप्रीम कमांडर के पद से अपदस्थ किए जाने से सद्दाम शासन के अतिक्रमण के ख़िलाफ़ इस सैन्य अभियान का मार्ग प्रशस्त हो गया था। विभिन्न क्षेत्रों विशेष कर प्रतिरोध व युद्ध के मैदान में हज़ारों क्रांतिकारी युवाओं की क्षमताएं सामने आने लगी थीं। इन्हीं अद्भुत क्षमता वाले युवाओं में से एक हसन बाक़ेरी थे। शहीद बाक़ेरी ने युद्ध में अद्वितीय भूमिका निभाई और कभी न भुलाए जाने वाले सैन्य नेतृत्व का उत्कृष्ट नमूना पेश किया।

शहीद बाक़ेरी की क्षमताएं युद्ध में अधिक निखर कर सामने आईं और उन्होंने आईआरजीसी में गुप्तचर विभाग और इसी प्रकार की कई अन्य इकाइयों की वृद्धि की। इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद हसन बाक़ेरी ने पत्रकारिता का पेशा चुना और लेबनान व जार्डन में मुसलमानों की स्थिति के संबंध में रिपोर्ट तैयार करने के लिए इन देशों की यात्रा भी की। ईरान पर सद्दाम की सेना के हमले से पहले देश के सीमावर्ती प्रांतों में क्रांति विरोधी गतिविधियां आरंभ होने के बाद शहीद बाक़ेरी आईआरजीसी से जुड़ गए। सद्दाम की सेना के हमले के तीन महीने बाद हसन बाक़ेरी को देश के दक्षिणी भाग में सैन्य अभियानों के केंद्र के उप कमांडर के रूप में चुना गया। उन्होंने देश के दक्षिणी मोर्चों पर अनेक अभियानों की योजना तैयार करने और उन्हें अंजाम देने में बड़ी प्रभावी भूमिका निभाई। सामिनुल अइम्मा नामक बड़ा सैन्य अभियान चार मोर्चों पर अंजाम दिया गया और इन्हीं में दारख़ुवैन नामक अहम मोर्चे की कमान शहीद हसन बाक़ेरी के हाथ में थी।

शहीद बाक़ेरी

शहीद हसन बाक़ेरी ने दारख़ुवैन के मोर्चे पर अपने अधीन सैनिकों को 11 लड़ाकू गुटों में बांटा और उनमें से हर एक के साथ वे वायरलैस से संपर्क रखते थे। दूसरे चरण में उन्होंने अपने सैनिकों को उन क्षेत्रों से अच्छी तरह परिचित कराया जहां अभियान चलाया जाना था। दुश्मन ने दारख़ुवैन में प्रतिरक्षा की आठ पंक्तियां बनाई थीं जिसके चलते शहीद बाक़ेरी ने ऐसी रणनीतियां तैयार कीं दुश्मन की इन पंक्तियों को तोड़ कर दुश्मन की सेना के केंद्र तक पहुंचा जा सके। उनका कहना था कि इराक़ की एक ब्रिगेड कारून नदी पर बने दो पुलों पर निर्भर है और अगर उन पुलों को तोड़ दिया जाए तो दुश्मन घेरे में आ जाएगा। इसी लिए उन्होंने क़सबा नामक पुल के किनारे इराक़ की उक्त ब्रिगेड को निशाना बनाया ताकि पुल और दुश्मन के केंद्र को एक साथ अपने नियंत्रण में ले लें।

शहीद हसन बाक़ेरी ने एक और योजना बनाई थी जिसके अंतर्गत सुलैमानिया नहर के माध्यम से कारून नदी में तेल फैला कर उसमें आग लगा दी जाए और दुश्मन कि स्थिति ऐसी बना दी जाए कि वह कुछ भी न कर सके। सामिनुल अइम्मा सैन्य अभियान के बाद तरीक़ुल क़ुद्स, फ़त्हुल मुबीन और बैतुल मुक़द्दस जैसे ईरान के अन्य बड़े अभियानों तथा ख़ुर्रमशहर को स्वतंत्र कराने में भी शहीद बाक़ेरी की भूमिका अत्यंत अहम व प्रभावी थी। (HN)

टैग्स