Apr २७, २०१६ १६:३२ Asia/Kolkata

तलाक़ सूरा पवित्र नगर मदीना में उतरा और इसकी 12 आयतें हैं।

 पहली आयत तलाक़ और उससे जुड़े मामलों के बारे में है। इस सूरे के दूसरे भाग में दो गुटों के अंजाम का उल्लेख है। एक बुरे लोगों को मिलने वाला दंड और दूसरे भला काम करने वालों को ईश्वर की ओर से मार्गदर्शन व स्वर्गीय अनुकंपाएं हैं। इसी प्रकार इस सूरे में पैग़म्बरे इस्लाम की मार्गदर्शक के रूप में भूमिका और ईश्वर के ज्ञान व शक्ति का उल्लेख किया गया है।  

तलाक़ सूरे की पहली आयत में एक आम हुक्म है जिसे मुसलमानों के मार्गदर्शक पैग़म्बरे इस्लाम तक पहुंचाया गया है। इस आयत में ईश्वर कह रहा है, “हे पैग़म्बर! जब आप अपनी बीवियों को तलाक़ दें तो इद्दत के समय उन्हें तलाक़ दे और इद्दत का हिसाब रखें।”

दांपत्य जीवन एक प्रकार का समझौता है जो दो पक्षों की इच्छा व रूचि से होता है। यह चीज़ परिवार को मज़बूत बनाने वाले तत्वों में शामिल है। हालांकि यह समझौता बहुत मज़बूत है किन्तु यह रद्द भी हो सकता है क्योंकि कभी कुछ ऐसे कारण होते हैं कि दांपत्य जीवन को जारी रख पाना मियां-बीवी दोनों के लिए मुश्किल हो जाता है। इस स्थिति में अब अगर पति-पत्नी ज़बरदस्ती दांपत्य जीवन को आगे ले जाने की कोशिश करेंगे तो इससे दोनों के लिए समस्याएं पैदा होंगी। इसलिए इस्लाम ने ऐसी स्थिति में तलाक़ का विकल्प रखा है किन्तु साथ ही तलाक़ की बहुत बुरायी की है और मियां-बीवी दोनों से अनुशंसा की है कि जब तक मुमकिन हो संयुक्त जीवन को आगे बढ़ांए और तलाक़ से बचें।

पैग़म्बरे इस्लाम के कथन में तलाक़ को ईश्वर की ओर से वर्जित की गयी चीज़ों में सबसे घृणित माना गया है। पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है, “ईश्वर के निकट इससे घृणित काम कोई नहीं है कि घर की बुनियाद जुदाई और तलाक़ के ज़रिए तबाह हो।”

पैग़म्बरे इस्लाम के परपौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं, “वर्जित व हलाल चीज़ों में ईश्वर के निकट तलाक़ से ज़्यादा बुरी चीज़ कोई नहीं है।”

इस्लाम ने जहां एक ओर तलाक़ की इजाज़त दी हैं वहीं आम हालत में इससे दूर रहने की सिफ़ारिश की है क्योंकि इसका व्यक्ति की भावनाओं और परिवार पर सामाजिक दृष्टि से बहुत बुरा असर पड़ता है ख़ास तौर पर बच्चों पर इसका बहुत बुरा असर पड़ता है। यही कारण है कि साफ़ तौर पर कहा गया है कि अगर मियां-बीवी में मतभेद हो जाए तो दोनों ओर के रिश्तेदार व परिवार के बड़े व अनुभवी लोग दोनों के बीच मेल-जोल कराने और उन्हें समझाने की कोशिश करें और उन्हें तलाक़ से रोकें। लेकिन अगर संयुक्त जीवन को जारी रख पाना असंभव लगने लगे और पति-पत्नी के बीच दूरी के सिवा कोई और मार्ग न बचे तो इस स्थिति में कुछ बिन्दुओं पर ध्यान देने की ज़रूरत है ताकि तलाक़ का नकारात्मक असर कम हो जाए।

 जैसा कि पवित्र क़ुरआन में तलाक़ सूरे की पहली आयत में कुछ बिन्दुओं का उल्लेख है जैसे बीवी का इद्दत रखना अर्थात पत्नी का पति से तलाक़ लेने के बाद, कुछ दिनों तक दूसरी शादी न करने का आदेश। इसके पीछे निहित बिन्दु यह है कि वंश सुरक्षित रहे और यह बात भी स्पष्ट हो जाए कि बीवी गर्भवती है या नहीं। इसी प्रकार इद्दत का एक लक्ष्य यह भी है कि मियां-बीवी को सोचने समझने का वक़्त मिल जाए और वे एक दूसरे से जुदा न हों। ख़ास तौर पर इसलिए इस्लाम ने इस बात पर बल दिया है कि इद्दत के दौरान बीवी शौहर के घर पर रहेगी और उसके साथ सम्मानजनक व्यवहार किया जाए। स्वाभाविक है कि इस दौरान मियां-बीवी एक दूसरे के साथ रहेंगे तो उन्हें भावना के बहाव में बह कर एक दूसरे से जुदा होने के दुष्परिणाम को समझने का वक़्त मिलेगा। यह चरणबद्ध जुदाई उन्हें इस बात का मौक़ा देती है कि वह फिर से तलाक़ के दुष्परिणाम को सोच समझ लें।

इस बिन्दु का उल्लेख भी ज़रूरी है कि तलाक़े रजई में मियां बीवी इद्दत के दौरानप बिना निकाह के फिर से ज़िन्दगी शुरु कर सकता है। अगर पहली बार तलाक़ होने के बाद इद्दत का समय बीत जाए और मियां-बीवी में मोल-जोल न हो पाए तो ऐसी स्थिति में दोनों के लिए एक दूसरे से जुदा होना ही बेहतर है।

तलाक़ सूरे की दूसरी आयत में ईश्वर कह रहा है, जब इद्दत की समयावधि पूरी होने को आए तो उन्हें अच्छे ढंग से अपने पास रोक लें या अच्छे ढंग से उनसे अलग हो जाएं।

इस आयत में दांपत्य जीवन के बारे में एक बहुत ही अहम निर्देश दिया गया है और वह यह कि मियां-बीवी अच्छी तरह ज़िन्दगी गुज़ारें या अच्छे ढंग से जुदा हो जाएं। दूसरे शब्दों में जिस तरह संयुक्त जीवन मोहब्बत व मानवीय उसूलों पर जीना चाहिए, उसी तरह अलग होते वक़्त भी लड़ाई-झगड़े से दूर रहना चाहिए और इस बात का ख़्याल रखना चाहिए कि किसी के अधिकार का हनन न हो।

अलबत्ता तलाक़ के वक़्त पति-पत्नि को चाहिए कि दो आदिल अर्थात न्यायी लोगों को तलाक़ के लिए गवाह बनाएं ताकि दोनों पक्षों के अधिकार सुरक्षित रहें और अगर भविष्य में कोई मतभेद पैदा हो तो दोनों पक्षों में से कोई भी सच्चाई का इंकार न कर सके। दो आदिल लोगों को गवाह बनाने के पीछे भी एक मक़सद है, वह यह कि जब आप दो लोगों को गवाह बनाएंगे तो वो गवाह, तलाक़ से पहले मियां-बीवी को समझाने और तलाक़ से दूर रहने के लिए प्रेरित करेंगे।

दूसरी आयत के अंत में ईश्वर कहता है, “जो ईश्वर से डरता है, ईश्वर उसकी मुश्किल को हल करने का रास्ता निकाल देता है।”

तलाक़ सूरे की तीसरी आयत में ईश्वर कहता है, “और उसे उस जगह से रोज़ी देता है जहां से वह सोच भी नहीं सकता और जो कोई ईश्वर पर भरोसा रखता है ईश्वर उसके लिए काफ़ी है।”

तक़वा अर्थात ईश्वर से डरना एक निवारक तत्व है जो पति-पत्नी को सत्य के मार्ग से हटने से बचाता है और एक दूसरे के अधिकार का सम्मान करना सिखाता है। पवित्र क़ुरआन पति-पत्नी और गवाहों को सचेत करता है कि मुश्किलों से न डरें और उसके हल के लिए ईश्वर पर भरोसा रखें। क्योंकि ईश्वर ने इस बात की गैरंटी दी है कि वह अपने सदाचारी बंदों की मुश्किलों को हल करता है और उन्हें ऐसे स्थान से रोज़ी देता है जिसके बारे में वह सोच भी नहीं सकते।

पवित्र क़ुरआन में ईश्वर से डरने के साथ साथ उस पर भरोसे को मुश्किलों से बाहर निकलने का दूसरा साधन बताया गया है जैसा कि ईश्वर कह रहा है, “जो भी ईश्वर पर भरोसा करता है वह उसके लिए काफ़ी है।”

हक़ीक़त यह है कि ईश्वर से डर और उस पर भरोसा किसी भी मुश्किल से निकलने के दो बड़े साधन हैं। क्योंकि सर्वसमर्थ ईश्वर का आदेश हर जगह लागू है। वह जिस काम का इरादा करता है उसे पूरा कर देता है। उसके इरादे के सामने कोई की मुश्किल टिक नहीं सकती।

हालांकि ये आयतें तलाक़ और उससे जुड़े मामलों के बारे में हैं किन्तु इनके अर्थ का दायरा इससे कहीं व्यापक है। ये आयतें ईश्वर की ओर से सभी सदाचारियों और उस पर भरोसा रखने वालों को इस बात उम्मीद बंधाती है कि ईश्वर की कृपा उनके साथ है जो उनके मार्ग में मौजूद हर मुश्किल को दूर करती है।

तलाक़ सूरे की आयत नंबर 4 में इससे जुड़े कुछ मामलों का उल्लेख है। आयत नंबर 6 में तलाक़ के बाद महिला के अधिकार का उल्लेख किया गया है।

पहले तलाक़ शुदा औरत के इद्दत की समयावधि के दौरान रहने के स्थान के बारे में ईश्वर कहता है, उनके लिए वहां रहने का प्रबंध करो जहां ख़ुद रहते हो। उनके लिए रहने का उचित प्रबंध करो। आयत में आगे आया है,“उन्हें परेशान न करना कि वह घर छोड़ कर जाने पर मजबूर हो जाएं। ऐसा न हो कि द्वेष व घृणा तुम्हें सत्य व न्याय के मार्ग से हटा दे और उन्हें घर व ख़र्च के मूल अधिकार से वंचित कर दो कि उनके लिए जीना कठिन हो जाए और वे चली जाएं।”

अगर तलाक़ लेने वाली औरत गर्भवती है तो जब तक वह गर्भवती है उस वक़्त तक उसका ख़र्च पूरा करना पति की ज़िम्मेदारी है। इस आयत के आगे के भाग में दूध पिलाने वाली औरतों के अधिकार और बच्चों के भविष्य के बारे में है। कुल मिलाकर इस आयत का लक्ष्य यह है कि मियां-बीवी में मतभेद व रंजिश का बच्चों के शारीरिक, भावनात्मक व आत्मिक विकास पर बुरा असर न पड़े।

इस्लाम में तलाक़ शुदा औरत के अधिकारों के संकलन में बहुत सी बारीकियों को मद्देनज़र रखा गया है। जिससे पता चलता है कि इस ईश्वरीय धर्म में पारिवारिक व्यवस्था और महिलाओं व बच्चों के अधिकारों को विशेष अहमियत दी गयी है। पहले चरण में जब तक मुमकिन है तलाक़ से मना किया गया है लेकिन अगर तलाक़ के सिवा कोई रास्ता नहीं निकल पा रहा है तो इस स्थिति में भी इस बात की इजाज़त नहीं है कि बच्चों या औरतों के अधिकार का हनन हो। बल्कि जुदाई की योजना भी इस तरह की है कि दोनों अगर चाहें तो फिर से दांपत्य जीवन शुरु कर सकते हैं। जैसे बीवी को तकलीफ़ न देना, इसी प्रकार बच्चों के भविष्य को स्पष्ट करने के लिए परामर्श जैसे बिन्दु। इन सबका इन आयतों में उल्लेख है जिससे इस विषय की अहमियत का पता चलता है।

तलाक़ सूरे की आयत नंबर 11 में ईश्वर कह रहा है, “पैग़म्बर तुम्हे ईश्वर की ओर मार्गदर्शन करने वाली आयतें सुनाता है ताकि तुम ईमान ले आओ और भले कर्म करो और इस प्रकार अधंकार से निकाल कर प्रकाश में लाता है और जो भी ईश्वर पर आस्था रखे और भले कर्म करे तो ईश्वर उसे स्वर्ग के बाग़ में दाख़िल करेगा कि जिसके नीचे नहरें जारी होंगी और वहां हमेशा रहेंगे।”

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की पैग़म्बरी और पवित्र क़ुरआन के नाज़िल होने का उद्देश्य यह है कि ईश्वरीय आयतों की तिलावत ईश्वर पर आस्था रखने वालों व सदकर्म करने वालों को अज्ञानता व अनेकेश्वरवाद के अधंकारों से निकाल कर एकेश्वरवाद की ओर ले जाती है।

इस आयत में एक महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि इसमें अंधकार बहुबचन आया है और प्रकाश एकबचन है क्योंकि असत्य, नास्तिकता और भ्रष्टाचार के मार्ग अनेक हैं किन्तु सत्य का मार्ग सिर्फ़ और सिर्फ़ एक है।

तलाक़ सूरे की आख़िरी आयत में सात आसमान और ज़मीन को बनाने और सृष्टि के संचालन में ईश्वर के सामर्थ्य का गुणगान करती है और इस बात का उल्लेख करती है कि यह असीम सृष्टि ईश्वर के आदेश से संचालित होती है और इसे पैदा करने के पीछे एक उद्देश्य है। जैसा कि आयत के अंत में ईश्वर कहता है, “यह सब इसलिए है ताकि यह जान लो कि ईश्वर सर्मसमर्थ है और उसका ज्ञान हर चीज़ को अपने दायरे में लिए हुए हैं।” दूसरे शब्दों में इंसान को यह बात मन में बिठा लेनी चाहिए कि ईश्वर उसके पूरे अस्तित्व पर अख़्तियार रखता है और उसके सारे कर्म के बारे में जानता है।


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