Jul २४, २०२३ १४:४४ Asia/Kolkata

दोस्तो जैसाकि आप जानते हैं कि मोहर्रम का महीना आ चुका है। इस महीने की पहचान पैग़म्बरे इस्लाम (स) के प्राणप्रिय नवासे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफ़ादार साथियों के नाम से है।

मोहर्रम का चांद नज़र आते ही इमाम हुसैन अलैहिस्सालम के चाहने वालों के घरों में फ़र्शे अज़ा बिछ जाता है। लोगों की आंखें आंसुओं से छलकने लगती हैं। इस मौक़े पर शायर कहता है किः

घर ज़हरा का लुटने की ख़बर तूने सुनाईतुझे देख के रोती है मोहर्रम में ख़ुदाई

चौदह सौ बरस बीते सब करते हैं शिकवाऐ चांद मुहर्रम के तू बदली में चला जा

इस्लामी मान्यताओं के अनुसार, मुहर्रम की पहली तारीख़ से मुसलमानों का नया साल हिजरी शुरू होता है। मुस्लिम देश के लोग हिजरी कैलेंडर को ही मानते हैं। यह इस्लाम के 4 पवित्र महीनों में से एक है। इस्लाम में मुहर्रम का अर्थ होता है हराम यानी निषिद्ध। लेकिन इस महीने में कर्बला में इंसानियत को झकझोर देने वाली एक ऐसी घटना घटी कि यह महीना हज़रत इमाम हुसैन और उनके वफ़ादार साथियों के नाम से ही जाना जाने लगा। इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के छोटे नवासे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम थे। जिनको पैग़म्बरे इस्लाम अपनी जान से भी ज़्यादा चाहते थे। उनके समय यज़ीद नाम का एक तानाशाह शासक था जो ज़ुल्म के बल पर हुकुमत करना चाहता था। यज़ीद चाहता था कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम भी उनका कहना मानें, उसकी बैअत कर लें, लेकिन उन्होंने यज़ीद जैसे ज़ालिम, अत्याचारी और अधर्मी की बैअत करने से इंकार कर दिया।

इस तरह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पास सिर्फ़ दो ही रास्ते थे। एक यह कि बुराई की जड़ यज़ीद से मुसलमानों के ख़लीफ़ा के रूप में बैअत कर लेते अर्थात उसके आज्ञापालन का वचन देते और दूसरे यह कि क़त्ल हो जाते। इसी लिए वे रात के समय मदीना नगर से बाहर निकल पड़े और मक्के में ईश्वर के सुरक्षित घर काबे की ओर चल पड़े। लेकिन वहां भी पैग़म्बर के नाती सुरक्षित न रहे और हर क्षण इस बात की आशंका थी कि उनकी हत्या करके ईश्वर के घर का अनादर कर दिया जाए। इसी लिए वे मक्के से कूफ़े की ओर रवाना हो गए। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इस पूरी यात्रा में अपने परिवार के साथ थे। वे जानते थे कि अगर वे अपने परिवार को लिए बिना मदीने से निकल गए तो यज़ीद उनके परिवार को यातनाएं देगा और उन लोगों को इमाम पर दबाव डालने के लिए प्रयोग करेगा। यही कारण था कि उन्होंने एक क्षण के लिए भी अपने परिवार को स्वयं से अलग नहीं किया।

दोस्तो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने कहा था कि हुसैन मार्गदर्शन का दीपक और निजात की नौका हैं। उनकी जीवन शैली और उनके शिष्टाचार का व्यवहारिक अनुसरण करके इंसान और समाज ख़ुश क़िस्मत बन सकता है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि वह सही अर्थों में ईश्वर के बंदे थे। वह किसी भी अन्य पदवी से पहले ईश्वर के बंदे थे तथा बंदगी उनके पूरे अस्तित्व, उनकी बातों और कर्मों में सर्वोच्च स्थान रखती थी। वह ईश्वर की प्रसन्नता के अलावा किसी चीज़ के बारे में सोचते ही नहीं थे। उनका उत्साह और संतोष सब कुछ ईश्वर के लिए था। उन्होंने मुआविय के काल में वर्षों बड़े संयम के साथ धर्म की रक्षा की और जब देखा कि ईश्वर की इच्छा यह है कि यज़ीद के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू करें तो वह अपनी जान और अपने प्रिय लोगों को क़ुरबान करने में नहीं हिचकिचाए। उन्होंने कहा कि हे पालनहार! उसे क्या मिला जिसने तुझे खो दिया और उसने क्या खोया जिसने तुझे पा लिया। यही कारण था कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपमानजनक जीवन से सम्मानजनक मौत का चयन किया।

इसी मोहर्रम के महीने में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने पूरी इंसानियत की रक्षा के लिए अपना, अपने बच्चों और अपने साथियों का बलिदान दिया। ऐसी-ऐसी मूसीबतें बर्दाश्त कीं कि उसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता है। यही कारण है कि पूरी दुनिया का मुसलमान विशेषकर शिया मुसलमान मोहर्रम का चांद देखते ही इस इंसानियत के सबसे रक्षक की क़ुर्बानी की याद में शोक सभाओं का आयोजन करते हैं। मोहर्रम के महीने के आगमन के साथ, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफ़ादार साथियों की याद में आयोजित होने वाली शोक सभाओं का दौर पहले दिन से शुरू हो जाता है और आशूरा की दोपहर में अपने चरम पर पहुंच जाता है। आशूरा के दिन, यह शोक बेवतनों की याद में शामे ग़रिबां के नाम से पर जारी रहता है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन ने अत्याचारियों का वास्तविक चेहरा बेनक़ाब कर दिया और उन्हें रहती दुनिया तक घृणा का पात्र बना दिया। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आदोंलन उनकी शहादत तथा घर के लोगों के क़ैदी बनाए जाने के साथ ही अमर हो गया।

दोस्तो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आंदोलन एसे महान इंसानों की याद ताज़ा करता है कि ईश्वर के मार्ग में जिनका बलिदान दूसरों के लिए आदर्श और प्रेरणा है। वह इंसान जिनके लक्ष्य इस दुनिया से बड़े थे और जो महान शिक्षाओं व मूल्यों के लिए संघर्षरत थे। ईमान, वीरता, दृढ़ता और उदारता की दृष्टि से इतिहास के पन्नों की शोभा बढ़ाते हैं। इन इंसानों में से एक हज़रत मुसलिम इब्ने अक़ील हैं। इस महान सिपाही के रूप में वीरता और बलिदान का साक्षात उदाहरण हमारे सामने आ जाता है। कूफ़ा में हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील का युद्ध इमाम हुसैन के महान आंदोलन की भूमिका थी। आज पूरी दुनिया कर्बला से आरंभ हुए आंदोलन को अच्छी तरह से महसूस कर रही है। इस दुनिया में जिस भी कोने में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का अनुसरण करने वाले और उनको चाहने वाले हैं वहां-वहां लोग आसानी से कर्बला के शहीदों के महान बलिदान की प्रभावों को महसूस कर सकते हैं। इन दिनों काले झंडे लहराए जाते हैं और उन पर लिखे नारे, ज़ुल्म के मुक़ाबले में सिर न झुकाना, अपमानजनक जीवन पर सम्मानजनक मौत को चुनना,  आज़ादी और न्याय की मांग करना और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफ़ादार साथियों की बहादुरी को याद करना, हमे जीवन की सबसे महत्वपूर्ण सीख देते हैं।

इस महीने में वक्ता इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महान बलिदान और उनके वफ़ादार साथियों की बहादुरी हर पहलु पर प्रकाश डालते हैं, जो इस बात का कारण बनता है कि आज की पीढ़ी भी कर्बला से आरंभ हुए आंदोलन के बारे में सटीकता से जाने और हर दौर के अत्याचारियों के सामने डटकर मुक़ाबला करने और आंदोलन खड़ा करने का साहस पैदा करे। इसी कारण से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आंदोलन उसी वर्ष सन् 61 हिजरी में नहीं ख़त्म नहीं हो गया बल्कि और उसका प्रभाव दुनिया भर में फैल गया और कई बलिदानों और महाकाव्य रचनाओं का स्रोत बन गया। आशूरा आंदोलन के प्रभाव की एक झलक, इराक़ के बासी शासन द्वारा ईरान पर थोपे गए आठ वर्षीय युद्ध में ईरानी योद्धाओं द्वारा किए गए प्रतिरोध में साफ़ देखी जा सकती है। इस बारे में इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामनेई कहते हैं कि "आप देखिए, इस आधे दिन की घटना (आशूर के दिन) हमारे इतिहास में कितनी धन्य है और आज भी जीवंत और प्रेरणादायक है। यह घटना सिर्फ पढ़ने और सुनाने और लोगों को पसंद आने या भावुक हो जाने के लिए नहीं है, बिल्कुल ऐसा नहीं है, बल्कि यह आशीर्वाद और गतिशीलता का स्रोत है। यह क्रांति, युद्ध और हमारे इतिहास के अतीत में ध्यान देने योग्य रहा है। न केवल शिया मुसलमानों के इतिहास में बल्कि इस्लाम में उत्पीड़न-विरोधी क्रांतियों के इतिहास में भी कर्बला की घटना बहुत ही शानदार और प्रत्यक्ष रूप से प्रभावशाली रही है। मैं यह स्पष्ट रूप से कह सकता हूं कि इतिहास की ऐसी कोई घटना नहीं जानता जिसकी तुलना उस आधे दिन के बलिदान से की जा सके, हर चीज़ उससे छोटी है।"

दोस्तो कार्यक्रम के अंत में ईरान के एक शहीद के ख़त का उल्लेख करना बहुत ही उचित रहेगा जो उसने अपनी मां के नाम लिखा था। शहीद की मां कहती हैं कि, मुझे एक ख़त डाकिये से मिलता है, मैं उस ख़त के पीछे एक नज़र डालती हूं, वह शहीदों के लिए काम करने वाली संस्था की ओर से था, मैंने उस ख़त को खोला, देखा उसमें एक पर्चा है जिसमें शहादत की मुबारकबाद दी गई है, साथ ही में एक और काग़ज़ है जो मेरे बेटे हमीद द्वारा लिखा हुआ था। उसमें उसने लिखा था कि, हर दिन आशूरा है, हर ज़मीन कर्बला, आज पांचवां दिन है जब हम घेरे में हैं, भीषण युद्ध जारी है, प्यास ने हमारे शरीर को बेजान कर दिया है, शहीद नहर के उस पार कोने में चैन की नींद सोए हुए हैं, कुछ हमारे साथी घायल पड़े हैं, लेकिन हमारी मजबूरी कि हमारे पास आह कहने के आलावा कुछ नहीं, जिस थर्मस में हमने पानी भरा था वह कल ख़त्म हो गया है, हम इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सूखे होठों पर क़ुर्बान जाएं। आपका हमीद इब्राहीमी फ़र...

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