हज़रत मासूमा का शुभ जन्म दिवस
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हिजरी क़मरी कैलेंडर के 11वें महीने ज़ीक़ादा की पहली तारीख़ एक महान बहन की अपने महान भाई से महान प्रेम व स्नेह की याद ताज़ा कर देती है।
(last modified 2023-04-09T06:25:50+00:00 )
Aug ०६, २०१६ १५:१५ Asia/Kolkata

हिजरी क़मरी कैलेंडर के 11वें महीने ज़ीक़ादा की पहली तारीख़ एक महान बहन की अपने महान भाई से महान प्रेम व स्नेह की याद ताज़ा कर देती है।

एसा प्रेम जिसके कारण एक बहन अपने भाई से मिलने के लिए मदीना नगर से लंबी यात्रा शुरू करती है और रास्ते में ईरान के क़ुम नगर में उनका स्वर्गवास हो जाता है।

 

हज़रत मासूमा पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की सुपुत्री और हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम की बहन थीं।

 

ज़ीक़ादा की पहली तारीख़ को हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के घर में हज़रत फ़ातेमा मासूमा के जन्म से प्रकाश फैल गया। सन 173 हिजरी क़मरी के ज़ीक़ादा महीने की पहली तारीख़ को ईश्वर ने अपने बंदे हज़रत मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को यह विशेष नेमत प्रदान की। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने नवजात का नाम फ़ातेमा रखा जबकि उनके भाई हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलमा उन्हें मासूमा कहते थे। उनकी माता हज़ारत नजमा जिन्हें ईश्वर ने 25  साल के बाद यह दूसरी संतान प्रदान की थी ख़ुशी से ओत प्रोत थीं। अब उनके बेटे हज़रत अली रज़ा अलैहिस्सलाम को एक बहन मिल गई थी जो हज़रत इमाम हुसैन के लिए उनकी बहन हज़रत ज़ैनब के समान थीं।

हज़रत फ़ातेमा मासूमा का पालन पोषण एसे वातावरण में हुआ जो महानताओं और आध्यात्मिक वैभव से छलकता था। उनके पिता, माता इसी तरह इस घर के सभी सदस्य नैतिक व आध्यात्मिक महानताओं के प्रतीक थे। हज़रत फ़ातेमा मासूमा पैग़म्बरे इस्लाम और ईश्वरीय संदेश वहि से संबंधित घर की सदस्य थीं।

 वह महान ईश्वरीय दूत हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की बेटी, ईश्वरीय दूत हज़रत अली रज़ा अलैहिस्सलाम की बहन तथा ईश्वरीय दूत हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की फुफी थीं। इस प्रकार हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा से उनकी बड़ी समानताएं हैं। वह हज़रत अली की बेटी, हज़रत इमाम हसन और इमाम हुसैन की बहन तथा हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की फुफी थीं। इस प्रकार आज हम जब हज़रत फ़ातेमा मासूमा को श्रद्धांजलि पेश कर रहे हैं तो यह हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा की सेवा में भी एक श्रद्धांजलि है। इतने महान ख़ानदान और एसे आध्यात्मिक वातावरण में आंख खोलने के अलावा हज़रत फ़ातेमा मासूमा ने ख़ुद भी बहुत अधिक परिश्रम किए  और अपने आप को आध्यात्मिक महानताओं से आभूषित किया।

 

हज़रत फ़ातेमा मासूमा नैतिक गुणों व ईश्वरीय महानताओं का प्रतीक थीं। नैतिक  महानतांए प्राप्त करने में पुरुष और महिला में कोई अंतर नहीं है इसका प्रमाण भी हज़रत फ़ातेमा मासूमा की हस्ती है। हज़रत फ़ातेमा मासूमा जब तक मदीना में रहीं और प्रकार अपने भाई हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम से मुलाक़ात के लिए जब उन्होंने अपनी यात्रा शुरू की तो हमेशा नैतिक मूल्यों पर कटिबद्ध रहीं उन्होंने सामाजिक मार्गदर्शन का दायित्व भी संभाला और साबित कर दिया कि सइल्म सामाजिक, सांस्कृतिक, और राजनैतिक गतिविधियों के संबंध में पुरुष और महिला के बीच कोई अंतर नहीं मानता। क्योंकि क़ुरआन भी कहता है कि पुरुष और महिला का संबंध समान हक़ीक़त से है। इस दुनिया में महिला ईश्वरीय सौंदर्य की झलक और पुरुष ईश्वरीय वैभव का चिन्ह है। इसी लिए मानवीय हैसियत और मूल्य की दृष्टि से दोनों समान हैं। ईश्वर ने क़ुरआन के सूरए अहज़ाब की आयत नंबर 35 में महिला और पुरुष की समान विशेषताओं का उल्लख करते हुए कहा है कि निश्चित रूप से मुसलमान पुरुष और मुसलमान महिलाएं, ईमान वाले पुरुष और ईमान वाली महिलाएं, ईश्वर के आज्ञाकारी पुरुष और ईश्वर की आज्ञाकारी महिलाएं, सच्चे पुरुष और सच्ची महिलाएं, संयमी पुरुष और संयमी महिलाएं, ईश्वरीय भय रखने वाले पुरुष और ईश्वरीय भय रखने वाली महिलाएं, अल्लाह के मार्ग में ख़र्च करने वाले पुरुष और अल्लाह के मार्ग में खर्च करने वाली महिलाएं, रोज़ा रखने वाले पुरुष और रोज़ा रखने वाली महिलाएं, चरित्रवान पुरुष और चरित्रवान महिलाएं, ईश्वर का बहुत अधिक स्मरण करने वाले पुरुष और ईश्वर का बहुत अधिक स्मरण करने वाली महिलाएं ईश्वर ने उन सबके लिए क्षमा और महान पारितोषिक रखा है। यह पुरुष और महिलाएं बंदगी और कार्य के महत्व की दृष्टि से बराबर हैं।

 यही कारण हैं कि बंदगी और ईश्वरीय आदेशों पर कटिबद्धता के कारण हज़रत फ़ातेमा मासूमा इतने महान आध्यात्मिक स्थान पर पहुंच गईं कि उनके भाई हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम उनको मासूमा अर्थात हर प्रकार की ग़लती और भूल से पवित्र कहने लगे। उन्होंने यह भी फ़रमाया कि जो भी क़ुम में हज़रत फ़ातेमा मासूमा के रौज़े की ज़ियारत करे उसने मानो मेरी ज़ियारत की है।

 

हज़रत फ़ातेमा मासूमा की एक विशेषता यह थी कि वह इस्लामी ज्ञानों का अथाह सागर थीं। वह ज्ञान जिनसे लोक और परलोक दोनों संवर जाते हैं इससे उन्हें बहुत लाभ मिले। इसी लिए उन्हें आलेमा अर्थात ज्ञानी की उपाधि दी गई। हज़रत फ़ातेमा मासूमा ने अपने पिता और अपने भाई से ज्ञान ग्रहण किया यही कारण था कि वह बहुत कम समय में ज्ञान की बहुत ऊंची मंज़िल पर पहुंच गईं। उनकी जीवन में एक जगह बताया गया है कि एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार से श्रद्धा रखने वाले कुछ लोग इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की ज़ियारत करने और उनसे कुछ सवाल पूछने के लिए मदीना गए। वहां जाकर पता चला कि इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम यात्रा पर गए हैं।

  उन्होंने अपने प्रश्न हज़रत फ़ातेमा मासूमा को दे दिए जो उस समय दस साल की थीं। वह सब अगले दिन इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के घर गए कि अपने प्रश्नों के उत्तर लें लेकिन इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अभी वापस नहीं आए थे। यह सुनकर उन्होंने हज़रत फ़ातेमा मासूमा से कहा कि फिर वह सवाल आप हमें लौटा दीजिए हम जब अगली बार आएंगे तो यह सवाल पूछ लेंगे मगर हज़रत फ़ातेमा मासूमा ने उन्हें खाली हाथ नहीं भेजा बल्कि उनके सारे सवालों के जवाब दिए। जब उन लोगों ने अपने सवालों के जवाब देखे तो बहुत ख़ुश हुए और आभार जताने के बाद मदीना से रवाना हो गए। रास्ते में उनकी मुलाक़ात इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से हुई तो उन्होंने पूरा माजरा बताया। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने सवाल और उनके जवाब देखे तो तीन बार उनके मुंह से निकला कि बाप अपनी इस बेटी के क़ुरबान!

 

हज़रत फ़ातेमा मासूमा की एक और उपाधि मुहद्दिसा है। मुहद्दिस उसे कहते हैं जो पैग़म्बर या इमाम की हदीसों का अध्ययन करे और उन्हें बयान करे ताकि इन महान हस्तियों की जीवन शैली और उनके स्वर्ण कथन सुरक्षित हो जाएं और आने वाली पीढ़ियां उनसे लाभान्वित हों। पैग़म्बरे इस्लाम का एक कथन है कि जो व्यक्ति एक हदीस याद करे और उससे ख़ुद लाभ उठाए या दूसरों को लाभ पहुंचाए तो यह उसके लिए साठ साल की इबादत से बेहतर है।

हज़रत फ़ातेमा मासूमा की एक विशेषता उनका संयम था। संयम बहुत महत्वपूर्ण विशेषता है इस पर ईश्वर के विशेष बंदे ही अडिग रह पाते हैं। इसी लिए ईश्वर ने पैगम्बरे इस्लाम से कुरआन में कहा है कि सब्र करो क्योकि महान पैग़म्बरों ने सब्र किया है। साबिर वह लोग हैं जो मुसीबतें आने पर पूर्ण ज्ञान के साथ संयम रखते हैं और उन्हें शुभसूचना दी गई है तथा स्वर्ग में प्रवेश के समय उनसे कहा जाएगा कि सलाम हो तुम पर तुम्हारे संयम के कारण, इस लोक में कितना अच्छा अंजाम तुम्हारे भाग्य में लिखा गया है।

हज़रत फ़ातेमा मासूमा का जीवन भी दुख और पीड़ाओं से भरा हुआ है। पिता इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को वर्षों अब्बासी ख़ालीफ़ा हारून ने जेल में रखा और उन्हें यातनाएं दीं तथा बाद में शहीद करवा दिया। इसके बाद हारून रशीद के बेटे मामून ने उनके भाई हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम को मदीना छोड़ने पर मजबूर कर दिया। इन घटनाओं से हज़रत फ़ातेमा मासूमा पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। जब हज़रत फ़ातेमा मासूमा को अपने भाई इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम का पत्र मिला तो उन्होंने इस लंबे सफ़र का इरादा कर लिया तथा मदीना से मर्व के लिए रवाना हो गईं। मर्व उस समय अब्बासी शासक मामून की राजधानी थी। इस लंबे सफ़र में जब वह सावह नगर के निकट पहुंची तो पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के दुशमनों ने उनके कारवां पर हमला कर दिया। हमले के बाद हज़रत फ़ातेमा मासूमा बहुत बीमार पड़ गईं और उन्होंने अपने साथ मौजूद लोगों से कहा कि मुझे क़ुम नगर ले चलो क्योंकि मैंने अपने पिता से सुना है कि क़ुम पैग़म्बरे इस्लाम और उनके वंशजों से प्रेम करने वालों का गढ़ है।

 

दूसरी बात यह थी कि हज़रत फ़ातेमा मासूमा के दादा इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने उनके पिता हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के जन्म से पहले ही बता दिया था कि हज़रत फ़ातेमा मासूमा को क़ुम नगर में दफ़्न किया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा था कि जान लो कि ईश्वर का एक हरम है और वह मक्का है, पैग़म्बरे इस्लाम का एक हरम है और वह मदीना है, हज़रत अली का एक हरम है और वह कूफ़ा है तो मेरा और मेरी संतान का हरम क़ुम है। क़ुम हमारा छोटा कूफ़ा है। स्वर्ग के आठ द्वार हैं इनमें से तीन द्वार क़ुम की ओर खुलते हैं। मेरे पुत्र की एक बेटी होगी जिसका नाम फ़ातेमा होगा क़ुम में उसका निधन होगा और उसकी सिफ़रिश से हमारे सच्चे अनुसरणकर्ताओं को स्वर्ग मिलेगा।

इस तरह हज़रत फ़ातेमा मासूमा क़ुम के लिए रवाना हो गईं। इस दौरान हज़रत फ़ातेमा मासूमा ने भारी संयम का प्रदर्शन किया और पीड़ा सहन करती रहीं। क़ुम में उन्होंने अंतिम सांस ली। इसी नगर में आज उनका भव्य रौज़ा मौजूद है जहां श्रद्धालुओं का सागर हमेशा थपेड़े खाता रहाता है।