आतंकवाद से मुक़ाबले का राष्ट्रीय दिन
इस्लामी गणतंत्र ईरान वह देश है जहां 17 हज़ार शहीद एसे हैं जो आतंकियों की टारगेट किलिंग का निशाना बने।
इस्लामी क्रान्ति के बाद से अब तक आतंकी हमलों में मारे गए यह लोग निर्दोष नागरिक अपने आप में ठोस सुबूत हैं इस बात का कि मानवाधिकार के बड़े बड़े दावे करने वालों में सच्चाई नहीं है।
आतंकवाद के मानवता विरोधी अभिषाप को विश्व समुदाय की सबसे बड़ी समस्या माना जा सकता है। यह राष्ट्रों के अधिकारों तथा अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा और भयानक ख़तरा भी है। यह पूरे इतिहास में और विशेष रूप से पिछले सौ साल के दौरान अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा रहा है। युद्ध और आतंकवाद से त्रस्त्र अधिकांश देशों की त्रासदीपूर्ण और दर्दनाक स्थिति वर्चस्ववादी और आतंकी स्वार्थों की देन रही है। विश्व साम्राज्यवाद और पश्चिमी वर्चस्ववादी शक्तियां भी आतंकी गतिविधियों पर जो विश्व के अनेक देशों और विशेष रूप से मध्यपूर्व और उत्तरी अफ़्रीक़ा के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर नज़र आई हैं, कभी भी विरोध के लिए आगे नहीं आति हैं बल्कि उलटा इन शक्तियों ने अलग अलग शैलियों से आतंकियों की मदद भी की है।

इस्लामी गणतंत्र ईरान के कैलेंडर में 8 शहरीहर बराबर 29 अगस्त को आतंकवाद से मुक़ाबले का राष्ट्रीय दिन घोषित किया गया है क्योंकि इसी दिन आतंकी संगठन ने ईरान के प्रधानमंत्री कार्यालय में धमाका किया जिसमें राष्ट्रपति रजाई और प्रधानमंत्री बाहुनर सहित कई लोग शहीद हो गए। इस्लामी गणतंत्र ईरान में टार्गेट किलिंग में मारे गए शहीदों पर लिखी गई पुस्तक में दिए गए आंकड़ों के अनुसार इस्लामी गणतंत्र ईरान के 17 हज़ार से अधिक अधिकारी और आम नागरिक अलग अलग आतंकी संगठनों की टार्गेट किलिंग का निशाना बने। इनमें 12 हज़ार से अधिक शहीद वह हैं जो मुजाहेदीने ख़ल्क़ नामक आतंकी संगठन के हाथों मारे गए जबकि अन्य शहीदों की हत्या दूसरे आतंकी संगठनों जैसे फ़ुरक़ान, कूमला, डेमोक्रेट, तूदे, अशरार, पजाक, जुन्दुल्लाह, ख़ल्क़े अरब, ख़ल्क़े बलोच और तुंदर के हाथों मारे गए। पांच हज़ार से अधिक लोग इन आतंकी हमलों में घायल होकर हमेश के लिए अपंग हो गए। इनमें भी 4 हज़ार लोग वह हैं जो आतंकी संगठन मुजाहेदीन ख़ल्क़ का निशाना बने। ईरान में इस आतंकी संगठन को मुनाफ़ेक़ीन कहा जाता है।

आतंकी संगठन मुनाफ़ेक़ीन को इस्लामी गणतंत्र ईरान की शत्रु सरकारों की आर्थिक, राजनैतिक और प्रचारिक मदद शुरू से ही हासिल रही। इस आतंकी संगठन ने इस्लामी क्रान्ति का सूरज उगने के साथ ही बड़े पैमाने पर टार्गेट किलिंग शुरू कर दी। उसकी मंशा यह थी कि इस्लामी लोकतांत्रिक व्यवस्था के वास्तुकारों को समाप्त कर दिया जाए ताकि देश के मूल स्तंभों में शून्य की स्थित उत्पन्न हो जाए और इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था गहरे आघात से ढेर हो जाए। आतंकी संगठन ने मस्जिदों के भीतर धर्मगुरुओं और अधिकारियों को शहीद किया, राजनेताओं को निशाना बनाया, सुरक्षा अधिकारियों को शहीद किया, आम लोगों की बड़े पैमाने पर हत्या की। हालिया वर्षों में परमाणु वैज्ञानिकों की टार्गेट किलिंग की। बड़े पैमाने पर राजनेताओं, अधिकारियों, धर्मगुरुओं और आम नागरिकों की हत्या करने के बाद आतंकी संगठन ने वर्ष 2009 से 2011 के बीच कई वैज्ञानिकों को शहीद किया।

परमाणु वैज्ञानिकों में सबसे पहले डाक्टर मसऊद अली मुहम्मदी को शहीद किया गया जो ईरान के महत्वपूर्ण भौतिकशास्त्री थे। उन्हें इस्राईल की ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद के एजेंट मजीद जमाली फ़िश ने 12 जनवरी 2010 को तेहरान के क़ैतरिया रोड पर स्थित उनके घर के सामने शहीद कर दिया। इसके बाद 29 नवम्बर 2010 को डाक्टर मजीद शहरयारी और फ़रीदून अब्बासी दव्वानी पर हमला हुआ। 23 जुलाई 2011 को दारयूश रेज़ाई नेजाद की हत्या कर दी गई और 11 जनवरी 2012 को मुसतफ़ा अहमदी रौशन की हत्या कर दी गई। यह सब परमाणु वैज्ञानिक थे।
ईरान के परमाणु वैज्ञानिकों की टारगेट किलिंग इस्राईल की गुप्तचर संस्था मोसाद और अमरीका की गुप्तचर संस्था सीआईए की मिलीभगत से हुई। इन एजेंसियों की यह धारणा थी कि ईरान पर जो अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाए गए हैं उनके माध्यम से ईरान को परमाणु क्षेत्र में क़दम पीछे खींचने पर मजबूर करने के लिए कुछ समय की ज़रूरत है। क्योंकि तत्कालिक रूप से इन प्रतिबंधों का प्रभाव नहीं होगा और यदि इस बारे में ज़्यादा कठोर क़दम उठाए गए तो तेल की क़ीमतें बहुत अधिक बढ़ जाने से विश्व अर्थ व्यवस्था को नुक़सान पहुंचेगा।

ईरान की परमाणु क्षेत्र की प्रगति की रफ़तार प्रतिबंधों के प्रभावों से कहीं अधिक थी। जब इंटैलीजेन्स एजेंसियों ने यह देखा कि ईरान की परमाणु क्षेत्र की प्रगति रुक नहीं रही है तो उन्होंने परमाणु वैज्ञानिकों को शहीद करना शुरू कर दिया ताकि इस रास्ते से ईरान के परमाणु विकास का रास्ता रोक दें। लेकिन परमाणु क्षेत्र में ईरान की निर्णायक सफलताओं ने साबित कर दिया कि अमरीका और इस्राईल की इंटैलीजेन्स एजेंसियों की धारणा बिल्कुल ग़लत थी।
टार्गेट किलिंग जो राजनैतिक या धार्मिक स्वार्थों के तहत करवाई जाती है इस्लामी गणतंत्र ईरान के लिए नई चीज़ नहीं है क्योंकि यह देश टार्गेट किलिंग की भेंट बहुत दिनों से चढ़ रहा है। वर्ष 1979 में ईरान में इस्लामी क्रान्ति सफल होने के बाद आतंकी संगठनों ने अपने विदेशी आक़ाओं के इशारे पर बड़े पैमाने पर ईरान में टार्गेट किलिंग और इस तरह ईरान की शासन व्यवस्था को विफल बना देने का प्रयास किया मगर उनको सफलता नहीं मिली। ईरान की इस्लामी लोकतांत्रिक व्यवस्था का सूरज आज सारी दुनिया में जगमगा रहा है। ईरानी समाज को इस मंज़िल तक पहुंचने के लिए 17 हज़ार से अधिक लोगों की क़ुरबानी देनी पड़ी जो टार्गेट किलिंग का निशाना बने।
इस्लामी गणतंत्र ईरान को अमरीकियों के भी आतंकी हमलों का हमेशा से सामना रहा है। इन बड़े आतंकी हमलों में से एक ईरान के यात्री विमान पर अमरीका का मिज़ाइल हमला है जिस पर लगभग 300 यात्री सवार थे। यह हमला फ़ार्स खाड़ी के क्षेत्र में हुआ और अमरीकी सरकार ने यह भयानक अपराध अंजाम देने वाले सैनिक कमांडर को मेडल से सम्मानित किया।
आज की दुनिया में मध्यपूर्व के क्षेत्र तथा कुछ और भागों में आतंकी संगठन कुछ सरकारों के समर्थन से इस्लाम के नाम पर बेगुनाह इंसानों को मार रहे हैं लेकिन सच्चाई यह है कि आतंकी घटनाओं में सबसे अधिक नुक़सान मुसलमानों को पहुंचा है। मध्यपूर्व और अफ़्रीक़ा में एक ओर आतंकी संगठन मुसलमानों को मार रहे हैं और दूसरी ओर अमरीका तथा यूरोप में नस्लपरस्त धड़े मुसलमानों पर आतंकवादी का ठप्पा लगाकर उन्हें प्रताड़ित करते हैं। इन देशों में मुसलमानो को इसलामोफ़ोबिया और भेदभाव का सामना है।
मुसलमानों पर यह आरोप एसी स्थिति में लगाया जाता है कि जब इस्लाम धर्म की बुनियाद प्रेम और दया पर रखी गई है और यह धर्म बेरहमी से दूर रहने ज़रूरतमंदों की मदद करने और ग़लतियों को माफ़ कर देने और किसी की भी नाहक़ जान न लेने का आदेश देता है। इस्लाम हरगिज़ बर्दाश्त नहीं करता कि किसी की भी जान ली जाए। अबू सबाह कनानी ने पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से कहा कि मेरा एक पड़ोसी जो हमदान क़बीले का है हज़रत अली अलैहिस्सलाम को गालियां देता है क्या आप अनुमति देते हैं कि मैं उसकी हत्या कर दूं? इमाम ने जवाब दिया इस्लाम ने हत्या से मना किया है।

यह भी जानना रोचक होगा कि आज पश्चिमी मीडिया में आतंकवादी हर उस व्यक्ति को कहा जाता है जो हिंसक घटना अंजाम दे। उसका कुछ भी लक्ष्य और उद्देश्य हो। पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित लोग पीड़ित और शोषित राष्ट्रों के जवाबी हमलों को भी आतंकी हमला कहते हैं जिनके अधिकार छीने गए हैं। फ़िलिस्तीन, अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ में यदि स्थानीय संगठन अतिग्रणकारियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही करते हैं तो उसे भी आतंकी हमला कहा जाता है जबकि क्षेत्र के सबसे बड़े आतंकवादी अर्थात ज़ायोनी शासन को पश्चिमी सरकारों की ओर से भरपूर समर्थन मिलता है जो बेगुनाह बच्चों और महिलाओं का जनसंहार कर रहा है।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई ने पश्चिमी देशों के युवाओं के नाम अपने पत्र में लिखा कि फ़िलिस्तीन की पीड़ित जनता 60 साल से अधिक समय से अत्यंत भयानक आतंकवाद का सामना कर रही है। यदि आज यूरोप के लोग कुछ दिन अपने घरों में शरण लेने पर मजबूर हैं और भीड़-भाड़ वाले स्थानों पर जाने से परहेज़ कर रहे हैं तो फ़िलिस्तीनी परिवार दसियों साल से यहाँ तक कि अपने घर में भी ज़ायोनी शासन के विध्वंसकारी और जनसंहारी तंत्र से सुरक्षित नहीं हैं। आज हिंसा की कौन सी ऐसी क़िस्म है कि क्रूरता की दृष्टि से जिसकी तुलना ज़ायोनी शासन के कालोनी निर्माण से की जा सकती है? यह सरकार अपने प्रभावी समर्थकों या विदित रूप से स्वाधीन अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की ओर से किसी भी प्रकार की गंभीर और प्रभावी आलोचना का सामना किए बग़ैर, रोज़ाना फ़िलिस्तीनियों के घरों को ध्वस्त करती है, उनके बाग़ों और खेतों को बर्बाद करती है, यहाँ तक कि उन्हें सामान हटाने और खेतों की फ़सलें काटने तक की मोहलत नहीं देती। यह सब कुछ आम तौर पर महिलाओं और बच्चों की आंसू बहाती आँखों के सामने होता है, जो अपने परिवार के लोगों को मार खाते और यातनागृहों में स्थानान्तरित होते देख रहे होते हैं।